Thursday 31 August 2017

*दि एलुमनाई मीट*

*दि एलुमनाई मीट*
“बात सन ‘64, उस वक्त की है जब ये स्वतंत्रता भवन नहीं था। सिरेमिक डिपार्टमेंट, डिपार्टमेंट ऑफ़ सिलिकेट टेक्नोलॉजी हुआ करता था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश श्री एन एच भगवती विश्विद्यालय के वीसी थे। मेरा दाखिला उस वक्त के बनारस कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (BENCO) में हुआ। उस वक्त आई.एम.एस (IMS) और बेंको (BENCO) की रैगिंग बड़ी मशहूर थी। लंका से मोरवी तक बिना कपड़ों के ही परेड हो जाती थी। कई बार तो हम डर के मारे स्टेशन भाग जाते थे; कोई कहीं रात गुज़रता था तो कोई कहीं।”

उन्होंने पानी का कुल्हड़ कांपते हाथों से पकड़कर अपने होंठों से लगाया। एक अजीब सी सुकून भरी मुस्कान थी उनके चेहरे पर, एक मुस्कुराहट जिसे शायद जीवन का अंतिम लक्ष्य कहा जाता हो। हमारे संस्थान में पुराछात्र सम्मलेन था, अर्थात् एलुमनाई मीट। 1967 की बैच के हमारे एक एलुमनाई थे। हमारा नुक्कड़ नाटक देखने के बाद मेरे पास आये और बोले, “बहुत अच्छा किया बेटा। खूब मेहनत करो। आगे बढ़ो और खुश रहो।”

मैंने आवाज में कंपकंपाहट महसूस की थी लेकिन आशीर्वाद अटल था।

ज़्यादा सिगरेट पीने से उनके होंठ काले पड़ गये थे, उन्होंने पानी पीकर कुल्हड़ फेंका, क्रीम कलर के रूमाल से अपने होंठो को पोंछा और फिर वही रूहानी हँसी हँसते हुए बोले, “हमारे जाते-जाते ये सब कॉलेज मिलकर आईटी-बीएचयू बन गये। अब ना बेंको रहा न मिन्मेट और ना टेक्नो। हमारे ज़माने में सब अलग था। तुम लोगों के वक्त तो लिम्बडी कार्नर हो गया। हम रात के 2 बजे लंका पर सिर्फ चाय पीने जाया करते थे। एक लड़का था साकेत भवस्कर, मेरा सबसे अच्छा दोस्त था, हम उसे साकेत बाबू बुलाते थे। पिछले साल ही एक्सपायर हो गये साकेत बाबू। बड़ा ज़िंदादिल इंसान था। अभी कितने ही दोस्त आ नहीं पाए, सबकी उम्र हो गयी, कुछ फॅमिली में बिजी हो गये।”

वे कहना चाहते थे कि अब उनका कोई दोस्त नहीं है। उनकी हँसी रो रोकर उनका अकेलापन दिखा रही थी।

“... हम दस लोगों का ग्रुप था। अभी मैं अकेला आया। ये वक्त भी ना कितना जल्दी बदलता है। पचास साल हो गये। आप हमारी मिसेज हैं,” उन्होंने अपने बगल में बैठी अपनी पत्नी की और इशारा किया।

मैंने बढ़ कर चरण स्पर्श किये तो बोलीं, “बेटा इनका तो हर रोज का है। जबसे रिटायर हुए हैं तबसे हर रोज बीएचयू की बातें।”

“आपने भी यहीं से इकोनॉमिक्स से एमए किया है। आप रिटायर्ड आईईएस अधिकारी हैं।” उन्होंने बड़ी ही शालीनता और औपचारिक तरीके से अपनी पत्नी जी का परिचय करवाया, और अपनी बात जारी रखते हुए बोले, “... इन्हें तो कभी नहीं भाते बीएचयू के किस्से। पता नहीं कैसी चिढ़ है।”

वो उन्हें कुछ छेड़ना चाहते थे।

“होगी नहीं? किस्मत तो यहीं से फूटना शुरू हुई थी,” वो मुँह फेरते हुए बोलीं।

“हमसे जो पहली बार यहीं मिलीं थीं ना, तभी...” उनके झुर्रीदार चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी।

मैं एक औपचारिक हँसी हँसा। उन्होंने अपनी बात जारी रखी, “अब तो बेटे-बेटी सेटल हो गये। हम और हमारी मिसेज अकेले रहते हैं मुंबई में। अब हमारे पास सुनाने को है ही क्या? बस कुछ किस्से हमारे लड़कपन के। आज पूरे पचास साल बाद भी ये सब अपना सा लगता है। वो रात में बिजली जाने पर पूरे हॉस्टल में चिल्लाना। एम एम वी के चक्कर लगाना...”

यूँ तो चश्मे के पीछे आँसू दिखते नहीं मगर उनकी आवाज में एक भीगापन महसूस कर लिया था मैंने।

“उस दौर में आप हर लम्हे, हर चेहरे को सेल्फियों में कैद नहीं कर सकते थे। बमुश्किल हमारे ग्रुप की एक ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीर है मेरे पास। इसलिए दिल के कैमरे में कैद कर लिया है कितनी ही बातों को। कितनी जवां कहानियाँ, बिरला से ब्रोचा, लंका से गदौलिया, एम एम वी से मधुबन के बीच गुम हो गयीं। आज भी जब मैं आ रहा था तो दोपहर की तेज़ धूप में गाड़ियों के शोर के बीच कहीं बूढ़े कानों को एक नयी आवाज सुनाई दी ‘एक लड़की भीगी भागी सी...’ रात करीब 3 बजे यही गाना गाते-गाते हम सब आ रहे थे लंका से मोरवी...”

मैंने उन्हें बीच में रोका, “माफ़ कीजियेगा सर! ढाई बजे से क्लास है। आपसे मिलकर अच्छा लगा।”

उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया आगे, मैंने कुछ सकुचाते हुए उनसे हाथ मिलाया। अपने गर्म हाथों में उनके उम्र की ठंडक और यादों की नमी महसूस कर सकता था मैं।

मैं स्वतंत्रता भवन से वर्कशॉप की तरफ जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा रहा था। मैं क्लास भी गया था, रूम पर भी आया और शाम के 6 भी बज चुके थे मगर मुझे कुछ पता ही नहीं चला। कुछ चल रहा था मेरे अंदर। एक मन कह रहा था कि ये फालतू की बातें हैं और दूसरा कह रहा था कि यही तो सच है।

“8 महीने हो गये हैं। आते ही कितनी गालियाँ दी थीं इस कॉलेज को, इस हवा में आते ही एक गुस्से से भर गया था। कितना पागलपन किया था। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो याद आता है कि स्कूल में भी तो यही था। किसे अच्छा लगता था हर रोज़ होमवर्क करके कॉपी चेक कराना। जब देखो तब डिसिप्लिन-डिसिप्लिन का लेक्चर सुनना। कितनी नफरत थी उस सेंट ज़ेवियर्स से। मगर आज जब इस कॉलेज आया तो ऐसा लगा कि नहीं स्कूल सबसे अच्छा था, कितने दोस्त थे, सब अपने जैसे थे। इस कॉलेज में हज़ारों की भीड़ में अपने जैसे दोस्तों को ढूँढना मुश्किल है। और अपूर्वा, मेरा सीक्रेट क्रश, यहाँ तो कोई था ही नहीं। आज जब उन दिनों को याद करता हूँ तो लगता है कि जब हमारे पास जो चीज़ होती है तब हमें उसकी कद्र नहीं होती।

लेकिन अब मैं थोड़ा सा समझदार हो रहा हूँ। वक्त के साथ खुद को ढालना सीख लिया है। अब एल टी 3 वाली सड़क पर गोबर परेशान नहीं करता। डिपार्टमेंट के बूढ़े हो चुके पंखों में गर्मी नहीं लगती। गलत साइड में आ रहे ऑटो वाले के लिये मुँह से कुछ गलत नहीं निकलता। ई डी की क्लासेज भी झेल लीं। पान खाते हुए प्रोफेसर्स की अंग्रेजी में गलतियाँ निकालना बंद कर दिया। कॉलेज की अंदरूनी राजनीति को भारत देश की राजनीति समझ कर माफ़ कर दिया। लैन की कमी को जिओ से भर लिया। पनीर आलू की सब्जी खा लेता हूँ। एल सी पर हर रोज चाय पीना आदत बन गया है, या यूँ कहूँ कि नफरत अब प्यार में बदल गयी है।

प्यार हो गया है इस जगह से इस कॉलेज से। अब किसी शायर की तरह इसे महबूब मानकर इसकी झूठी सही पर तारीफ मैं दिल से करता हूँ। और दिल को थोड़ा समझा बुझाकर बोला यार एडजस्ट कर ना। तो अब दिल ने भी जो है उसके साथ एडजस्ट करना सीख लिया है, इसलिए एक क्रश भी है। और आखिर में अब मुझे एक नया शब्द खोजना होगा ये रात के 2 बजे होने वाले नाश्ते को अंग्रेजी में क्या बोलेंगे भाई? ये भी यहीं आकर करने लगा हूँ ना।”

“अब मैं यादें सहेज रहा हूँ कि शायद कभी किसी एलुमनाई मीट में आज से पचास-पचपन साल बाद मेंरे पास भी कहानियाँ हों सुनाने के लिये। कोई किस्सा सुना सकूँ इसलिए कितने किस्से शुरू किये हैं मैंने, बेवजह ही...”

