Tuesday 19 September 2017

दर्द का सौदा

दर्द का सौदा

आज मेरा मन बेचैन है। आँखों की कोर से फिसल कर मन की गंदगी बह रही है। पतझड़ का मौसम है। बाहर भी, घर में भी। कमज़ोर कड़ियाँ टूट के झड़ रही हैं, ठीक आम के पेड़ से पीले पत्तों के जैसे। बरसात के बाद की सीलन अभी गयी नहीं है। इंतज़ार ज़ारी है कि कभी तो मीठी सी धूप मुझे अपना दीदार दे। मग़र आज वो धूप नहीं होगी। और शायद आज के बाद कभी नहीं।

दर्द के सौदागरों ने भी अपनी बिसात बिछा ली है। दर्द लिखेंगे, दर्द बेचेंगे, और लोग दर्द खरीदेंगे, दर्द पढ़ेंगे। उसी दर्द में गोते खायेंगे। उसी दर्द के कसीदे पढ़ेंगे। और दर्द-दर्द चिल्लायेंगे। दर्द बाँटने से घटता है, सुना था। मग़र अब नहीं। होता होगा किसी ज़माने में ऐसा। आज तो दर्द बाँटने से बढ़ा हुआ ही मालूम होता है।

मेरी काशी को ही देखे कोई। जब तक मैं उसे अपना दर्द नहीं बताती तब तक वो भी तो मुस्कुराती रहती है। फ़िर जब मेरी तक़लीफ़ देख लेती है तो वो भी बेज़ार सी हो जाती है। वो भी तो दर्द की सौदागर ही है। कोई लिख कर दर्द बयाँ कर जाता है और वो गा कर, नाच कर अपना दर्द बयाँ करती है। फर्क़ बस इतना है कि किसी शायर की गज़ल से कोई घायल हो या ना हो मग़र मुई काशी के ठुमके से पूरा बनारस घायल हो जाये, ऐसा हुनर है उसके दर्द में।

अक्सर जब काशी, रात के अंधेरे में अकेले रियाज़ करती है तो उसके घुँघरूओं के रोने की आवाज़ सुनाई पड़ती है। कई रोज़ मैंने छिप-छिप कर उसे अपने दर्द को घुँघरुओं में उतारते देखा है। कमबख़्त की आँखें ऐसी मुस्कुराहट बिखेरना जानती हैं कि कोई फर्ज़ भी ना कर पाये कि उन आँखों में सजने पर वो आँसुओं की बूँदें कैसी लगेंगी!

मुझे वो पढ़ा लिखा कर डॉक्टर बनाना चाहती है। मेरी काशी ख़ुद कभी पढ़-लिख ना सकी मगर मुझसे अक्सर कहती है, 'गंगा, तू तो अपनी बड़ी बहन काशी जैसी नहीं ना बनेगी? तुझे तो पढ़ लिख कर ख़ूब बड़ा बनना है। खूब बड़ी डॉक्टरनी बनेगी मेरी छोटी बहना।'

मैं उसे देख के मुस्कुरा देती हूं। मन ही मन कोसती हूँ कभी उसे। खुद दर्द सह कर मुझे मरहम देने का हुनर सिखाना चाहती है।

और आज देखो, कैसे बेसुध सी पड़ी है मेरे सामने! हिला रही हूँ, हिलती तक नहीं है। आलस की पुड़िया है पूरी। अभी जागेगी। नाच नाच कर पैरों से ख़ून निकाल लिया है। पगली है। जानती नहीं क्या कि इसके दर्द से मुझे भी दर्द होता है?

