अलसुबह से ही वो आपने काम में व्यस्त हो जाती है। उसकी ज़िंदगी के लम्हों का हिसाब उसी रोज़ तय हो गया था, जिस रोज़ उसकी मांग में शाम का रंग समाया था।
धीरे-धीरे ज़िम्मेदारियाँ बढ़ती गयीं; बच्चे, पति उसके लम्हों के दावेदार भी बढ़ते गए। उसके लम्हे अब उसके नहीं रहे थे, वो अब पराये हो चुके थे।
लम्हें मानो बेटियाँ थी उसकीं!
ड्राइंग रूम में एक तस्वीर लटकी है। नीता से एक दिन छोटी है, शादी के दूसरे दिन लाए थे। नीता अक्सर उस तस्वीर को देखा करती है। बोरिंग दोपहरों में उस बोरिंग तस्वीर को घंटो देखना। ज़हर ज़हर को काट देता है, पढ़ा था उसने कभी।
पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती!
तीन बाई पाँच। एब्सट्रेक्ट आर्ट कहते हैं उसे, कुछ टेढ़ी मेढ़ी सी लकीरें। ग्यारह साल हो गए, लेकिन आज तक वो उसे समझ ही नहीं पाई। हर बार कुछ नया देखती है उसमें। कभी बहती नदी के किनारे बसा कोई छोटा गाँव, कभी सिर पर टोकरी उठाए बाज़ार को जाती किसान औरतें, तो कभी गिल्ली डंडे में झगड़ते बच्चे। समझ नहीं आती शायद इसीलिए वो उसे अब भी रोज देखा करती है। नासमझी रोमांच की एक अवश्यम्भावी शर्त है।
उसका पति उसे बखूबी समझता है!
नौ साल का बेटा है, आठ साल की बेटी। बच्चे कितनी जल्दी बड़े हो जाते है ना, उनकी दुनिया अब अलग हो चुकी है। स्कूल है, स्कूल के दोस्त है, वीडियो गेम्स और टीवी। उसके पास अब भी उसका एकमात्र सहारा, किचन। किचन की दीवारों से उसकी पहचान किसी बचपन के दोस्त सी हो गयी थी। वो उनसे घंटो बातें कर सकती थी, काम करते हुए।
इकतरफा संवाद भी बड़ा सुखदायी होता है!
शाम अचानक दरवाजे की घण्टी बजी, पति इतनी जल्दी तो नहीं आ सकते। फिर कौन है?
"हैलो, जी मैं विक्रम आपका नया पड़ोसी, थोड़ी चीनी मिल सकती है क्या?"
विक्रम एक अठ्ठाइस साल का लड़का है। धीरे धीरे उसके परिवार के करीब आ गया है। दो महीने की ही पहचान में वो उसे अपना सा लगने लगा है। सीढ़ियों और बाल्कनी में होने वाली मुलाकातें अब घर के सोफे तक पहुँच गयी हैं। सफर आसान था या विक्रम की रफ्तार ज़्यादा, ये कहना मुश्किल है, पर जो भी हो , सब बड़ा जल्दी जल्दी हो रहा था।
बंजर जमीन बूँदे सोखने में देर नहीं लगाती!
यूँ किसी का साथ होना, बस इतना ही तो चाहती है औरतें।
क्या सिर्फ औरतें ये चाहती हैं?
मर्द भी तो यही चाहते है, इंसान ने समाज इसलिए ही तो बनाया है ताकि वो साथ रह सके। ऐसे में किसी का साथ अच्छा लगना गलत है क्या? सही गलत के दायरे रबर के बने होते है। आप इन्हें अपनी सहूलियत के हिसाब से बढ़ा सकते हैं।
रबर का भी एक दायरा होता है; उसके बाद वो टूट जाता है!
नीता अपने पति में विक्रम को खोजने की नाकाम कोशिश करने लगी थी। विक्रम में उसका पति बिना ढूँढे ही दिखने लगा था।
मिलावट का शिकार हो रही थी नीता। पति अब भी वही था, ज़रा भी नहीं बदला था, पूरा बदलने के बाद। हाँ नीता अब बदलने लगी थी। ड्राइंग रूम की तस्वीर में अब उसे यूकलिप्टस के झुरमुट नजर आने लगे थे, उन झुरमुट में ग़ुम होते दो साये भी दिखने लगे थे।
बीज ज़मीन के अंदर होते है, दिखते नहीं, पर पौधों की जात के लिए वही उत्तरदायी होते हैं!
"तुम आजकल कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लगने लगी हो, कुछ बदला है क्या?"
"दिन बदले हैं।"
"मुझे लगा तुम बदली हो।"
"ये दिन मेरे ही हैं।''
नीता की ज़ुबान अब आँखों से मेल खाने लगी थी। बेझिझक वो विक्रम से घण्टों बातें करती।
उस शाम तेज बारिश हो रही थी।विक्रम और नीता बाजार में फँस गए। घर आते आते दोनों भीग गये थे। बाइक पर अब पानी से बचाव की कोई व्यस्वस्था नहीं होती ना।
"नीता!''
विक्रम ने दूसरे फ्लोर पर उसका हाथ पकड़ लिया।
"चलो आज तुम्हें अपने हाथ की कॉफ़ी पिलाता हूँ।''
नीता ने मना नहीं किया। तीसरे फ्लोर पर बच्चे आ चुके थे।
भीगे बाल, बदन से चिपके भीगे कपड़े, और गालों पर फिसलती शैतान बूँदें। विक्रम ने बिना कुछ कहे उसके गीले हाथों को हाथ में ले लिया।
रबर का दायरा टूट चुका था!
नीता जब घर पहुँची तो उसके बाल और कपड़े बिखरे थे, वो संवरी थी।
दोपहरें अब बोझिल नहीं रही थी। किचन की दीवारों को अब उसकी बक बक झेलने की ज़रूरत नहीं रही थी। अब वो बच्चों का ख्याल भी ज्यादा रखने लगी थी। पति को अब भी उसके बदलाव नजर नहीं आते थे।
रोशनी काफी नहीं होती, देखने के लिए, आँखें भी खुली होनी चाहियें।
दिन बदल रहे थे, पर दिन बदलने में वक़्त नहीं लगता।
"नीता, मेरा ट्रांसफर हो गया है। मुझे जाना होगा।"
नीता की आँखों मे आँसू थे। विक्रम ने उसे गले लगा लिया।
"मैं आऊँगा कभी कभी मिलने।"
नीता घर लौट आयी। आज वो फिर से बिखरी बिखरी है। सोफे पर धम्म से बैठ गयी है, उसकी नज़र सामने उसी तस्वीर पर पड़ी।
एक औरत है जो अर्धनग्न अवस्था मे लेटी है। उसने अपने दोनों हाथों से एक लड़के की पीठ को जकड़ रखा है। उसके होंठों पर हँसी थी, और बंद आँखों से दो बूँद बह रही थी। बैकग्राउंड का रंग नीला था, खुले आसमान का रंग, और उसकी ज़ुल्फें हवा में उड़ रही थीं, जो खुले आसमान में मटरगश्ती करते बादलों सी लग रही थी।
उसके पैरों के पास हरे रंग की नक्काशी थी, कोई घास के खुले मैदान सी। उस औरत का वजूद ज़मीन से लेकर आसमान तक था।
नीता को अब तस्वीर समझ आ गयी थी।
उसने धीरे से तस्वीर को सीधा कर दिया, कुछ दिनों से थोड़ी तिरछी हो गयी थी।
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