मेरी आँखों की कमी


मेरी आँखों की कमी, दिल की रूमानी जमी,
कंहाँ हो..
मेरी गीली पलकों, होठों की छुप्पी दबी हंसी,

आज भी ज़िंदा मुझमे, तेरे साथ का अहसास,
तेरी कमी..
पूरी नहीं होती, कितनी नापु ख्वाबों की जमी,

दिन ख़फ़ा हुए, खफ़ा नहीं हुई, यादों की जमी,
आती रही..
भूली बिसरी यादें, छूकर जाती रही. तेरी कमी,

मेरी मौसम में नमी, ऐ मेरी बारिश, मेरी कमी,
कंहाँ हो..
मेरे चेहरे की अदा, क़दमों की आहट, मेरी जमी,

तन्हाई

बिस्तर की सिलवटों पर नींद बेचैन पड़ी है,
कभी तो हाथों से हटाता हूँ सिलवटें,
कभी पल्कें मूंद खुदको जगाता हूँ,
सुबह देखा जो सलवटे, निंदो से चेहरे पे पड़ी है,
उढ़कर ठन्डे पानी से चेहरा धो डाला,
था जो बनावटी चेहरा मेरा अब तक,
सजाया सवारा मुस्कुराकर लकीरों को खो डाला।
बाहर निकला देखा तेज बरसात है आज, 
थोड़ा सा भीगा थोड़ा सा सूखा रह गया,
गीले सूखे मौसम में अपनी तन्हाई को खो डाला।

Wednesday 30 August 2017

*उर्मिला की अग्निपरीक्षा*

वो थी तो शांत लेकिन चंचलता का समूचा सागर उसके अन्दर किसी बांध में फंसा पड़ा था। हिलोरे आतीं, पानी अपना खारापन निकाल कर बाहर फेंक देना चाहता था। हाथ जोड़ कर सूरज से विनती होती कि इस खारे जल को पी जाये ताकि मन की शांति का कुछ रास्ता मिले, लेकिन नहीं, शायद उसकी स्थिति पर किसी तरह कि दया कोई भी नहीं करना चाहता था।

अरे कर भी कौन सकता था! वो वस्तु जो खुद उसके अधीन है दूसरा कोई कैसे उसे दे सकता था। उसे भी पता था कि एक विधवा के लिए जीवन का एकमेव लक्ष्य होता है, मृत्यु की प्रतीक्षा करना, बिना किसी इच्छा-आकांक्षा के।

सब पता था उसे लेकिन उसके मन को नहीं, ना उसके शरीर को। मन था कि मानो हवा में उड़ना चाहता था, उन जीवों के पास जाना चाहता था जो समुद्र की गहराइयों में घूम रहे हैं। उसका मन दुःख और नीरसता के उस जाल को गिलहरी की तरह कुतर देना चाहता था और इससे भी कहीं ज्यादा तीव्र थीं उसकी 'शारीरिक आवश्यकताएं।'

इस बार के सावन महीने ने तो उसके शरीर को पूरी तरह अपने वश में कर लिया था। तीसों दिन उसकी हालत किसी जल-बिना-मछली की तरह रही। एक तड़प के साथ सुबह उठती, अगर रात में सो पाती तो, और उससे हज़ार गुना तड़प के साथ रात को फिर बिस्तर पर लेट जाती। बिस्तर भी उसे डराता था, वो सुकून नहीं बल्कि पीड़ा देता। कितनी ही बार तो वो जमीन पर लेटने के लिए मजबूर हो गयी तब जाकर उसे नींद का एक हिस्सा नसीब हुआ।

काश कोई जीवित निशानी रमेश ने उसके पास छोड़ दी होती तो उसी की मुस्कान के साथ वो पूरा जीवन बिता लेती, लेकिन शादी के 3 महीने शायद इसके लिए पर्याप्त नहीं हुए थे। सास घर में थी नहीं, देवर और ससुर के लिए खाना बनाना, घर की सफाई करना, मोहल्ले की आने जाने वाली औरतों के संग बैठ कर बेमन से उनकी बातें सुनना, और गैर मर्दों की नज़रों से खुद को बचाना, बस यही कुछ काम उसकी रोजाना की ज़िन्दगी का हिस्सा थे।

भाभी और देवर का नाता भी अजीब ही होता है, भरी दुनिया के सामने उंनका आपस में छेड़ छाड़ करना समाज को मंज़ूर है, सब उसे हँसते हँसते क़ुबूल कर लेते हैं, लेकिन इसी रिश्ते को बदनामी का कीचड़ सबसे आसानी से छूता है। और ये कहानी भी कोई उस युग की नहीं जब लोग 14 वर्ष तक लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को उनसे दूर रहने पर भी उन्हें पवित्र ही मानें, क्योंकि वो घर में थीं। आज तो दौर वो है जब अग्निपरीक्षा की चिता उर्मिला के लिए भी तैयार की जाती है।

आज औरत को नोंच डालने के लिए खोजती प्यासी आँखें उसके घर तक पहुच चुकी हैं।

खोखले रिश्ते बस इस काम आने लगे हैं कि उनका सहारा लेकर किसी भी तरह औरत के जिस्म तक पहुंचा जा सके। रामू पढ़ने लिखने में होशियार भले ही नहीं था लेकिन उसके नैतिक मूल्यों में भी कोई कमी नहीं थी। उम्र 20 साल लेकिन भोलापन 5 साल के बच्चे वाला। उसे पता भी नहीं था कि भाभी के साथ छत पर हँसते हुए बातें करते देखकर पड़ोस वाली विमला ताई क्या मतलब निकालेंगी। उसे क्या पता कि भाभी की साड़ी का आँचल पकड़े हुए देखते ही सरपंच चाचा क्यों मुंह बनाकर घर के सामने से जल्दी में निकल गए। भाभी को अपने हाथ से खाना खिलाना उसके लिए बदनामी पैदा कर देगा। और बाज़ार से आते हुए चूड़ियों का एक डिब्बा ले लेना भाभी की सफ़ेद साड़ी पर एक काला धब्बा लगा देगा।

अफवाहें उड़ने की प्रक्रिया से कौन वाकिफ नहीं। लगभग हर तरह की खुसुर-फुसुर कुछ इस तरह बनती है कि - छोटी सी बात ली, थोड़ा सा अपना दिमाग लगाया, कुछ घिन वाले भाव चेहरे पर लाते हुए मोहल्ले के नारद को ये कहते हुए किस्सा बता दिया कि, ‘छोड़ो, हमसे क्या, देखो कहना ना किसी से, बदनामी हो जाएगी।’

उसने भी बोला कि ‘अरे हमें क्या पड़ी है किसी को बोलने की, जानते ही हो आप तो हमको।’

और बस, अवफाह फ़ैल गयी समझो। यूं ही दो चार किस्से उस विधवा के भी तैयार किये गए। गाँव के खाली बैठे बुज़ुर्गों को समय काटने का एक साधन मिल गया, महिलाओं को गेंहू-चावल साफ़ करते हुए बातें करने की सामग्री और मनचलों को उस घर के चक्कर काटने का कारण।

कुछ दिनों बाद घर की बेटी यानी रामू और रमेश की बहन फुल्लो ससुराल से घर आई। एक तो वो स्त्री और उपर से मायके में आई थी, तो गाँव की किसी भी खबर का उससे बच कर निकल जाना असंभव था।

भाभी और देवर के बारे में उड़ती बातें भी उसने सुनी तो पिता को साथ बिठा कर सारा किस्सा समझाया। रास्ता ये निकाला गया कि उन दोनों की शादी कर दी जाए, जो कि जल्द ही कर भी दी गयी।

पति का सहारा मिलना उस विधवा के लिए ख़ुशी की बात थी लेकिन किस मुंह के साथ वो अपनी बाकी इच्छाएं रामू को बता पाती। कैसे कहती कि कल तक जो हाथ मेरे पैर छूते थे आज उन्ही हाथों से मेरे शरीर को भी छुओ.