'काशी, उठ ना। उठ ना, काशी।'

कितना उठाऊँ इसे आख़िर। कोई बताये इसे कि अभी उम्र बाकी है बहुत मेरी। अभी डॉक्टर नहीं बनी हूँ मैं। अभी बीमार नहीं पड़ सकती ये। अभी इसका इलाज़ नहीं कर पाऊँगी मैं, और ना ही करवा पाऊँगी।

जियाराम जी कहते हैं कि दिदिया नहीं उठेगी अब। बताते हैं कि किसी के प्रेम में पड़ गयी थी। उसी के प्रेम ने मेरी दिदिया की जान ले ली। इतना नाची, इतना नाची कि ख़ुद की सुध ही खो बैठी। बड़ी-बड़ी डॉक्टरी फ़ेल हो गयी मेरी दिदिया के प्रेम रोग के आगे। तो क्या, उसका प्रेम मेरे प्रेम से बड़ा हो गया? मेरे बारे में भूल ही गयी मेरी काशी।

नहीं, मरे हुओं से कोई शिकायत नहीं करते, मालूम है मुझे। मर गयी है, काशी, मेरी दिदिया। अब नहीं उठेगी। और अपनी जान के बदले छोड़ गई है अपने प्रेम का रोग मेरे हिस्से। ज्यों गंगा बहती है काशी में, वैसे ही अब ये गंगा भी बहेगी अपनी काशी की याद में, सारी उम्र। जब तक साँस रहेगी, तब तक यही सोचूँगी कि बड़ा बुरा हुआ जो ये दर्द का सौदा हुआ।

और अब नहीं बनना है मुझे डॉक्टर। नहीं देना है मरहम किसी को। जो ख़ुद ज़ख्मी है, वो क्या और किसी का इलाज़ करेगा? आख़िर प्रेम जैसे रोग का कोई इलाज़ ही नहीं है जब, तो क्या मतलब ऐसी डॉक्टरी का जो किसी काशी और किसी गंगा का अलग होना भी ना रोक पाये!

Tuesday 12 September 2017

*सपने*

*सपने*

"जी, आप पिछले कुछ दिन से दिखी नहीं। कहीं गई थीं क्या?" पीछे से किसी अजनबी की आवाज़ सुन कर सुधा जी चौंक गईं। मुड़कर देखा तो सफ़ेद पजामे-कुर्ते में एक सज्जन उनके बगल में बेंच पर बैठते हुए दिखे।

"जी नहीं, कहीं गयी नहीं थी। बच्चें छुट्टियाँ बिताने आ गये थे तो उन्हीं के साथ व्यस्त हो गई थी," ख़ुद को थोड़ा और बेंच के दूसरे कोने पर शिफ़्ट करती हुई बोलीं।

"ओह! वैसे आपको हर रोज़ शाम को यहाँ टहलते देखता था, आप नहीं दिखीं इसलिए पूछ बैठा," बात आगे बढ़ाते हुए वो सज्जन बोले।

"जी, कोई बात नहीं। मेरा टहलना हो गया है, अब चलती हूँ," कहते हुए सुधा जी उठ खड़ी हुईं तो वो सज्जन भी साथ हो लिए।

सुधा जी को ये असहज लगा मगर कुछ बोलीं नहीं, अपना चलती रहीं।

कोने से वो मुड़ने ही वाली थीं कि सज्जन बोल पड़े, " मेरा नाम अरुण है, यहीं बाजू वाली सोसाइटी में रहता हूँ, अगर आप के पास थोड़ा वक़्त है तो चलिए ना चाय पी लेते हैं, शाम वाली।"

सुधा जी को अब और अजीब लगा। वो मना करने ही वाली थीं कि अरुण बोल पड़े, "जानता हूँ, बच्चे चले गये तो आप उदास होंगी, थोड़ी देर बातें होंगी तो बेहतर लगेगा।"

ना चाहते हुए भी सुधा जी दुकान के सामने लगी कुर्सी पर बैठ गईं। इधर-उधर की बातें होने लगीं। बातों-बातों में पता चला कि अरुण जी रिटायर्ड बैंक मैनेजर हैं और उनके बच्चे विदेश में रहते हैं। पत्नी तीन साल पहले साथ छोड़ कर जा चुकी है।

