Sunday 19 November 2017

*जुदाई का एक ख़त*

*जुदाई का एक ख़त*

जानां!

जानती हो ,
रोज़ सोचता हूँ एक ख़त लिखूँ तुमको, वही ख़त जो मैंने अपने इश्क़ के पहले दिन से लिखना चाहा था। लेकिन कभी लिख नहीं पाया लेकिन सोच रहा हूँ आज लिखूँ, फिर अगले ही पल सोचता हूँ कि क्या वो खत कभी पहुँचा पाऊंगा तुमको और अगर कभी तुमको मिल भी गया तो क्या तुम पढ़ोगी उसको?
क्या तुम पढ़ पाओगी या यूँ कहूँ कि महसूस कर पाओगी उनको क्योंकि शब्दों को पढ़ा नही महसूस किया जाता है। क्या तुम महसूस कर पाओगी कि कितना अकेला हो गया हूँ मैं?

अगर मेरी इस लाइन को तुमने महसूस किया होगा तो मुझे शायद ये बताना नहीं पड़ेगा कि  कितना ज़्यादा अकेला हो गया हूँ मैं। कैसे बताऊँ कि कभी-कभी बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ लेकिन पन्ने फटते हैं, कलम चलती है और कोई भी कहानी या कविता पूरी नहीं हो पाती क्योंकि शब्द तो खो गए हैं ना मेरे।

तुम जो खो गयी हो ना, जानती हो दिन बहुत उदास रहने लगे है मेरे और रात मुझे घूरती है हर रोज़ बुझने तक। बालकनी मेरी सबसे पसंदीदा जगह हो गयी है, कभी-कभी तो पूरी रात वहाँ बीत जाती है। हाँ, सच मे पूरी रात!

कभी कभी तो लैम्पपोस्ट के इन लाइटों से भी चिढ़ होती है, जी करता है कि फोड़ दूँ इनको। कभी मन करता है रोड पर चल रहे या आसपास रह रहे हर किसी से बात करूं और कभी सोचता हूँ कि इतना शांत हो जाऊं कि किसी की आवाज़ ही ना सुनाई दे, और सुनूँ तुम्हारी साथ की गयी हर बात को।

मुझे अपने आस पास की हर चीज़ महसूस होती है। नल से टिप-टिप रिसता पानी, घड़ी की टिक-टिक करती आवाज़, पंखे का शोर, अगर कुुछ नहींं सुनाई देती हैै तो तुम्हारे लौट आने की उम्मीद।

जानाँ, मैंने सच में सिर्फ तुमसे प्यार किया था सिर्फ तुमसे। तुम्हारे साथ बिताया हुआ हर एक पल एक फ़िल्म की तरह चलता रहता है आंखों के सामने, हाँ वही दो या तीन महीने ही जो तुमको बहुत कम समय लगा था और मुझे बहुत बड़ा क्योंकि उन दिनों को नहीं, मैंने तो पलों को जिया था ना। उन पलों को जिनमें तुम पास थी, साथ थी।

और भी बहुत कुछ है लिखने को जो मेरे शब्द समेट नहीं पा रहे, और कलम लिख नहीं पा रही, सो बस।

हाँ कभी कभी रो भी लेता हूँ, लड़के भी रोते हैं।
आज अकेलापन सारी सीमाएं पार कर रहा है।

सुनो ना! अगर हो सके तो लौट आओ मैं ये तो नहीं कहूंगा कि मैं दुनिया मे सबसे ज़्यादा प्यार दूंगा तुमको, लेकिन ये वादा है तुमसे कि मेरी दुनिया के सारे प्यार पर सिर्फ तुम्हारा हक़ होगा।

लौट आओ ना प्लीज़।

तुम्हारे खत के इंतज़ार में...

Thursday 16 November 2017

Ravindra Gangwar quote

होगी मुलाकात उनसे मुमकिन नहीं लगता,
गर हैं दिल पास उसका एहसास तो हो !
धड़कने यूं उलझ कर रह गयीं उनके लफ्जों में,
करते हैं वो मुझसे प्यार फिर कोई जज्बात तो हो !!

Ravindra Gangwar quote

गमगीन दुनिया है उल्फत के नजारों की
जिसे देखो यहां सब इश्क के मारे हैं
गम-ए-मोहब्बत को लिए आंखों में
अश्कों से इक नई दास्तां लिखने को तैयार बैठे हैं
जज्बातों को सीने में दफन किए हुए
निकल पड़े हैं मंजिल को अपनी
बस इक उम्मीद के साथ
जिन्दगी के किसी मोड़ पर
महबूब उनका इन्तजार कर रहा होगा
पर वो भूल बैठे हैं
अन्जान हैं जानकर भी
छोड़ कर जाने वाले वापस नहीं आते
बस आती हैं तो उनकी यादें
और फिर गुम हो जाते हैं
उन यादों के साथ
तोड़ कर नाता इस दुनिया से.....