बहुत दिनों तक ये संघर्ष, ये अग्निपरीक्षा चलती रही।

करवटें, ठण्डे पानी के घूंट, सख्त बिस्तर, पूरे ढंके कपड़े, यही सब थे जिनके हवाले वो अपनी सारी रात कर देती थी लेकिन रातों के संघर्ष दिन की लड़ाइयों से कहीं ज़्यादा कठिन होते हैं। और उसकी ज़िन्दगी में इन रातों का कोई अंत नहीं था। वो किसी आदर्श कहानी का पात्र होती तो ये कहा जा सकता था कि उसने सारी उम्र बिना किसी शिकायत के यूं ही देह की आग में जलते हुए काट दी लेकिन उसनें बिना किसी अपराध के चल रही इस अग्निपरीक्षा को ख़त्म कर देना ही उचित समझा।

एक रात उसने खुद रामू का हाथ पकड़ कर उससे अपने मन की सारी इच्छाएं साफ साफ कह दीं और खुद को उसके हवाले कर दिया।

अब फर्क नहीं पड़ता कि उसकी कहानी पढ़ने वाले उसे किस रूप में देखें लेकिन निरपराध होते हुए अगर उस ‘सीता’ ने अपनी मर्ज़ी से जलती हुई चिता से उठ कर ज़िन्दगी को गले लगाने का निर्णय लिया तो ऊपर बैठे भगवान राम उसके इस कदम को किसी भी तरह से पाप नहीं मानेंगे।          

*पहला प्यार ~एक अधूरी प्रेम कहानी*

सिलसिला चाहतों का हो शुरू,
लो ऐसा समाँ हो रहा है।
लब तो है खामोश मगर,
आँखों से सब बयां हो रहा है।
मत जाना दूर कभी तुमको दिल में छुपा कर रखते हैं ,
सब कहना पर कभी मत कहना अच्छा, तो हम चलते हैं।

जब साथ हो तुम अपने, घबराने की क्या बात है,
इस जहाँ में सबसे खूबसूरत, सिर्फ तुम्हारा साथ है।
मत जाना दूर कभी तुमको दिल में छुपा कर रखते हैं ,
सब कहना पर कभी मत कहना अच्छा, तो हम चलते हैं।

जब ये लाइंस देव ने स्टेज पर पढ़ी, तो सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देव एक 32 वर्षीय युवक था ।एक मल्टीनेशनल कंपनी का एच आर एक्सेक्यूटिव देव, एक बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व वाला युवक था। उसने अपने इन 32 सालों में वह सब पा लिया था, जिसके वह सपने देखा करता था। दरअसल आज उसके बेटे आरव के स्कूल में एक फंक्शन था, जिसमें पार्टिसिपेंट्स के पेरेंट्स को परफॉर्म करना था। 6 साल के आरव की नजरों में उसके डैडी सुपरमैन थे। दुनिया का ऐसा कोई काम नहीं था, जो उसके डैडू ना कर पाते हो, सो उसने भी आज पार्टिसिपेट किया था और इसीलिए देव ने स्टेज पर आज यह कविता सुनाई थी।

अपने बेटे के लिए देव कुछ भी कर सकता था, तो यह तो सिर्फ स्टेज पर जाने की बात थी। कभी ऑडियंस से डरने वाला और अपनी बात कहने में हिचकने वाला देव, अपने बेटे के लिए स्टेज पर जाएगा ,उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

"मिस्टर देव, इतनी अच्छी कविता किसके लिए थी ये? क्या यह आपने लिखी है?"

जैसे ही होस्ट ने देव से पूछा, वह ज़रा सा सोच में पड़ गया। उसकी आँखें गीली होने लगीं। अपने आँसू  छिपाते हुए और अपनी आवाज़ संभालते हुए वह बोला, "यह देव की मम्मी, आरती ने लिखी थी और आज मैंने उन्हीं को डेडिकेट की है।"

कहते हुए उसका गला भर आया। इससे पहले कि होस्ट कुछ और पूछती, देव ने स्टेज छोड़ दिया और नीचे उतर आया। उधर आरव अपने पापा की बेस्ट परफॉर्मेंस पर खुश होकर अभी तक ताली बजा रहा था। विनर आरव ही था। नन्हें हाथों से ट्रॉफी पकड़े हुए वह अपने पापा की ओर आया और अपनी तोतली जुबान से माइक पर बोला, "बेस्ट डैडू की बेस्ट परफॉर्मेंस पर बेस्ट वाला प्राइज़। आई लव यू डैडू। यू आर माय हीरो एंड यू आर एवरीथिंग फॉल मी।"

घर आते ही देव ने सबसे पहले आरती को यह खुशखबरी दी।

"आरती देखो, तुम्हारा बेटा आज अपने स्कूल में फर्स्ट आया। पहली बार मैंने स्टेज पर कविता पढ़ी। वही जो तुमने मेरे लिए लिखी थी।"

आरती सिर्फ सुन रही थी। चुप थी। देव जानता था कि आरती कुछ नहीं बोलेगी।

बोलती भी कैसे, तस्वीरें बोलती कहाँ हैं?

दरअसल देव आरती की तस्वीर से बातें कर रहा था। आरती इस दुनिया में थी ही कहाँ उसका जवाब देने के लिए?

आरती देव का पहला प्यार थी और शायद आखिरी भी, क्योंकि 10 साल के बाद आज भी देव अकेला ही था।

इन दोनों की प्रेम कहानी शुरू हुई थी आज से 10 साल पहले, जब देव 22 साल का था और आरती से एक बुक फेयर में मिला था। आरती वहाँ कोई किताब खोज रही थी जो वह हर जगह ढूंढ कर थक चुकी थी और इसीलिए वह इस फेयर का इंतजार कर रही थी, लेकिन उसे वो किताब वहाँ भी नहीं मिली। देव अपने किसी पढ़ाकू दोस्त की बताई हुई बुक उसके लिए लेने आया था।

"क्या भैया, इतनी अच्छी बुक नहीं है आपके पास? मैं कितना इंतज़ार कर रही थी इस फेयर का। अब मैं कहाँ से लाऊँ, आप ही बताओ।"

"वो क्या है ना मैडम जी, कोई फेमस राइटर नहीं होगा। पहली ही बुक होगी उसकी, शायद इसीलिए नहीं है।"

"अरे! कमाल करते हो भैया, फेमस नहीं है तो क्या कोई अहमियत नहीं है? बस नाम ही चलता है क्या?काम का कोई मोल नहीं है? हद है।"

देव भी वहीं कोई बुक देखने में मसरूफ़ था। उसकी मासूमियत पर मुस्कुराते हुए बोला, "वैसे, कौन सी किताब चाहिए थी आपको?"

"राइटर का नाम तो अतुल शर्मा है, और बुक का नाम याद ही नहीं आ रहा पर हाँ, यह वही बुक है, जिसमें एक लड़की और लड़के की प्रेम कहानी है, जो कभी मिल नहीं पाते और अकेले ही ज़िंदगी काटते हैं।"

"कहीं आप अतुल शर्मा की 'अधूरी कहानी' के बारे में तो बात नहीं कर रही हैं?"  देव ने मुस्कुराते हुए पूछा।

"हाँ, वही! आपके पास है क्या वह बुक? आपको पता है मैं अतुल शर्मा की बहुत बड़ी फैन हूँ। मुझे उनके बारे में सिर्फ इतना पता था कि वह लखनऊ में रहते हैं। सिर्फ उनकी तस्वीर देखी थी और यही कहानी आधी पढ़ी थी और बस मैं उनकी फैन हो गई।"

"आधी कहानी मे ही फैन? अजीब हो यार," देव ने हँसते हुए कहा।
         
"जी हाँ, मैं ऐसी ही हूँ। वैसे आपके पास वो बुक है क्या?" आरती ने पूछा।

" दरअसल, अतुल मेरा बहुत अच्छा दोस्त है। लखनऊ में हम साथ पढ़ते हैं। यहाँ मैं उसी के लिए तो किताब लेने आया हूँ।"

"क्या? प्लीज मुझे एक बार उनसे मिलवा दो। सच में वह दोस्त हैं तुम्हारे? प्लीज मिलवा दो। मिलवा दोगे ना?" आरती लगभग पागल सी हो कर बोली।

"ओके यार, चिल। मैं मिलवा दूंगा," देव हंसा। "वैसे तुम्हारा नाम?"