जिस साफ़गोई से अरुण जी अपने बारे में हर बात बता रहे थे, सुधा जी को वो अच्छा लग रहा था। सुधा जी ने भी अपने बारे में एकाध बात बतायी, मगर पति के बारे में चुप रहीं। अरुण जी ने भी ज़्यादा नहीं कुरेदा, और चाय ख़त्म कर के दोनों अपने-अपने घर चले गये।

फिर ये साथ में चाय और टहलने का सिलसिला शुरू हो गया। सुधा जी को अरुण जी की हर बात गुदगुदा देती थी। जब बातों-बातों में जो अरुण जी ग़ालिब, फ़ैज़, फ़राज़ की ग़ज़लें और शेर बोलते थे, सुधा जी को वो सबसे ज़्यादा पसंद आता था।

अब सुधा जी भी खुल कर उनसे बातें करने लगी थीं। उनके मन के सूनेपन को अरुण जी की बातें भरने लगी थीं। जीवन भर जिस साथ को वो तरसती रहीं, वो अब जाकर, उम्र के इस पड़ाव पर मिला।

सुधा जी अब ख़ुद का और ख़्याल रखने लगी थीं। पहले तो सिर्फ़ सफ़ेद कुर्ते में टहलने आती थीं, अब किसी दिन गुलाबी तो कभी हल्के हरे रंग के कुर्ते भी नज़र आने लगे थे। बातों-बातों में एक दिन अरुण जी ने अपना पसंदीदा रंग, आसमानी बोल दिया, तो दो आसमानी कुर्ते भी ले आईं बाज़ार से।

उस दिन टहल कर दोनों बैठे ही थे कि अरुण जी ने पूछ लिया, "आप दूसरी शादी के बारे में क्या सोचती हैं?"

सुधा जी सन्नाटे में चली गईं। काफ़ी देर चुप रहीं और फिर बिना चाय पीए घर चली गईं। कई दिनों तक टहलने भी नहीं आयीं। अरुण जी ने कॉल भी किया मगर कोई जवाब नहीं मिला।

अरुण जी ने भी अब पार्क आना छोड़ दिया। महीनों गुज़र गए। बाज़ार, सब्ज़ी मंडी, कहीं भी उन्हें सुधा जी नहीं दिखी। ख़ुद को बहुत कोसा, कितनी हीं गालियाँ दीं, मन ही मन कुढ़ते रहें। "आख़िर पहले कम से कम दोस्त तो थे। रोज़ मुलाक़ात तो होती थी। और ज़्यादा पाने की चाहत में जो था वो भी गँवा दिया।"

एक दिन दोपहर में खाना खा कर सोने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक से डोर-बेल बजी। अभी कौन आया होगा, यही सोचते हुए दरवाज़ा खोला तो देखा कि सुधा जी आसमानी साड़ी में सामने खड़ी थीं।

उनको यूँ सामने पा कर वो अवाक् हो गये। थोड़ी देर बाद होश आया तो सुधा जी को अंदर आने को कहा।

दोनों चुप-चाप काफ़ी देर तक बैठे रहे। फिर अचानक सुधा जी बोल पड़ीं।

"आप मेरे लिए जैसी सोच रखते हैं मैं भी वही सोचती हूँ। आपसे मिलने के बाद मैंने अकेलेपन को जाते देखा है। आपके साथ जितना समय बिताती हूँ, वही वो समय होता है जिसमें मैं ख़ुद के साथ होती हूँ। मगर उस दिन यूँ अचानक आप ने शादी का विषय निकाल दिया तो मुझे कुछ समझ नहीं आया। घर जा कर काफ़ी देर सोचती रही और फिर एक दिन हिम्मत कर के बच्चों को फ़ोन किया और सब बातें बता दीं," इतना कह कर वो फिर चुप हो गईं।

अरुण जी भी चुप-चाप उनके दोबारा बोलने का इंतज़ार करते रहे। काफ़ी देर ख़ामोशी पसरी रही तो वो रसोई में जा कर लाल-चाय बना लाये।