Saturday 11 November 2017

Ravindra Gangwar quotes

#मोहब्बत #मजबूरी #जीना #फना #प्यार #इश्क़ #yqbaba #ravindragangwar Follow my writings on https://www.yourquote.in/ravindrakumar19946 #yourquote

फांसले यूं बढ़ने लगे तेरे मेरे दरमियान,
कि अब तुझको याद करने से डर लगता है !
हुए थे फना मोहब्बत में तेरी इस कदर कभी,
कि अब तो जीना भी मजबूरी लगती है !!

Thursday 9 November 2017

*पायल - एक प्रेम कहानी*

*पायल - एक प्रेम कहानी*

सर्दी हल्की दस्तक दे चुकी थी। खिड़की से आ रही ठंडी हवाओं के झोंके मन को छुए जा रहे थे। अभी मैं कॉफ़ी पीने के लिए अपने कमरे में बैठा ही था कि मेरी नज़र पास रखी अपनी डायरी पर पड़ी। ना जाने क्यों मेरा दिल उस डायरी की तरफ़ खिंचता चला गया।

हाथों में डायरी लिए धीरे-धीरे मैं उसके पन्ने पलटने लगा। कभी कोई बात बड़े चाव से पढ़ता, तो कभी कोई चीज़ पढ़कर ज़ोर से हँसने लगता। तभी अगले पन्ने के बीच एक सालों पुरानी चिट्ठी मेरे आँखों के सामने थी। उसे देख दिल एकदम ठहर-सा गया। इस चिट्ठी को देख फिर से मैं बनारस की यादों में खोने लगा और उन्हीं यादों में हँसती मुस्कुराती पायल, एकदम से मेरे दिलो-दिमाग पर छाने लगी।

पायल से मेरी पहली मुलाक़ात बनारस के घाटों पर हुई थी। उस समय मैं नया-नया बनारस आया था। बचपन से ही मुझे घूमने का बड़ा शौक था तो आते ही पहुँच गया घाट घूमने। बैकग्राउंड में बजता भजन, चेहरे को चूमती हल्की-हल्की हवा और साथ में गंगा मइया; मुझे और क्या चाहिए था। मैं घाट के सीढ़ियों पर बैठे-बैठे आनंदित हुए जा रहा था। तभी मैंने सोचा नाव पर बैठ उस पार भी जाकर थोड़ा घूम लूँ। तो बस झट से किनारे लगी नाव पर बैठ गया।

थोड़ी देर बाद जब नाव पूरी भर गयी तो चल पड़ी। आहिस्ते-आहिस्ते मन रोमांचित हुए जा रहा था। मैं इतना खुश था कि पानी को अपने हाथों से सहलाए जा रहा था। तभी मेरी नज़र सामने बैठी एक लड़की पर पड़ी। वो मुझे देख मुस्कुराए जा रही थी।

मैंने झट से पानी में से हाथ खींच लिया और इधर-उधर देखने लगा। चोर नज़रों से मैंने फिर से उस लड़की को देखा, देखने में तो इतनी सुन्दर थी कि एक बार में ही देखकर प्यार हो जाए, पर कम्बख़्त, अभी भी वो मुझे देख बेपरवाह मुस्कुराए जा रही थी।

मुझे कुछ शक़ हुआ। मैंने अपनी तिरछी नजरों से खुद को टटोला। तभी मैंने पाया कि मेरी पैंट की ज़िप खुली हुई थी। मैं एकदम शर्म से लाल हो गया, फ़ौरन ही किसी तरह नज़र बचाकर उसे बंद किया। कम्बख़्त, आज बीच पानी में मेरी इज़्ज़त पानी-पानी हो चुकी थी। उस लड़की पर गुस्सा भी आ रहा था, साथ ही ना जाने क्यों उसकी मुस्कराहट दिल को पसंद भी आ गई थी। नाव उस किनारे लगते ही मैं उतरकर घूमने लगा। तभी किसी ने पीछे से आवाज दी 'सुनो!' मैंने मुड़कर देखा तो वही लड़की थी।

उसने बिना कुछ और बोले झट से 'सॉरी' बोल दिया।

"कोई बात नहीं, कम्बख़्त, आजकल हर चीज मेरी खुली ही रह रही है," मैंने अपनी शर्ट के बटन बंद करते हुए कहा।

