Monday 11 September 2017

तुम्हारी लाचार उँगलियाँ

तुम्हारी लाचार उँगलियाँ

कल रात मुझे छूती रहीं तुम्हारी उँगलियाँ,
मेरे जिस्म के कतरे-कतरे पर चलती रहीं वो।
मेरे माथे से होते हुए, मेरी पलकों को चूमतीं,
मेरे होठों पर ठहरतीं फिर धीरे से गर्दन पर उतरतीं,
मेरे पेट पर घेरे बनाकर अठखेलियाँ करतीं, तुम्हारी चंचल उँगलियाँ।
रात भर रेंगतीं रहीं मेरे जिस्म पर तुम्हारी सर्पीली उँगलियाँ।

सुबह उठकर देखा तो तुम बिस्तर के एक कोने पर, बाहें फैलाए, निढाल पड़े थे
और खिड़की से झाँकती रोशनी में नहाई तुम्हारी उँगलियाँ, मेरे जिस्म के रंगों में रंगी तुम्हारी उँगलियाँ, पलकें झुकाकर कनखियों से मुझे निहार रही थीं।

पर तुम्हारी ये रंगीन उँगलियाँ मुझे आज फिर निराश कर गईं।
देखो ना, आज फिर इन पर कल रात का हर रंग लगा है, मेरी आँखों का काला, मेरे होठों का गुलाबी, मेरे हाथों का हरा, मेरे चेहरे का गेहुआँ, और भी मेरे जिस्म के कितने तो रंग लगे हैं इन पर।
पर तुम्हारे पोरवों पर मेरी रूह का एक भी रंग नहीं है।

मैं ठहाके मार कर हँस दी तुम्हारी उंगलियों की लाचारी पर,
पूरी रात रेंगते रहने पर भी मेरी रूह का एक भी टुकड़ा हाथ नहीं लगा ना?

No comments:

Post a Comment