सुधा जी ने चाय की पहली चुस्की ली और बोला, "आप जानते हैं मेरे पति बरसों पहले मेरी छोटी बहन के साथ शादी कर के दिल्ली शिफ़्ट हो गए। मैंने अकेले ही बेटा-बेटी को पढ़ा लिखा कर, इस मुक़ाम पर पहुँचाया है कि आज उन्हें किसी बात की कमी नहीं है। उन्होंने ने मुझे मेहनत करते हुए देखा है, ज़माने से जूझते देखा है। बेटी मेरी बड़ी है, तो उसने कितनी ही रातों मेरे आँसुओं को पोंछा है। मैंने भी अपनी पूरी ज़िंदगी इन बच्चों के लिए निकाल दी जिसका मुझे कोई मलाल भी नहीं है। मगर आज जब मैंने अपनी ख़ुशी, अपनी ज़िंदगी के बारे में पहली बार सोचा तो वो ज़माने के साथ जा खड़े हुए। उन्होंने उस पिता से रिश्ता जोड़ लिया जिसने कभी उनकी कोई क़द्र नहीं की। आप जानते हैं, मेरी बेटी कल मुझे फ़ोन कर के क्या बोली?"

अपनी धुन में बोले जा रही थीं सुधा जी।

"कहती है कि पापा आपको इसलिए छोड़ गए क्यूँकि आप शुरू से ही ऐसी थीं। आपका अफेयर अपने ऑफ़िस के बॉस के साथ था। आपको माँ कहने में शर्म आती है," कहते-कहते वो फफक कर रो पड़ीं।

अरुण जी पहले कुछ देर कुछ सोचते रहे और फिर उठ कर सुधा जी के पास गए और उन्हें गले से लगा लिया। वो जो अकेलेपन और दर्द का सैलाब ना जाने कितने सालों से अंदर भरा था, सुधा जी ने आँखों से बह जाने दिया।

घंटों यूँ ही उनके सीने से लगी रोती रहीं और अपने अधूरे ख़्वाब, वो सारे अरमान जिन्हें सोच कर वो अपने पति के घर आयी थीं, बताती चली गयीं।

अरुण जी जैसे किसी छोटे बच्चे की तरह सारी बातें गौर से सुनते रहे। दोपहर से शाम कब हो गई, पता ही नहीं चला।

फिर देर रात दोनों  साथ में टहलने निकले तो रास्ते में आइसक्रीम के ठेले को जाते देख कर अरुण जी रुक गए और दो आइसक्रीम ले आए। रोड के साइड में लगी बेंच पर दोनों बैठ कर आइसक्रीम खाने लगे।

आइसक्रीम ख़त्म कर के दोनों पार्क के अंदर चले गये। रात की रानी की ख़ुशबू पूरे पार्क को महकाए हुए थी। आसमान में पूरा चाँद निकल आया था। देर तक दोनों चलते रहें खामोशी से।

फिर अचानक गेंदे के एक छोटे से फूल को अरुण जी ने तोड़ कर सुधा जी के बालों में खोंस दिया। सुधा जी अवाक् देखती रह गईं।

अरुण जी हमेशा की तरह पूरी ज़िंदादिली और अपने शायराने अन्दाज़ में बोल उठे, "दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है, लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है।"

और अब सुधा जी ने आगे बढ़कर अरुण जी का हाथ थाम लिया और उनके कदम से कदम मिलाती हुई एक नई मंज़िल की तरफ़ बढ़ने लगीं।

Monday 11 September 2017

तुम्हारी लाचार उँगलियाँ

तुम्हारी लाचार उँगलियाँ

कल रात मुझे छूती रहीं तुम्हारी उँगलियाँ,
मेरे जिस्म के कतरे-कतरे पर चलती रहीं वो।
मेरे माथे से होते हुए, मेरी पलकों को चूमतीं,
मेरे होठों पर ठहरतीं फिर धीरे से गर्दन पर उतरतीं,
मेरे पेट पर घेरे बनाकर अठखेलियाँ करतीं, तुम्हारी चंचल उँगलियाँ।
रात भर रेंगतीं रहीं मेरे जिस्म पर तुम्हारी सर्पीली उँगलियाँ।