"आरती, मैं यही कानपुर में रहती हूं। लॉ स्टूडेंट हूं और किताबों की शौकीन भी। तुम्हारा नाम?

"देव ,कानपुर में ही घर है। पढ़ाई के सिलसिले से 2 साल पहले लखनऊ गया था।"

"तो, अतुल से कब मिलवा रहे हो?" आरती ने बेचैन होते हुए पूछा।

"अभी तो छुट्टियां है। 2 महीने बाद ही वापस जाना होगा। तभी चलना तुम। तब तक हम लोग दोस्त भी बन जाएंगे," देव ने मुस्कुराकर कहा।

"दो महीने?" एक गहरी साँस छोड़ते हुए, थोड़ा सा मायूस होते हुए, आरती बोली।

देव को आरती की बेफ्रि़की, उसका दोस्ताना व्यवहार, पहली बार में ही उसका वो चंचल अंदाज़ भा सा गया था। घर आकर उसका चेहरा रह-रहकर देव की आँखों के सामने आ रहा था। उसकी आँखें, उसके वो उड़ते बाल, उसकी बात करने का अंदाज़... वो तो उसे भुला ही नहीं पा रहा था। जब होश में आया तो याद आया कि उसने आरती का नंबर तो लिया ही नहीं। वह अब उससे मिलेगा कैसे?

"ओह नो! अब क्या करूँगा? कैसे मिलूँगा उससे?" देव की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या करे? वह दूसरे दिन का इंतजार करने लगा कि शायद वह कल फिर उसी पुस्तक मेले में आए। 3 दिन तक देव वहीं जाता और सुबह से शाम तक उसका इंतजार करता पर अफ़सोस तीनों दिन उसे निराशा ही मिली ।आख़िरी दिन सारी दुकानें हटने लगीं। देव मायूस हो गया।

"अब क्या मिलेगी वो? अब तो ये मेला भी एक साल बाद आएगा और फिर पता भी तो नहीं कि वह रहती कहाँ है?" देव इसी उधेड़बुन में था कि अचानक पीछे से आवाज आई।

" देव!"

आरती तेज कदमों से उसकी ओर आ रही थी।

"रुको! जाना मत," हाँफते हुए वह बोली।

"कहाँ थी आरती? मैं 3 दिन से तुम्हारा इंतजार करता था यहाँ। मुझे तो लगा कि अब तुमसे मिल ही नहीं पाउँगा।"

"अरे! देव, दरअसल, कवि सम्मेलन के सिलसिले में मुझे 3 दिन के लिए बाहर जाना पड़ा। इसीलिए आ ना सकी। बस, वहीं से अभी-अभी आई। तुम्हें देखा, तो लगा कि कहीं निकल ना जाओ इसीलिए जल्दी जल्दी आ रही थी।"

"कवि सम्मेलन?" देव ने हैरानी से पूछा।

"जी हाँ! देव बाबू ,मैं कविताएं लिखती हूँ।"

"वाह,  यार! कभी पढ़ाना।"

"बिल्कुल।"

उस दिन दोनों खूब देर तक घूमते रहे। एक दूसरे के अनछुए पहलुओं से रूबरू हुए। देव कानपुर के किदवई नगर इलाके का रहने वाला था। दो साल पहले ही लखनऊ गया था। दूसरे लड़कों की तरह क्रिकेट प्रेमी और यह कविता, कहानियों से कोसों दूर रहने वाला। उस दिन आरती से कविता सुनाने वाली बात सिर्फ उसे इंप्रेस करने के लिए थी।

वहीं आरती एक लॉ स्टूडेंट थी। कानपुर की ही रहने वाली। कविताएं लिखना उसका शौक था। वह दूसरों के हक के लिए खड़े रहने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। देव आरती से प्यार तो करने ही लगा था, इन मुलाकातों ने उसे आरती की मासूमियत और सच्चे दिल से मिलवाया था और आज उसे करीब से जानने के बाद तो वह उसके और करीब आ गया था।

इतनी झल्ली लड़की, जो क्रिकेट सिर्फ इसलिए पसंद नहीं करती थी क्योंकि उसे लगता था कि इस खेल की वजह से राष्ट्रीय खेल और दूसरे खेलों को अहमियत नहीं मिलती है। कितनी सच्ची थी ना .... बहुत साफ दिल था उसका। यह मुलाक़ातें अब रोज होने लगी। घूमने जाना, मस्ती करना, घर पर घंटों फोन पर बातें, मैसेज... इस तरह से लगभग पूरे-पूरे दिन वह लोग साथ में ही रहते। आरती को भी देव में अपना सच्चा दोस्त मिला था। जैसे-जैसे जाने का दिन पास आने लगा, देव की बेचैनी बढ़ने लगी। वह कहना तो चाहता था आरती से, मगर उसे याद है बातों बातों में आरती ने बताया था कि उसे प्यार-व्यार में भरोसा नहीं क्योंकि वह जल्दी किसी पर विश्वास नहीं कर पाती। उसे लगता था कि रिश्तो के बंधन में बंधने से उसकी आज़ादी खत्म हो जाएगी।

आखरी दिन जब वो मिले, आरती खुश थी कि वह अपने पसंदीदा लेखक से मिलेगी।  देव थोड़ा सा उदास था। हिम्मत करके बोला, "आरती।"

"हाँ देव ,बोलो।"

"आई लव यू।"

आरती भौंचक्की सी खड़ी रही। हालांकि उसके लिए यह नई बात नहीं थी। अब तक ना जाने कितने ही लड़कों ने उसे यह बोला था पर सबके लिए उसका जवाब 'ना' ही होता था, पर ना जाने क्यों, वह देव को 'ना' नहीं बोल पा रही थी।

थोड़ी देर की खामोशी के बाद वह बोली, " देव! मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकती, तुम जाओ।"

बस, यही उसके आखरी शब्द थे। देव की ट्रेन आ चुकी थी। वह चला गया। 3 दिन तक ना कोई फोन और ना ही मैसेज। 3 दिन के बाद आरती ने ही देव को कॉल लगाया।

"देव! कैसे हो?" सकुचाते हुए उसने पूछा।

"मैं अच्छा हूँ।"  आवाज़ में सुकून था।

कांपती आवाज में आरती बोली, "देव! आई लव यू।"

थोड़ी देर तक सन्नाटा पसरा रहा।

"हाँ देव, तुम्हारे जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं भी तो तुमको प्यार करती हूँ। उस दिन तुमको 'ना' नहीं बोल पायी। अब तक सबने मेरे चेहरे से प्यार किया, पर तुमने मेरे दिल से। मुझसे कुछ पूछा नहीं ,अपना प्यार थोंपा नहीं ।सब यही कहते थे कि आप बहुत सुंदर हो, मैं आपको बहुत खुश रखूंगा... वगैरह.. वगैरह, पर तुमने मुझसे बिना कोई उम्मीद रखे प्यार किया। तुम मुझसे इतनी दूर हो पर चाहकर भी मैं तुम पर अविश्वास नहीं कर पा रही।आई लव यू देव! आई लव यू।"

उस दिन दोनों काफी देर तक रोते रहे। फोन चलता रहा। दोनों कब सो गए पता ही नहीं चला। फिर ऐसा अक्सर होने लगा। कुछ दिन बाद आरती लखनऊ चली गई, अपने पसंदीदा लेखक से भी मिली और बाकी समय देव के साथ रही। पता ही नहीं चला कब इतनी मजबूत लड़की की कमज़ोरी बन चुका था देव। जो किसी के सामने नहीं रोती थी, अकेले में उसे आंसू बहाने के लिए देव के कंधे की जरूरत होती थी।

वो देव के लिए कविताएं लिखती और उसे सुनाती। देव को भी दिलचस्पी होने लगी थी आरती की कविताओं में। एक बार देव को बताया था कि एक कविता उसने आधी लिखी है जोे देव को पूरी करनी है।

"मैं, और कविता? भूल ही जाओ तुम। फिर तो वह आधी ही रहेगी हमेशा। वैसे सुनाओ तो ज़रा," उसने बात मजाक में टाल दी।