वो खिलखिला पड़ी और बोली "फिर भी, मुझे हँसना नहीं चाहिए था।"

तभी मैं फटाक से बोल पड़ा "इसी बहाने आप मुस्कुराई तो, और आप मुस्कुराते हुए अच्छी लगती हो।"

वो कुछ देर तक एकटक मुझे देखने लगी। मैंने पूछा, "क्या हुआ?" वो कुछ नहीं बोली, पर उसके होंठों पर हल्की मुस्कुराहट फैल गई।

लौटते समय थोड़ा अंधेरा हो चुका था। नाव पर सिर्फ़ चार लोग थे; एक नवविवाहित जोड़ा और हम दोनों। वो मेरे ही बगल में आकर बैठ गई। नाव धीरे-धीरे चल पड़ी। कुछ देर बाद नाव थोड़ी हिचकोले खाने लगी। मैं अभी कुछ समझ पाता कि उसने मेरे हाथों को पकड़ लिया। उन नर्म हाथों के स्पर्श ने मेरे रोम-रोम को रोमांचित-सा कर दिया। मैं उसकी तरफ देखने लगा, वो अभी भी मुस्कुरा रही थी। मैंने बड़े प्यार से कहा "तुम मुस्कुरा क्यों रही हो? कहीं फिर से कुछ खुला रह गया क्या?" वो खिलखिला कर हँसने लगी, बोली "नहीं, बस यूं ही। तुमने ही बोला था ना कि मैं मुस्कुराते हुए अच्छी लगती हूँ," इतना कहकर उसने अपना सिर मेरे कंधों पर रख दिया।

मैं इस नए एहसास में खोता जा रहा था। दिल में नए जज़्बात करवट ले रहे थे। धड़कनें पहली बार सीने में शोर मचा रहीं थी। समझ नहीं पा रहा था कि ये हक़ीक़त है या कोई ख़ूबसूरत सपना। परन्तु जो भी था, वो पल कल्पना से परे था।

हवाएँ उसकी ज़ुल्फ़ों से अठखेलियाँ कर रही थी और मैं बस उनमें खोता जा रहा था। तभी नाविक की "उतर जा, भैया" की आवाज़ ने मुझे डरा-सा दिया। हम दोनों नाव से उतरकर घाट की सीढ़ियों से गुज़रते हुए ऊपर जा पहुँचे।

अभी भी उसका हाथ मेरे हाथों में ही था। तभी उसने कहा "चलो! रबड़ी खाते हैं। उस दुकान पर यहाँ की सबसे अच्छी रबड़ी मिलती है," मैंने भी हामी भर दी। खाते-खाते हम दोनों अपनी बातें साझा करने लगे। उसका नाम 'पायल' था। बिल्कुल अपने नाम की तरह वो जहाँ से गुज़रती, खुशियों की आहट आसपास गूँज पड़ती।

पूछने पर बताया कि वो यहीं की थी। घर बनारस ही था। वो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी और बाक़ी समय में सिलाई और घर के कामों में माँ के साथ हाथ बँटाती थी। आज रविवार था, इसलिए फ़ुरसत में घूमने चली आई थी। कुछ देर और बात करने के बाद उसने कहा "अच्छा! चलती हूँ। माँ देर से घर पहुँचने पर गुस्सा करेगी।"

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए पूछा "फिर कब मिलेंगे?"

वो बिना कुछ बोले जाने लगी। आगे कुछ दूर बढ़कर उसने मुड़कर मुस्कुराते हुए कहा "अगले रविवार को, यहीं पर। और हाँ! अगली बार कुछ खुला नहीं रहना चाहिए," ये सुनकर मैं ज़ोर से हँस पड़ा।

अब हर रविवार का मैं बेसब्री से इंतज़ार करने लगा। उस दिन हम वहीं घाट पर मिलते, नाव में घूमते, रबड़ी खाते, और कभी-कभी पान भी। उसे पान खाते देख, मेरी हँसी मानो रुकती ही नहीं। पान मुँह में भरे जब बात करती तो और प्यारी लगती।

मैं पूछता "तुम्हारी माँ कुछ बोलती नहीं, पान खाने को लेकर?" तो बोलती "बनारस में रहकर पान से बैर? ना बाबा ना!"