सुबह उठकर देखा तो तुम बिस्तर के एक कोने पर, बाहें फैलाए, निढाल पड़े थे
और खिड़की से झाँकती रोशनी में नहाई तुम्हारी उँगलियाँ, मेरे जिस्म के रंगों में रंगी तुम्हारी उँगलियाँ, पलकें झुकाकर कनखियों से मुझे निहार रही थीं।

पर तुम्हारी ये रंगीन उँगलियाँ मुझे आज फिर निराश कर गईं।
देखो ना, आज फिर इन पर कल रात का हर रंग लगा है, मेरी आँखों का काला, मेरे होठों का गुलाबी, मेरे हाथों का हरा, मेरे चेहरे का गेहुआँ, और भी मेरे जिस्म के कितने तो रंग लगे हैं इन पर।
पर तुम्हारे पोरवों पर मेरी रूह का एक भी रंग नहीं है।

मैं ठहाके मार कर हँस दी तुम्हारी उंगलियों की लाचारी पर,
पूरी रात रेंगते रहने पर भी मेरी रूह का एक भी टुकड़ा हाथ नहीं लगा ना?

Sunday 10 September 2017

**सुनो ना!**

''सुनो ना! मुझे भूख लगी है, चलो कुछ खाने चलते हैं,'' उसने मेरी तरफ पलट कर बोला। मैं हमेशा की तरह उसके साथ वाली कुर्सी पर बैठा था।

''अभी अभी तो आया हूँ, कुछ देर रुको फिर चलते हैं,'' मैंने अपने फोन की तरफ देखते हुए कहा।

''चलो ना। फिर वापस आकर मुझे काम करना है बहुत सारा। आज मैनेजर ने फाइनल रिपोर्ट मांगी है।''

फोन से नज़र हटाकर मैंने उसकी तरफ देखा तो चश्मे के पीछे से झांकती हुई बड़ी बड़ी आंखें मुझे घूर रही थीं। उनमे गुस्सा था, मुझपर या मैनेजर पर, वो नहीं मालूम। भलाई इसी में मालूम हुई कि बेटा उठ लो अभी के अभी। फिर क्या था, कुछ ही पलों में हम फूड कोर्ट के अंदर खड़े थे।

''हाँ जी! तो क्या फरमाइश है मोहतरमा की आज?'' मेन्यू को देखते हुए मैंने पूछा।

''मैं तो वही लूंगी रोज़ की तरह- दही पापड़ी। तुम्हें कुछ नया चाहिए तो देख लो, इतना सब है यहाँ। सुनो ना! तुम यहाँ से कुछ लो, मैं चाय लेकर आती हूँ। तुम्हें क्या चाहिए?'' दूसरे काउंटर की ओर जाते हुए उसने पूछा।

''कॉफ़ी। बिना चीनी के।'' मेन्यू को एक बार फिर ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला मैंने।

5 मिनट बाद दोनों हाथों में एक एक कप पकड़े वो जल्दी जल्दी चली आ रही थी।

''हाय रे! कितनी गर्म है,'' कप को मेज़ पर रखते हुए वो बोली।

''कितनी बार कहा है कागज़ के कप में रख के लाया करो। रोज़ अपना हाथ जलाती हो,'' भौहें सिकोड़ के मैंने कहा।

''अरे बाबा, क्यों कप बर्बाद करना जब काम ऐसे ही चल जाता है,'' बोलकर मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी।

''सुनो ना, तुम इतनी कड़वी कॉफी कैसे पीते हो? वो भी बिना चीनी के?'' अपनी चाय में चीनी मिलाते हुए वो बोली।

''हा हा! तुम मीठे शरबत जैसी चाय पीने वाले लोग क्या जानो कॉफ़ी का स्वाद?'' अपने कप से एक घूँट लेने के बाद मैं बोला और वापस फोन में कुछ देखने लगा।

