Wednesday 30 August 2017

*उर्मिला की अग्निपरीक्षा*

वो थी तो शांत लेकिन चंचलता का समूचा सागर उसके अन्दर किसी बांध में फंसा पड़ा था। हिलोरे आतीं, पानी अपना खारापन निकाल कर बाहर फेंक देना चाहता था। हाथ जोड़ कर सूरज से विनती होती कि इस खारे जल को पी जाये ताकि मन की शांति का कुछ रास्ता मिले, लेकिन नहीं, शायद उसकी स्थिति पर किसी तरह कि दया कोई भी नहीं करना चाहता था।

अरे कर भी कौन सकता था! वो वस्तु जो खुद उसके अधीन है दूसरा कोई कैसे उसे दे सकता था। उसे भी पता था कि एक विधवा के लिए जीवन का एकमेव लक्ष्य होता है, मृत्यु की प्रतीक्षा करना, बिना किसी इच्छा-आकांक्षा के।

सब पता था उसे लेकिन उसके मन को नहीं, ना उसके शरीर को। मन था कि मानो हवा में उड़ना चाहता था, उन जीवों के पास जाना चाहता था जो समुद्र की गहराइयों में घूम रहे हैं। उसका मन दुःख और नीरसता के उस जाल को गिलहरी की तरह कुतर देना चाहता था और इससे भी कहीं ज्यादा तीव्र थीं उसकी 'शारीरिक आवश्यकताएं।'

इस बार के सावन महीने ने तो उसके शरीर को पूरी तरह अपने वश में कर लिया था। तीसों दिन उसकी हालत किसी जल-बिना-मछली की तरह रही। एक तड़प के साथ सुबह उठती, अगर रात में सो पाती तो, और उससे हज़ार गुना तड़प के साथ रात को फिर बिस्तर पर लेट जाती। बिस्तर भी उसे डराता था, वो सुकून नहीं बल्कि पीड़ा देता। कितनी ही बार तो वो जमीन पर लेटने के लिए मजबूर हो गयी तब जाकर उसे नींद का एक हिस्सा नसीब हुआ।

काश कोई जीवित निशानी रमेश ने उसके पास छोड़ दी होती तो उसी की मुस्कान के साथ वो पूरा जीवन बिता लेती, लेकिन शादी के 3 महीने शायद इसके लिए पर्याप्त नहीं हुए थे। सास घर में थी नहीं, देवर और ससुर के लिए खाना बनाना, घर की सफाई करना, मोहल्ले की आने जाने वाली औरतों के संग बैठ कर बेमन से उनकी बातें सुनना, और गैर मर्दों की नज़रों से खुद को बचाना, बस यही कुछ काम उसकी रोजाना की ज़िन्दगी का हिस्सा थे।

भाभी और देवर का नाता भी अजीब ही होता है, भरी दुनिया के सामने उंनका आपस में छेड़ छाड़ करना समाज को मंज़ूर है, सब उसे हँसते हँसते क़ुबूल कर लेते हैं, लेकिन इसी रिश्ते को बदनामी का कीचड़ सबसे आसानी से छूता है। और ये कहानी भी कोई उस युग की नहीं जब लोग 14 वर्ष तक लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को उनसे दूर रहने पर भी उन्हें पवित्र ही मानें, क्योंकि वो घर में थीं। आज तो दौर वो है जब अग्निपरीक्षा की चिता उर्मिला के लिए भी तैयार की जाती है।

आज औरत को नोंच डालने के लिए खोजती प्यासी आँखें उसके घर तक पहुच चुकी हैं।

खोखले रिश्ते बस इस काम आने लगे हैं कि उनका सहारा लेकर किसी भी तरह औरत के जिस्म तक पहुंचा जा सके। रामू पढ़ने लिखने में होशियार भले ही नहीं था लेकिन उसके नैतिक मूल्यों में भी कोई कमी नहीं थी। उम्र 20 साल लेकिन भोलापन 5 साल के बच्चे वाला। उसे पता भी नहीं था कि भाभी के साथ छत पर हँसते हुए बातें करते देखकर पड़ोस वाली विमला ताई क्या मतलब निकालेंगी। उसे क्या पता कि भाभी की साड़ी का आँचल पकड़े हुए देखते ही सरपंच चाचा क्यों मुंह बनाकर घर के सामने से जल्दी में निकल गए। भाभी को अपने हाथ से खाना खिलाना उसके लिए बदनामी पैदा कर देगा। और बाज़ार से आते हुए चूड़ियों का एक डिब्बा ले लेना भाभी की सफ़ेद साड़ी पर एक काला धब्बा लगा देगा।