वो हरदम पूछती "कितना प्यार करते हो हमसे?" और हर बार मैं बिना कुछ बोले उसे अपनी बाँहों में ज़ोर से भर लेता, फिर वो चुप हो जाती। कुछ देर बाद वो अपने घर लौट जाती और मैं अपने रूम। उसके साथ बिताए उन तीन घंटों को याद कर मैं हर दिन ख़ुश रहा करता था।

उसके साथ कब एक साल गुजर गया, पता तक ना चला। कुछ दिनों में मैं घर जाने वाला था। कॉलेज में दो महीने की छुट्टी होने वाली थी। एक साल बाद मेरी पढ़ाई भी पूरी होने वाली थी, और शायद नौकरी भी पक्की थी। इसलिए मैंने अपने और पायल के प्यार को शादी के बंधन में बाँधने का ठान लिया था। सोमवार की सुबह ही मेरी ट्रेन थी, तो मैंने सोचा इस रविवार जब वो आएगी, तब दिल की हर बात उससे बोल दूँगा।

रविवार आते ही मैं वहाँ पहुँच गया। आज घर जाने के पहले उसे जी भर के देखना चाहता था। बाँहों में भर बेइंतेहा मोहब्बत करना चाहता था। घाट पर से जो भी लड़की गुजरती, उनमें मैं उसे ही तलाश करता। पर वो आज कहीं दिख नहीं रही थी। शाम धीरे-धीरे ढल गई, पर वो नहीं आई। हल्की रोशनी में घाट किनारे बैठ सोचता रहा, आख़िर वो आज क्यों नहीं आई? मन में कई सवाल दस्तक दे रहे थे। पर फिर मैंने सोचा दो महीने की तो बात है, आकर भी तो बोल सकता हूँ। यही सोचकर मैं वहाँ से निकल पड़ा।

अगले दिन सुबह मैं ट्रेन पकड़ वापस घर के लिए निकल पड़ा। घर जाकर अच्छा लग रहा था, पर पायल की कमी भी बहुत महसूस हो रही थी। जैसे ही मेरा कॉलेज खुला, मैं फ़ौरन बनारस पहुँच गया।

रविवार के दिन फिर से मैं वहीं उसका इंतजार कर रहा था। पर आज भी वो नहीं आई। तभी मुझे याद आया, घर जाने से पहले एकबार जब मैंने अपने रूम का पता उसे दिया था, उसी दिन उसने भी अपने घर का पता दिया था। बोली थी "जब रविवार के बाद भी मन ना भरे तो आ जाना, दिख जाऊँगी इस गली के नीले मकान में, फिर बताना कितना प्यार करते हो हमसे?"

मैं पर्स से वो पता निकाल कर दौड़ पड़ा। पता नहीं क्यों आज उसे देखने की बेसब्री बढ़ चुकी थी। मैं बैचेन-सा दौड़े जा रहा था। साँसे फूल रहीं थी पर कदम रोके नहीं रुक रहे थे। मैं जैसे ही उस गली में पहुँचा, मुझे कुछ अटपटा-सा लगा। हर घर के बाहर अधनंगे कपड़ों में कुछ औरतें और कुछ लड़कियाँ बैठी हुई थी। इशारों से मुझे बुलाने की कोशिश कर रही थी।

मैं एकदम परेशान-सा हो गया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी वो नीला मकान मुझे दिखा। मैं फ़ौरन उसकी तरफ़ दौड़ पड़ा। नीले मकान के पास बैठी एक अधेड़ उम्र की औरत से जब मैंने पायल के बारे में पूछा तो उसने कहा "पायल से लेकर यहाँ सपना, स्वीटी, झुमकी सब मिलेगी। तू बता, पैसा कितना है तेरे पास, चिकने? उस हिसाब से मैं तय करती हूँ," मेरे पाँव तले जमीन खिसक चुकी थी।
मैं वहाँ से पागलों की तरह भागा। भागते-भागते मैं सोचे जा रहा था, कहीं ये बुरा सपना तो नहीं है। आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। रूम पर पहुँचते ही मैं दरवाज़ा बंद कर बदहवास-सा लेट गया। तभी दरवाज़े से सटे कोने में धूल से लिपटी हुई एक चिट्ठी दिखी। शायद मेरे जाने के बाद दरवाज़े के नीचे से किसी ने डालकर छोड़ दिया था। मैं फ़ौरन उसे झाड़कर खोलने लगा, तारीख़ देखी तो लगभग दो महीने पुरानी थी। चिट्ठी खोलते ही मुझे पायल का नाम दिखा, मैं दिल में मचे इस तूफ़ान के साथ उस चिट्ठी को पढ़ने लगा,