अचानक ही ऊँगली में कुछ जलन सी महसूस हुई और मैं ख़्यालों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में प्रवेश कर गया। बीती बातें सोचते सोचते अनायास ही मेरा हाथ कॉफ़ी के गर्म ग्लास पर लग गया था। 3 महीने हो गए हैं उस बात को और आज तुम दूसरे शहर में हो, मुझसे दूर, मेरी पहुँच से बाहर। वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में- आउट ऑफ़ रीच।

जब तुम सामने थी तब मैं आधा वक़्त फोन पर ज़ाया कर देता था और आज जब मैं अकेला हूँ तब तुमसे कहना चाहता हूँ कि...

सुनो ना, मैं पूरा पूरा दिन इंतज़ार करता था शाम आने का, कि तब हम मिलेंगे, बैठेंगे, बातें करेंगे।

सुनो ना, गर्म ग्लास से तुम्हारे चेहरे पर जो शिकन आती थी, वो मझे किसी घाव से कम दर्द नहीं देती थी।

सुनो ना, तुम पूछा करती थी कि कड़वी कॉफ़ी कैसे पीता हूँ? तुम्हारे बाद ज़िंदगी की मिठास कम हो जाएगी ये मालूम था मुझे, और ये भी कि तब सिर्फ ये कॉफ़ी ही मेरे अंदर की कड़वाहट को समझ पाएगी। और मैं आज भी इसी के घूँट में कहीं अपनी मिठास खोज रहा हूँ।

सुनो ना, सिर्फ एक ही शख्स गया है और कुर्सियां दो वीरान हुई हैं- एक मेरे सामने, एक तुम्हारे सामने, शायद।

सुनो ना, मुझे शुरुआत से ही मालूम था कि तुम्हारे इरादे और मंज़िल अलग हैं, लेकिन मैं किसी तरीके से उनमें शामिल होने की कोशिश करता रहा, हमेशा।

तुम हमेशा से बोलने वालों में से थी और मैं सुनने वालों में, लेकिन आज मैं बहुत कुछ कह रहा हूँ और तुमसे सिर्फ यही गुज़ारिश है कि ''सुनो ना...''

Saturday 9 September 2017

बस मुझे गम है इतना सा

बस मुझे गम है इतना सा

बस मुझे गम है इतना सा,
की तू मेरी उम्र न बढ़ा सका,
मेरी किस्मत में लिखा था...
फिर मेरी किस्मत की लकीरों पे रोना,
बस मुझे गम है इतना सा,
तू मेरी बदकिस्मत लकीरे न मिटा सका...

मैंने जीना चाहा उम्मीद में,
की तू मेरी उम्मीद न बढ़ा सका,
तेरी सब बातों में कुछ छुपा था,
तू बस उसे अपनी आँखों में न छुपा सका..
बस मुझे गम है इतना सा,
तू छुपता रहा मुझसे, पर किसी को न छुपा सका..

मैंने चाहा की भूल जाऊ सब,
की तू किसी को न भुला सका,
मेरे सीने पर ज़ख़्म ही लिखे थे...
तू हर रोज मुस्कुराकर ज़ख़्म देता चला गया,
बस मुझे गम है इतना सा,
तूने मुझे पाया भी नहीं और तू खोता चला गया...

बस मुझे गम है इतना सा,
की तू मेरी उम्र न बढ़ा सका,...

रूह

एक बार रूह आईने के सामने बैठी और रो पड़ी,
रोते रोते अपने जिस्म से सवाल करने लगी और कहने लगी..... 