अफवाहें उड़ने की प्रक्रिया से कौन वाकिफ नहीं। लगभग हर तरह की खुसुर-फुसुर कुछ इस तरह बनती है कि - छोटी सी बात ली, थोड़ा सा अपना दिमाग लगाया, कुछ घिन वाले भाव चेहरे पर लाते हुए मोहल्ले के नारद को ये कहते हुए किस्सा बता दिया कि, ‘छोड़ो, हमसे क्या, देखो कहना ना किसी से, बदनामी हो जाएगी।’

उसने भी बोला कि ‘अरे हमें क्या पड़ी है किसी को बोलने की, जानते ही हो आप तो हमको।’

और बस, अवफाह फ़ैल गयी समझो। यूं ही दो चार किस्से उस विधवा के भी तैयार किये गए। गाँव के खाली बैठे बुज़ुर्गों को समय काटने का एक साधन मिल गया, महिलाओं को गेंहू-चावल साफ़ करते हुए बातें करने की सामग्री और मनचलों को उस घर के चक्कर काटने का कारण।

कुछ दिनों बाद घर की बेटी यानी रामू और रमेश की बहन फुल्लो ससुराल से घर आई। एक तो वो स्त्री और उपर से मायके में आई थी, तो गाँव की किसी भी खबर का उससे बच कर निकल जाना असंभव था।

भाभी और देवर के बारे में उड़ती बातें भी उसने सुनी तो पिता को साथ बिठा कर सारा किस्सा समझाया। रास्ता ये निकाला गया कि उन दोनों की शादी कर दी जाए, जो कि जल्द ही कर भी दी गयी।

पति का सहारा मिलना उस विधवा के लिए ख़ुशी की बात थी लेकिन किस मुंह के साथ वो अपनी बाकी इच्छाएं रामू को बता पाती। कैसे कहती कि कल तक जो हाथ मेरे पैर छूते थे आज उन्ही हाथों से मेरे शरीर को भी छुओ.

बहुत दिनों तक ये संघर्ष, ये अग्निपरीक्षा चलती रही।

करवटें, ठण्डे पानी के घूंट, सख्त बिस्तर, पूरे ढंके कपड़े, यही सब थे जिनके हवाले वो अपनी सारी रात कर देती थी लेकिन रातों के संघर्ष दिन की लड़ाइयों से कहीं ज़्यादा कठिन होते हैं। और उसकी ज़िन्दगी में इन रातों का कोई अंत नहीं था। वो किसी आदर्श कहानी का पात्र होती तो ये कहा जा सकता था कि उसने सारी उम्र बिना किसी शिकायत के यूं ही देह की आग में जलते हुए काट दी लेकिन उसनें बिना किसी अपराध के चल रही इस अग्निपरीक्षा को ख़त्म कर देना ही उचित समझा।

एक रात उसने खुद रामू का हाथ पकड़ कर उससे अपने मन की सारी इच्छाएं साफ साफ कह दीं और खुद को उसके हवाले कर दिया।

अब फर्क नहीं पड़ता कि उसकी कहानी पढ़ने वाले उसे किस रूप में देखें लेकिन निरपराध होते हुए अगर उस ‘सीता’ ने अपनी मर्ज़ी से जलती हुई चिता से उठ कर ज़िन्दगी को गले लगाने का निर्णय लिया तो ऊपर बैठे भगवान राम उसके इस कदम को किसी भी तरह से पाप नहीं मानेंगे।          

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