"ना होने पर मेरे कभी मत उदास होना,
दूर हो जाऊं कितनी भी ,पर हमेशा दिल के पास रहना छोड़ कर सबको आ जाती हूँ पास तुम्हारे,
भुला दूँ सब कुछ तुम्हारे सिवा, इसी तरह हमेशा मेरे खास रहना।
जुदा होने के फकत ख्याल से ही अश्क बरसते हैं,
सब कहना पर कभी मत कहना,
अच्छा तो हम चलते हैं ।"

जैसे ही आरती ने उसको ये सुनाया, वह भड़क गया।

"क्या ये दूर जाने की बातें करती रहती हो? बेकार की बातें मत किया करो।"

"चिल! इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नहीं छोडूंगी, जान," वो मुस्कुराते हुए बोली।

देव को कभी कभी डर लगता, जब आरती हमेशा गलत लोगों से लड़ने के लिए तैयार रहती। वह उसे हमेशा समझाता था कि ऐसा ना किया करे क्योंकि अगर उसे कुछ हो गया तो वह नहीं रह पाएगा। पर आरती, वो हर बार हँस के टाल देती।

खाली समय में दोनों अपने सुनहरे भविष्य के सपने संजोते। देव को याद है, एक बार आरती ने उससे कहा था, "देव! वो.. मैं ...तुमसे ...कुछ कहना चाहती हूँ।"

"हाँ आरती, कहो ना।"

"देव, हम ना एक बेबी गोद लेंगे। किसी को सहारा ही मिल जाएगा।" उसने बहुत हिम्मत करके, सकुचाते हुए ,धीरे से कहा था। मानो किसी इजाज़त की उम्मीद कर रही हो।

"ओके!" देव मुस्कुरा कर बोला।

"सच्ची?" वो कितनी खुश हो गई थी।

बस उसकी यही खुशी देखने के लिए तो कुछ भी कर सकता था देव। कौन कहता है कि दूर रहने से प्यार ज़्यादा दिन नहीं टिकता? इन दोनों को ही देख लीजिए। आरती यहाँ कानपुर में और देव वहाँ  लखनऊ में, फिर भी दोनों में इतना प्यार कि एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते और इतना विश्वास कि शक शब्द की कोई गुंजाइश ही नहीं थी ।

"देव! मैंने ना अपने एक बेबी का नाम सोच लिया है।" एक शाम उसने देव से हंसते हुए कहा था ।

"अच्छा! पागल हो पूरी। वैसे मुझे भी बताओ ज़रा।" उसकी नादानी पर हंस रहा था वो।

"देखो बेटी का नाम अभी सोचा नहीं पर बेटे का नाम होगा आरव। 'आरती' का 'आर' और 'देव' का 'व' मिलाकर हो गया ना आरव। इस तरह हम लोग अपने बेटे के नाम में हमेशा जुड़े रहेंगे," बड़ी ही मासूमियत के साथ बोली थी वो।

देखते-देखते 3 साल बीत गए और इनका प्यार दिन पर दिन बढ़ता ही गया। कभी कोई गलतफहमी या बड़ा लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ। छोटी- मोटी ,खट्टी-मीठी नोंकझोंक तो हर रिश्ते में होती है। उसके बिना तो हर रिश्ता अधूरा होता है। कितनी अंडरस्टैंडिंग थी ना दोनों के बीच, और भरोसा भी!

अब देव लखनऊ से गाजियाबाद जा चुका था और आरती कानपुर से नोएडा। एक बार देव किसी काम से नोएडा आया। 4 दिन दोनों ने साथ में ही बिताए ।

एक शाम आरती का हाथ अपने हाथ में ले कर देव बोला, "पता नहीं क्यों आरती, आज तुमसे सब कुछ कह देने का मन कर रहा है। आरती, पता है मैं अपनी ज़िंदगी में बहुत कुछ करना चाहता था। मुझे वो सब कुछ पाना है जिसके मैंने और मेरे घर वालों ने सपने देखे हैं। घर, गाड़ी ,पैसा, रूतबा, लक्ज़री, सब कुछ। बस फर्क महज़ इतना है कि पहले सिर्फ यह सब मेरे सपने थे और अब मेरा सपना सिर्फ तुम हो। यह सब मुझे तब चाहिए जब तुम मेरे साथ होगी। अगर तुम साथ नहीं हो तो मैं मर जाऊंगा और तुम्हारे साथ मुझे इन सब की कोई जरूरत नहीं होगी।"                   

उसकी आँखें गीली होने लगी थी।

"तुम परेशान मत हो ,मैं कहीं नहीं जाऊंगी पर वादा करो कि तुम कभी भी कुछ भी गलत नहीं करोगे। ना अपने साथ और ना ही किसी और के साथ।"

"प्रॉमिस........ कभी नहीं।"

"देव! मुझे भी कुछ कहना है।"

"हाँ! बोलो ना," देव ने आरती के कंधे पर अपना सिर रखते हुए कहा।

"मुझ पर केवल तुम्हारा हक है। अपने जीते जी मैं कभी भी किसी और को खुद को छूने भी नहीं दूंगी। आज तुमसे वादा है मेरा।"

"अरे! क्या हुआ आरती? मुझे पता है, आई लव यू जान! तुम्हें क्या हुआ?" वो चौंकते हुए बोला।

"कुछ नहीं! बस मन हुआ तो कह दिया," वो बोली।

नहीं जानते थे दोनों कि आखरी मुलाकात है यह उनकी ।

"ना जाने क्यों, आज जाने का मन नहीं हो रहा," वो मायूस था।

"हाँ देव, तो मत जाओ ना! पता नहीं क्यों, आज तुम्हें जाने देने का मन ही नहीं कर रहा। इतनी तकलीफ तो कभी नहीं हुई," उसका मन भारी था।

"काम ना होता तो ना जाता आरती। जाना पड़ेगा।"

आज दोनों की ही आँखों से ही आँसू बरस रहे थे।

दोनों ही अपने घर वालों को बता चुके थे और उनकी सगाई होने वाली थी। देव की जॉब लग चुकी थी और 5 महीने के अंदर ही शादी भी होनी थी। आरती घर आ चुकी थी, बस देव का आना बाकी था उसके आने में एक ही दिन था कि कुछ ऐसा हुआ जिसके बाद उसके जीने की सारी वजहें ही खत्म हो गयीं।

अपनी एक सहेली के बुलाने पर आरती उसके घर गई। वहाँ पर सहेली के दोनों दोस्त पहले से ही मौजूद थे। ये वही लोग थे जिनको आरती ने एक बार पूरे मोहल्ले के सामने बेइज्जत किया था। वो लोग एक लड़की के साथ बदतमीजी कर रहे थे और इसीलिए आरती ने उन लोगों को उन्हीं के घर पर जाकर सबके सामने डांटा था। इसी का बदला लेने के लिए वो यहाँ मौजूद थे।

"तुम लोग यहाँ?" जैसे ही आरती घर के अंदर गई, उन लोगों को वहां देखकर भौंचक्की रह गई। उसे गुस्सा आ रहा था। वो वहाँ से जाने को हुई तभी उन लोगों ने पीछे से उसे पकड़ लिया। वह किसी तरह उनके चंगुल से खुद को छुड़ाकर बचाव कर रही थी। इस हाथापाई में वह लहूलुहान भी होती गई पर उसने हिम्मत नहीं हारी। अपनी आबरु पर संकट आते देख किसी तरह अपने आप को उसने कमरे में बंद कर लिया। अंदर बैठी वो रोती रही। बाहर उनकी हंसी, उनकी गंदी बातें सुनकर काँप रही थी वो।खुद को बचाने की काफी कोशिशें करने के बाद, जब उसे लगा कि अब ज़्यादा देर तक वह खुद को नहीं बचा पाएगी, तब उसने कमरा खोला।

वो दोनों हंस रहे थे। अपनी तरफ खींचने के लिए जैसे ही उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया, उनकी नज़र उसके पेट की तरफ गई देखा तो उसने खुद को चाकू मार लिया था।

चाकू पेट में धंसा हुआ थी। कलाई भी कटी हुई थी। यह सब देख कर वह लोग वहाँ से भाग गए। आरती हिम्मत करके फोन की तरफ गई। देव को एक आखिरी कॉल लगाया।

"देव तुमसे किया हुआ वादा और अपनी ज़िद पूरी करने की खातिर, तुमसे किया हुआ दूसरा वादा तोड़ दिया मैंने। अब जिंदगी भर तुम्हारा साथ नहीं निभा पाऊंगी मैं," वो काँपते और कराहते हुए बोली। देव से दूर जाने का गम उसकी आँखों से आँसू की शक्ल में बह रहा था ।

"आरती! क्या हुआ तुम्हें जान? कहाँ हो? क्या, हुआ क्या है? बताओ मुझे!"