तेरी नज़रों से गिरी तो कंहाँ जाउंगी ?
टूटे फूल की पत्तियों से बिखर जाउंगी।

तनहा अश्क बहते रहेंगे तमाम उम्र,
मैं खुद में सिमट कर क्या पाऊँगी।

बस भर्म रहने देता रिश्तों का मुझमे,
अब भर्म टूट गया अब में किसे अपनाउंगी।

ठोकर ऐसी लगी दिल को आवाज़ न हुई,
सोच रही हूँ अब इस दर्द के साथ ही जाउंगी।

ऐसा तोडा है तूने मुझको तिनके तिनके हूँ,
आँखों के आंसू अब किसी को दिखा न पाऊँगी।

तू कभी समझ न सकेगी दलील मेरे दिल की,
मुजरिम है तू मेरा, बनी लकीर मेरे दिल की।
   
तेरी नज़रों से गिरी तो कंहाँ जाउंगी ?
टूटे फूल की पत्तियों से बिखर जाउंगी।

Tuesday 5 September 2017

कभी तो प्यार पनपता होगा

कभी तो प्यार पनपता होगा,
तुम्हारे दिल के किसी कोने में,
जब तुम भी तन्हाई में रोते होंगे,
लेकर पल्लू को घर के कोनें में,

कभी तो तबीयत ख़राब होती होगी,
आँखें मूंदकर रातभर सोने में,
उस सुबह इंतज़ार तो रहता होगा,
वो दिख जाये किसी गली कोने में,

कभी तो प्यार पनपता होगा,
तुम्हारे दिल के किसी कोने में,

कभी तो सोचा होगा मुड़कर देखु,
क्यों धड़क रहा है आज दिल सीने में,
मेरा जिया क्यों नहीं मुस्काता है अब,
दुनिया भर के खेल खिलोनो में,

कभी तो प्यार पनपता होगा,
तुम्हारे दिल के किसी कोने में,

कभी तो बातें हसाती भी होगी मेरी,
जब होती होगी नमी, आँखों के कोनो में,
दिन तो तुम्हारा भी निकल जाता होगा,
पन्नो को उथल पुथल कर, रख किताब कोने में,

कभी तो प्यार पनपता होगा,
तुम्हारे दिल के किसी कोने में,

उल्फत

मिली है जो उल्फत नज़रों में तुमसे,
इस तरह खो जाएगी, की वापस न आएगी,
मोहब्बत ऐसी हो जाएगी,
की फिर नज़र न मिलाएगी,
जो ये होता थोड़ा भी अहसास,
तनहा उल्फत न करते।  

मिली है जो उल्फत नज़रों में तुमसे,
इस तरह ज़िंदगी ख्याल हो जायेगी, की गुबार न जाएगी,
ग़श में हर शाम जाएगी,
की गमदीदा ग़ज़ल बन जाएगी,
तुझ को न बनाया होता जो खास,
तनहा उल्फत न करते।          

मिली है जो उल्फत नज़रों में तुमसे,
इस गैहान में रूह खो आएगी, की चैन न पायेगी,
चिराग के चश्म न बनाते,
चेहरों पर जज्ब जो दिख जाते,
मांगते खुदी से मोहलत,
पर तनहा उल्फत न करते। 

Saturday 2 September 2017

वो तितलियों सा

वो तितलियों सा सुबह को,
गुलों की तलाश में,
नगर नगर भटक गया,
शजर शजर में खो गया।

वो गुबार सा था शाम में,
रात तक ठहर गया,
बंदिशों की आग में,
मोम सा पिघल गया।

उसूलों के ख़ुमार में,
जब चट्टानों से टकरा गया,
ज़र्रा ज़र्रा बिखर गया,
धुआं धुआं सा रह गया।

जो खून सा जब उबल गया,
सैलाब बन के उमड़ गया,
बस्तियां वीरां वो कर गया,
हैरान शहर सा रह गया।

बुज़दिलों के रेलों में,
जाहिलों के मज़्मों में,
वो कुसूरवार सा बन गया,
सहम सहम के रह गया।

रुख्सती के लम्हों में,
वो पूछता है 'ज़ैद' मुझे,
क्या सूरत अब बदल गयी,
क्या गुलिस्तां संवर गया?

Friday 1 September 2017

गुलाबी पेंसिल पार्ट -3

आज मुझे "वो" इत्तेफाक से वाटर पॉइंट के पास नज़र आ गई। उसके जूडे में आज एक के बजाय दो पेंसिले थीं। या तो घनी ज़ुल्फ़ों को सँभालने के लिए शायद एक पेंसिल कम पड़ रही थी, या ये इशारा था इस बात का, कि अब तन्हाइयो के सागर से मोहब्बत के जज़ीरे पर आने का वक़्त हो चला है। मुझे देखते ही बत्तीसी दिखाते हुए बोली, "तुम मेरा पीछा तो नही कर रहे मिस्टर? सुनो मेरा बॉयफ्रेंड इसी ऑफिस मे है, तुम्हारी हड्डियों का सुरमा बना कर आँखों में लगा लेगा।"

"हाँ जी! मुझे और काम ही क्या है, आपका पीछा करने की तो सैलरी उठाता हूँ मैं," मैंने जलकर जवाब दिया। ईव टीज़िंग या स्टॉकिंग की बात कोई मज़ाक में भी कहे तो भी मुझे पसंद नहीं था, चाहे फिर "वो" ही क्यों ना हो।

मेरा जवाब सुनकर वो मुँह बनाकर बोली, "कैसे जल कुक्कड़ से हो तुम, नो वंडर तुम्हे कोई बंदी नहीं मिली आजतक।"

"एक्सक्यूज़ मी मिस! अपनी सहेलियों को देखो कितना एडमायर करती हैं मुझे, माना मैकेनिकल से हूँ, पर अपने बंदी वाले डिपार्टमेंट में कभी नाकाबंदी नहीं रहीे," मैंने बड़े जोश से जवाब दिया।

इस बार वो टॉपिक चेंज करते हुए बोली, "अच्छा! आज सुबह कुछ ज़रूरी बात करने को कह रहे थे तुम?"

"अच्छा वो?" मैं पहले मुस्कुराया, फिर थोड़ा ठहर कर बोला, "मैं सोच रहा था...ऑफिस में कब तक ऐसे टुकड़ो में मिलते रहेंगे। चलो कहीं बाहर चलते है, कल वीकेंड भी है और दस्तूर भी ,साथ में डिनर करते है। आई वांट टु टेक यू टू एन अमेजिंग प्लेस, जहाँ की वाइब और फ़ूड दोनों हमारी पसंद के हिसाब से हैं।" हम दोनों ही फूडी थे और उसे भी मेरी तरह भीड़-भाड़ पसंद नहीं थी।

उसकी आँखों मे जैसे आसमान से तारे उतर आए, हल्की सी हैरानी भरी मुस्कान से पूछने लगी, "आर यू ऑफिशली आस्किंग में आउट मिस्टर साहिल?"

"आई गेस आई एम, मिस शिखा!" मुझ जैसे घाघ लड़के को भी शर्म सी आ गई ये कहते हुए।

मेरे चेहरे पर आये हया के रंग शायद उसने नोटिस कर लिए थे, तो मुझे चिढ़ाने के अंदाज़ में बोली, "मेरे तो बहुत चाहने वाले हैं, आपको इक़रार और बाकियों को इनकार करने की कोई माक़ूल वजह दीजिये मुझे।"

मैंने उसकी झील सी आँखों में झांककर जवाब दिया, "उनमें और मुझमें, बस इतना सा फ़र्क़ है कि वो आपकी खूबसूरत आँखों में खो जाना चाहते है और मैं आपकी इन आँखों में खुद को ढूँढना चाहता हूँ।" उसने कुछ जवाब ना दिया, बस खामोशी से एकटक मुझे देखती रही।

"कल शाम 8 बजे तैयार रहना और वो रेड ड्रेस पहन कर आना जो तुमने न्यू ईयर की पार्टी में पहनी थी," ये कहते हुए मैं वहाँ से चल दिया।

कल होने वाली मुलाक़ात की खुशी मुझे अभी से गूसबम्पस दे रही थी।