वो परेशान हो गया। उसकी आँखों से आँसू झरने में बहते पानी के समान बहने लगे।

"देव, अपने जीते जी मैंने खुद को किसी और को छूने नहीं दिया। तुम्हारा साथ बीच में ही छोड़ कर जा रही हूँ। बहुत प्यार करती हूँ तुमसे और हमेशा करती रहूँगी। कसम है तुम्हें मेरी, खुद को उतना ही प्यार करना, जितना मैं तुम्हें करती हूँ।"

रो रही थी वो। धीरे-धीरे उसकी सांसें तेज़ होने लगीं।

"आरती, कुछ नहीं होगा तुम्हें। मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। आरती, इतने साल हम दूर रहे, जब एक होने का समय आया, जब.....जब हमें पास आना था... तो तुम मुझ से इतनी दूर नहीं जा सकती। आरु......... मैं क्या करूँगा, मैं तो मर जाऊँगा। मत जाओ ना कहीं। बोलो ना...... कुछ तो बोलो।"

देव पागल सा हो गया था। ऑफिस से पैदल ही भागता हुआ स्टेशन की ओर आ रहा था ।

"आरू..........आरू.......! आरती चुप क्यों हो बोलो ना!"

वह चीख रहा था। मगर इधर से कोई आवाज़ नहीं जा रही थी। आरती फोन खुला छोड़ कर सो गई थी। जैसा कि यह लोग अक्सर करते थे, बस फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि हर बार जागते भी थे। इस बार आरती कभी नहीं जागेगी।

इतनी ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज़ लड़की ने खुदकुशी कर ली थी। दूसरों को खुश रहने और जीतने की सीख देने वाली आरती ही जिंदगी से हार गई थी।

देव को इस सदमे से उबरने में कितना समय लगा, कोई नहीं जानता। वह तो अभी भी इसी आस में था कि आरती आएगी और उसके गले से लग जाएगी। खुद को संभालने के बाद उसने सबसे पहले एक बच्चा गोद लिया और उसका नाम रखा 'आरव'। वही नाम जो आरती ने सोचा था ।

आरती के जाने के बाद देव ने उसकी डायरी उठाई। आखिरी कविता आधी लिखी हुई थी, वही जो आरती चाहती थी कि देव पूरी करे। ना जाने क्या सोचकर उसने पेन उठाया और लिखने बैठ गया।

"जब साथ हो तुम अपने, घबराने की क्या बात है,
इस जहां में सबसे खूबसूरत, बस तुम्हारा साथ है।
मत जाना दूर कभी, तुमको दिल में छुपा कर रखते हैं।
सब कहना पर कभी मत कहना,
अच्छा तो हम चलते हैं।"

"मुझे मना कर के खुद ही कह गई, अच्छा तो हम चलते हैं। क्यों चली गई मुझे छोड़कर? 10 साल बाद आज भी, एक भी दिन ऐसा नहीं जाता, जब तुम्हारे लौटने का इंतज़ार ना करूं। आज वह सब कुछ है मेरे पास, जिसके सपने देखते थे हम, पर जिसके बिना कुछ नहीं, वही नहीं है। इतनी शिद्दत से तो नहीं मांगा था ना यह सब, तो मुझे यह सब क्यों मिला, तुम क्यों नहीं मिली आरती? क्यों भगवान ने दूर कर दिया हमें? सिर्फ तुम्हारी कसम और हमारे बेटे के खातिर जी रहा हूं मैं आरती, वर्ना मैं अभी तुम्हारे पास आ जाऊँ।

देव फूट फूट कर रोने लगा ।

"पापा ......पापा.....!"  आरव तेज कदमों से कमरे की तरफ आ रहा था।

"ओह पापा! मम्मी से सीक्रेट बातें हो रही हैं?"

अपने आंसू पोंछकर उसकी मासूम बातों पर मुस्कुरा रहा था देव।

"पापा , मुझे कुछ कहना है।"

"कहो बेटा!"

"मत जाना दूल कभी तुमको दिल में छिपा कल लखते हैं,
छब कहना पल कभी मत कहना, अच्छा तो हम चलते हैं।"

देव की आँखों में आँसू भर आए। उसने आरव को गले से लगा लिया। आरती की तस्वीर यह सब देख कर मानो मुस्कुरा सी रही थी। तीनों एक साथ एक ही कमरे में थे। एक कंप्लीट, हैप्पी फैमिली।

आरती, देव और आरव।

दरअसल आरती देव को छोड़कर कहीं गई ही नहीं थी। वह दोनों आज भी साथ थे, अपने बेटे के नाम में, जो दोनों ने बड़े प्यार से रखा था।

आरव।

अभी नहीं किया बस कर रहा हूँ

अपने हाथ में चाय का कप लेकर घर की बालकनी से मैं बारिश की बूंदों को आसमान से नीचे गिरता हुआ देख रहा था। क्या ये बारिश की बूंदों की तरह हम भी एक साथ कई जगह हो सकते हैं?

सोच रहा था कि क्या हो गयी है ज़िंदगी। इसकी भागदौड़ में मैं दूसरों से काफी आगे निकल आया हूँ या इतना अकेला हो चुका हूँ कि कोई साथ में है ही नहीं।

अभी जैसे कल ही की बात लगती हो जब मैं अपनी दसवीं के एग्जाम के दरमियान एक गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लेने किसी दूसरे शहर गया था। पापा क्या गुस्सा हुए थे ना, पर बड़ा भाई मुझे खुद अपने साथ ले गया था।

मैं उस प्रतियोगिता में सिलेक्ट तो नहीं हो पाया पर इतना ज़रूर पता चल गया था कि आगे जाकर मुझे करना क्या है और दिल से डर भी दूर हो गया था कि एग्जाम में अच्छे नंबर नहीं आये तो क्या होगा।

फिर बारहवीं के बाद मैंने मास कम्युनिकेशन की डिग्री ली और एक थिएटर ग्रुप ज्वाइन कर लिया। पापा हमेशा से मेरे फैसलों के खिलाफ होते थे, क्यूंकि वो डरते थे कि कहीं मैं भी दूसरे बच्चों जैसा सफल नहीं हो पाया तो; पर मैं भी कहाँ मानने वाला था? डटा रहा, क्योंकि मुझे भरोसा था अपने आप पर।

कॉलेज के दिनों से ही थिएटर में इंटरेस्ट आने लगा था। ऐसा लगता था कि यही ज़िन्दगी है और इस ज़िन्दगी का अपना एक अलग ही मजा था।

कहानी लिखना, उसके लिए किरदार तलाशना और फिर उन लोगों को अपनी कहानी के किरदारों जैसा बनाना, यही सब दुनिया थी। कभी खुद कहानियां लिखता तो कभी किरदार ढूंढता, जब किरदार ना मिलते तो खुद कोई किरदार निभा लेता था।

नाटक खत्म होने के बाद जब लोग तालियां बजाते थे तो दिल को बहुत सुकून मिलता था।

मैं यही सोचता था कि उस नाटक में जो सन्देश दिया गया है, अगर वो किसी एक इंसान ने भी अपनी जिंन्दगी में उतार लिया तो हमारी मेहनत सफल हो गयी।

आगे चलकर राइटिंग मेरा पैशन बन गया और मैं कहानियाँ, ग़ज़लें, कविताएं, लेख वगैरह लिखने लगा।

इसी बीच मेरी कविता एक हिंदी अख़बार की प्रतिष्ठित पत्रिका  में प्रकाशित हुई जो एडिटर को बहुत पसंद आयी और उन्होंने मुझे अपने एक दोस्त से मिलने का आग्रह किया। मैंने भी हामी भरी और तय तारीख को अपनी सारी रचनायें लेकर उनसे मिलने जा पहुँचा।

मुझे एक अच्छे सैलरी पर उन महाशय ने कवितायेँ प्रकाशित करने का ऑफर दिया। मैंने हाँ में जवाब दिया और कब मेरी सारी कविताएं फटे पुराने पन्नों से निकल एक बढ़िया सी किताब में तब्दील हो गयी पता ही नहीं चला।

उस वर्ष मेरी पुस्तक को बहुत सराहा गया।

इस खुशी को बांटने मैं घर गया। पापा घर पर नहीं थे तो मैने माँ से कुछ देर बातें की। भाई के बच्चों के साथ मस्ती की। अचानक से दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी ।

ठक ठक...

ऐसा लगा किसी ने नींद से जगाया हो, मेरे मैनेजर साहब ने आ कर मुझे जगाया और कहा, "तुम्हें एक मेल करने को कहा था कर दिया क्या?"

"सर अभी नहीं किया बस कर रहा हूँ।"

ये सुनकर मैनेजर साहब चले गए और मैं यही सोचता रहा गया कि अभी नहीं किया बस कर रहा हूँ या कर लूंगा के चक्कर में ज़िन्दगी में कितने काम बाकी रह गए।

अगर वक़्त पर काम कर लिए होते तो शायद ज़िन्दगी कुछ और होती।

Tuesday 29 August 2017

#Respect_for_all_girls#

🙏#Respect_for_all_girls🙏

एक स्त्री के पैरो के बीच से #जन्म लेने के बाद उसके #वक्षस्थल से निकले #दूध से अपनी भूख, प्यास मिटाने वाला #इंसान.....
बड़ा होते ही #औरत से इन्हीं दो अंगो की चाहत रखता है....
और अगर #असफल होता है तो इसी चाहत में वीभत्स तरीको को #अंजाम देता है.....
#बलात्कार और फिर #हत्या।।
#जननी वर्ग के साथ इस तरह की #मानसिकता क्यूँ???
#वध होना चाहिए ऐसी दूषित मानसिकता के लोगों का.....
मेरी नजरों में बलात्कार से बड़ा कोई #जुर्म नहीं है धरती पर........
इस पर #आत्म_मंथन कीजिए कि जो तुम्हारी #माँ, #बहिन, #बेटी के आँचल में हैं वो #इज्जत हैं.....
तब दूसरी #स्त्रियां तुम्हारी #रखैल कैसे???
#महिलाओं के साथ इस तरह का #दुर्व्यवहार इस दुनिया का सबसे #नीच, #गन्दा, #शर्मनाक_कृत्य है......
एक लड़का #Fecebook पर पोस्ट करने पर जेल भेज दिया जाता हैं और बलात्कार करने वाले को बाल ग्रह सुधार केंद्र भेजा जाता है
ये #भारत मे ही क्यों हो रहा है...?

Plz,,,,,,,,, हर नारी की इज्जत करे...

मासूमियत

मासूमियत तब्दील हो गई,
चेहरे की लकीरें शूल हो गई,
अब होश भी कम रहता है,
बेहोशी जब से फ़िज़ूल हो गई,

उनसे नज़ारे बना करते थे,
आज आखों में वो धुल हो गई,
अब लाचारी सी रहती है,
आज बेकारी दिल का उसूल हो गई,

तबीयत अब तमामं हो गई,
कुछ ख्वाइशें इंतक़ाम हो गई,
अब ख़तम हो रहा है खुद सब,
दुनियां जब से वीरान हो गई,

Love letter in Hindi for girlfriend


मेरी जान, मेरी ज़िन्दगी, मेरी हर उम्मीद, मेरा हर सपना तुम हो, और आज मुझे तुम से अपने मन की बात कहनी है…
लाइफ में कभी कभी ऐसा भी होता है कि हर सपना जो हम देखते हैं, हर ख्वाहिश जो हम करतें है वो पूरी नहीं हो पाती ..
मगर ख्वाब ना पूरा होने के डर से हम ख्वाब देखना तो नहीं छोड़ सकते ना..??
ख्वाब और ख्वाहिश इंसान के जीने वजह हैं .. जिनके सहारे इंसान जिंदा रहते है..
अगर किसी की ज़िन्दगी में कोई ख्वाब और किसी को पाने की ख्वाहिश ना हो तो फिर ऐसी ज़िन्दगी ही क्या है भला ..
ख्वाब पूरा ना हो वो तो भाग्य की बात है। … कुछ हद तक हमारी कोशिश की कमी की। … लेकिन किसी को पाने की ख्वाहिश का ना पूरा हो पाना तो हमारे प्यार की ताकत में कमी होने से ही होता है…
अपने प्यार और अपने मिलन का जो ख्वाब हमने देखा है वो जरूर पूरा होगा . हमें कोई नहीं रोक सकता
मुझे ये तो नहीं पता कि हमारे मिलन का ये ख्वाब कब पूरा होगा, कब हमारी ये चाहत परवान चढेगी। । लेकिन ऐसा होगा जरुर.
क्यूंकि मैंने सुना है कि अगर प्यार सच्चा हो तो सारी कायनात हमें हमारे प्यार से मिलवाने में हमारा साथ देती है।
अगर प्यार सच्चा हो तो सारी दुनिया को प्यार के सामने सर झुकाना पड़ता है… लेकिन मैं ये नहीं चाहता (चाहती) की हमारी वजह से हमारे माँ-बाप का सर ज़माने के आगे झुक जाये.
इसलिए इंतज़ार करो, मेरे प्यार पे भरोसा रखो… एक दिन आएगा जब सब लोग हमारे दिल की बात समझेंगे और और प्यार को मंज़िल मिलेगी। ।
आई लव यू

खोखलापन(A Love Story)

उस लड़के से मिलने से पहले मेरे जीवन में कुछ खोखलापन सा था, एक अजीब सा खालीपन था.
जिसे आजतक मेरे अलावा किसी ने महसूस नहीं किया था. क्योंकि मैं स्वभाव
से बहुत चंचल थी, इस कारण मैं कॉलेज और घर में लोगों से घिरी रहती थी. इसके बावजूद कि मैं
बहुत बोलती थी, मेरे जीवन का एक दूसरा पहलु भी था. और जीवन के उस हिस्से में आने की इजाजत
मैंने किसी को नहीं दी थी. बाहर से खुश दिखाई देने वाली लड़की जिसे लोग हर पल हसंते-खिलखिलाते
देखते थे, उसके बारे में ये अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता था कि वो अंदर से इतनी अकेली होगी,
ढेर सारे दर्द अपने भीतर समेटे हुए होगी. मैं खुश होने का दिखावा तो करती थी,
लेकिन अंदर से खुश नहीं थी. बस एक मुखौटा पहनकर जिंदगी बिताये जा रही थी.
मैंने अपने आस-पास एक घेरा सा बना लिया था.
कोई भी मेरे द्वारा बनाए गए दायरों को नहीं तोड़ सकता था.
मुझे इस बात पर यकिन नहीं हो रहा था कि वो लड़का मेरे बनाए गए दायरों को तोड़कर मेरी सोच में
समाता चला जा रहा है. शुरू-शुरू में उससे बात करना महज एक औपचारिकता थी. सहपाठी होने की
वजह से मेरी और उसकी अक्सर थोड़ी-बहुत बातचीत होती रहती थी. लेकिन मुझे इस बात का इल्म
तक नहीं था कि वो मुझे मन ही मन पसंद करता था, मुझसे दीवानों की तरह प्यार करता था.
ये अलग बात थी कि आज तक उसने इस बात को मेरे सामने कभी जाहिर नहीं होने दिया था.
मुझे छोटी से छोटी तकलीफ होने पर, उसे मुझसे ज्यादा दर्द होता था. कोई ऐसे भी किसी को चाह
सकता है यकीन करने में बहुत वक्त लगा. लेकिन समय के साथ मुझे इस बात का एहसास हो गया कि
ये लड़का मेरी चिंता करता है, मेरा ख्याल रखता है. उसके प्यार में पागलपन था.
मेरी ख़ुशी के लिए वो कुछ भी कर देता था. उस लड़के ने  बिना इस बात का जिक्र किये कि
उसे मुझसे बातें करना अच्छा लगता है, मेरे साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है, बड़ी ही चालाकी से
मुझसे दोस्ती के लिए पूछा. उस दिन हम दोनों कॉलेज जल्दी आ गए थे और क्लास में कोई नहीं था-
‘’ उसने पूछा क्या मैं तुम्हारा हाथ पकड़ सकता हूँ ‘’ .
पहले तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि आज इस लड़के को क्या हो गया है ये इस तरह की बातें क्यों कर रहा है.
लेकिन मुझे उसपर पूरा भरोसा था कि वो कोई गलत काम नहीं करेगा. उसकी आँखों में सच्चाई थी
और ये बात मैं साफ़-साफ़ देख सकती थी. उसने इतनी Honestly मेरा हाथ माँगा कि मैं उसे मना
नहीं कर पाई और मैंने उसे अपना हाथ दे दिया. उसने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और कहा, क्या
तुम मेरी दोस्त बनोगी तुम मुझे अच्छी लगती हो और मैं तुममें एक अच्छा दोस्त देखता हूँ, अच्छा
इंसान देखता हूँ और मैं चाहता हूँ कि मैं जिंदगी भर तुम्हारा दोस्त बनकर तुम्हारे साथ रहूँ.’’
उसने इतनी ईमानदारी से अपनी इस बात को मेरे सामने रखा कि मैं ना नहीं कर पाई और मैंने हाँ कर दिया.
उस दिन उसने बस इतना हीं कहा और चला गया. मुझसे दोस्ती करने की खुशी मैं साफ़-साफ़ उसके चेहरे पर देख सकती थी. मुझे ये सोच कर दिन भर बहुत हंसी आ रही कि किस तरह से डरते-डरते उसने मेरा हाथ पकड़ा था.
मैं अच्छी तरह से उसकी कांपती हाथों को महसूस कर सकती थी. और पूरे दिन उस वाकये को याद करके मुझे हंसी आ रही थी, मैं अकेले में भी बिना बात के हँसे जा रही थी.
मेरे आस-पास रहने वाले लोग ये देख कर समझ गए थे कि जरुर कोई बात है.
इस लड़की को कुछ तो होने लगा है. अब हम दोनो दोस्त बन गए थे और उसने किसी भी वक्त
फोन पर बात करने की इजाजत मांग ली थी. अब उससे बात करना मुझे भी अच्छा लगने लगा
था, मेरे अंदर क्या चल रहा था मुझे समझ में नहीं आ रहा था. क्यों मैं उसके फोन का इंतज़ार
करने लगी थी ? न जाने क्यों मैं उसकी ओर खिंची चली जा रही थी ?
क्यों अब हर पल मेरा दिल उसका साथ चाहता था, न जाने क्यों मैं अब खुली आँखों से भी उसी
के सपने देखने लगी थी. क्यों मैं अब दिन-रात उसी से बातें करना चाहती थी. अब उससे अपनी
बातें share करना मुझे अच्छा लगने लगा था. जब भी मैं उदास होती किसी को पता चले ना
चले उसे पता चल जाता था, चाहे वह मेरे सामने हो या न हो. और वह मेरी उदासी को दूर करने
का हर संभव प्रयास करता था. मुझे खुद पर गर्व होने लगा था.
एक दिन उसने मुझसे I Love You कहा, मुझे वक्त लगा… लेकिन मैंने भी अपने प्यार का इजहार
कर दिया. मुझे भी अपनी जिंदगी में प्यार का इंतजार था. मैं भी प्यार को हर पल जीना चाहती थी,
आगे क्या होगा इसकी चिंता न उसे थी, न मुझे. हम दोनों का सारा समय एक-दूसरे के साथ बीतने लगा.
हम दोनों एक-दूसरे का साथ पाकर मानो पूरी दुनिया से कट गए थे. मैं कह सकती हूँ, उसके साथ
बिताये गए एक-एक पल मुझे हमेशा याद रहेंगे. मैं कितनी खूबसूरत थी, ये उसने हीं बताया था.
मेरी जुल्फें उसे बहुत खूबसूरत लगती थी. मेरी कमियाँ भी उसे मेरी खूबी लगती थी. मेरे हर जन्मदिन पर
मुझसे ज्यादा खुश होना, मेरे ऊपर हजारों रुपए मना करने के बावजूद खर्च कर देना, वो दीवाना था मेरा.
उसने भी मुझे अपना दीवाना बना लिया था. बाइक पर अक्सर घूमने निकल जाना, कॉलेज बंक करके
फिल्म देखने जाना, ये सब हमें अच्छा लगने लगा था. उसकी पूरी दुनिया बन गई थी मैं, मेरी पूजा करता था वो.
मेरे लिए किसी से पंगा लेने से पहले बिल्कुल नहीं सोचता था वो. दिन तेजी से बीतने लगे, हम दोनों
दुनिया को भूल चुके थे. प्यार के उस दौर ने हम दोनों को भीतर से बदल दिया था. हमने प्यार की
ढ़ेरों कसमें खाई, और ढ़ेरों वादे किए. हम दोनों प्यार के इस दौर को जी भर कर जी लेना चाहते थे.
Real Love Story in Hindi
वक्त ने करवट लिया, मेरे पिताजी ने 20-21 साल की कम उम्र में हीं मेरी शादी पक्की कर दी.
मुझे अब उसे या अपने परिवार को चुनना था. मैंने कभी सोचा हीं नहीं था कि जल्द हीं मेरे सामने
ये मजबूरी आ जाएगी. अंदर से मेरा हाल भी बेहाल था, लेकिन वह मुझसे ज्यादा बेहाल था.
वह किसी भी हद तक जाने को तैयार था, मेरा साथ पाने के लिए. लेकिन मैं जानती थी,
कि अगर मैं घर से भाग जाती हूँ तो मेरे घर वालों का जीना मुश्किल हो जाएगा. कड़े मन से मैंने
उसके साथ जाने से इंकार कर दिया. वह हर दिन सैंकड़ो बार कोशिश करता कि मेरे फैसले को बदल पाए,
लेकिन मैं नहीं मानी. मेरी शादी हो गई, हर कोई खुश था…. उस लड़के के सिवा. आखिर वो खुश होता
भी तो कैसे, उसने मुझे अपनी पूरी दुनिया जो बना लिया था. गलती मेरी हीं थी, मुझे उसे पहले हीं रोक
देना चाहिए था. जब वो अपना सबकुछ मुझ पर लूटा रहा था. मुझे उसे दुःख देने का कोई हक नहीं था.
अपनी शादी के बहुत महीनों के बाद मेरी उससे मुलाकात हुई. उसने अपना हाल बेहाल कर लिया था.
ऐसा लग रहा था मानो उसमें कोई जान हीं नहीं है, हंसना तो वह भूल हीं गया अ.
उसने कहा कि वो मुझसे मिलने से पहले भी अकेला था और मेरे जाने के बाद फिर अकेला है.
वो कहता है, कि प्यार की लड़ाई तो वो हार गया है, पर प्यार की जंग जरुर जीतेगा वो.
वो कहता है कि, तुम भले मेरा साथ न दे सको, मेरा प्यार तो मेरे साथ है न.
मेरे प्यार के सहारे उसने जिंदगी में आगे बढ़ने की ठानी है. उस दिन उसने कहा कि उसका
प्यार सच्चा है, इसलिए उसका प्यार कभी उसकी कमजोरी नहीं बनेगा. मुझे अपनी गलती
का एहसास है. क्योंकि मेरा प्यार मुझे ज्यादा दुखी है, मैंने उसकी जिंदगी को बर्बाद कर दिया है.
मैं उस दीवाने के प्यार को सलाम करती हूँ, जिसके पास न मेरा तन है, न मेरा समय न मेरा
जीवन पर अब भी वो मुझसे प्यार करता है.
पर उस दिन उसने मुझसे झूठ बोला था, शायद वह बुरी तरह टूट चुका था. जबकि उसने खुद को बहुत
बहादुर दिखाने की कोशिश की थी. मुझे लगा था कि सबकुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन सबकुछ बुरा होता चला गया.
वह लोगों से दूर होता चला गया था, और लोग उससे दूर होते चले गए थे. बुरे लोगों से दोस्ती कर ली थी उसने.
वह शराब, सिगरेट और ड्रग्स का आदि हो गया था. वह बुरी तरह डिप्रेशन का शिकार हो गया था.
और अंत में एक दिन उसने आत्महत्या कर ली. ये था इस कहानी का अंत. मैं न तो जीते जी उसके साथ
रह पाई न उसके अंतिम समय में मैं उसका साथ निभा पाई. मैं हमेशा खुद को गुनाहगार रहूंगी, उस लड़के
की जिसने मुझे इतना प्यार किया, जितना कोई नहीं
कर सकता है. शायद मैं उसकी जिंदगी में नहीं आती, तो आज सबकुछ अच्छा होता.
शायद वो आज जिंदा और खुश होता.
हम उस दौर में जी रहे हैं हम जहाँ दुश्मन तो आसानी से पहचाने जाते हैं.
लेकिन सच्चे या झूठे प्यार को पहचानना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है.
Moral message of the story :
प्यार कीजिए, लेकिन सोच समझकर. अंधे प्यार का अंत हमेशा बुरा होता है.
अगर आप किसी का साथ जिंदगी भर नहीं दे सकते हैं, तो पहले हीं उसके प्रेम प्रस्ताव को न कह दें.
प्यार में अपने कदम तभी आगे बढ़ाइए, जब आप दुनिया के सामने इसे स्वीकार कर सकें.