"राहुल,

जब मैं तुमसे पहली बार मिली, तब ही मैं तुम्हें बताना चाहती थी कि मैं कौन हूँ। पर कभी सच नहीं बता पाई। अपनी ज़ुबां से तुम्हें ये सब बताने की हिम्मत नहीं हुई कभी। इसलिए मैंने अपने घर का पता तुम्हें दिया था। शायद अब तक तुम्हें मेरा सच मालूम भी हो चुका होगा। पर पता है जब तुमने हमारी पहली मुलाकात के दिन मुझसे कहा कि मैं मुस्कुराते हुए अच्छी लगती हूँ, तब पहली बार लगा कि जैसे किसी ने मेरी ख़ूबसूरती की तारीफ़ की है। नहीं तो लोग बस मेरे जिस्म की तरफ़ हवस की नज़रों से ही देखते थे।

पहली बार मुझे ख़ुद के ख़ूबसूरत होने का एहसास हुआ था। पहली बार किसी की आँखों में अपने लिए इज़्ज़त और प्यार दिखा। जब भी तुमसे मिलती, मैं ये भूल-सी जाती थी कि मैं एक वेश्या हूँ, जो चंद रुपयों के लिए अपने जिस्म को किसी भी ग़ैर मर्द के हाथों में सौंप देती है।

करती भी क्या? बाबूजी बचपन में ही चल बसे थे और पिछले तीन सालों से मेरी माँ अस्पताल में भर्ती थीं। रोज़ इतना पैसा मैं कहाँ से लाती? ऊपर से दो बहनों की पढ़ाई का खर्चा कहाँ से जुटाती?

अपने जिस्म की कुर्बानी देने के सिवा मेरे पास और कोई चारा नहीं था। पर इस रविवार मेरी माँ चल बसी। मैं अपनी बहनों को लेकर अब इलाहाबाद जा रही हूँ। वहीं रहकर इनकी परवरिश करूँगी। मुझे ढूँढने की कोशिश मत करना। तुमसे इतने दिनों तक झूठ बोलने के बाद मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।

तुम्हारे साथ बिताए वो हर रविवार के तीन घंटे मैं ज़िंदग़ी भर भूल नहीं पाऊँगी। तुम्हारा वो सच्चा प्यार मुझे ज़िंदग़ी भर याद रहेगा। तुमसे बिछड़ने का ग़म तुमसे ज़्यादा मुझे हो रहा है। पर अपने इतने बड़े सच को तुमसे छिपाकर अपनी नज़रों में ही मैं गिर चुकी हूँ। मैं भी दिल से लाचार हो चुकी थी। तुमसे बेहद प्यार करने लगी थी मैं। जब भी मैं तुमसे पूछती "कितना प्यार करते हो हमसे?" तो तुम अपनी बाँहों में मुझे भर लेते।

सच कहूँ तो मैं हर दिन सोचती कि आज अपनी सच्चाई तुम्हें बता दूँगी, पर उन बाँहों के घेरे को मैं खोना भी नहीं चाहती थी। कहीं तुम मेरा सच जान मुझे छोड़ ना दो, इसी वजह से अपनी सच्चाई छिपाती रही। अब हिम्मत नहीं है तुम्हारे सामने आने की। तुम हमेशा खुश रहो, मैं भगवान से दुआ करूँगी।

मुझे भूल जाना। मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं हूँ।

और अपना ख़्याल रखना,

तुम्हारी,
'पायल'

ख़त पढ़ते-पढ़ते आँसुओं से मैं भीग चुका था। उसे याद कर रोए जा रहा था। इस कड़वे सच को मैं हज़म नहीं कर पाया था। पर अभी भी मेरे दिल में उसके लिए वही इज़्ज़त थी। मैं उसे अब भी पागलों की तरह चाहता था।

कुछ दिन बाद मैं इलाहाबाद भी गया, पर बिना उसके आशियाने का पता जाने उसे कैसे ढूँढ़ता। लाख कोशिशों के बाद भी वो नहीं मिली। भारी दिल और नम आँखों के साथ मैं बनारस लौट आया। अब घाट भी जाना लगभग बंद ही कर दिया। जब भी रविवार आता, एक उदासी मुझे घेर लेती। उसके साथ बिताए पलों को याद कर कभी रात की ख़ामोशी में मुस्कुराते-मुस्कुराते रो पड़ता।

और आज फिर से इस ख़त को पढ़ मैं रोए जा रहा हूँ। चलो! अब ये डायरी भी बंद कर देता हूँ और ये ख़त भी। अपने टूटे दिल के टुकड़ों को समेट अब सो जाता हूँ। आज रविवार है, वो आती ही होगी। अब उससे मुलाक़ात हमारी सपने में ही होती है। हम रबड़ी भी खाते हैं और पान भी। दिल चाहता है ताउम्र इसी नींद में रहूँ। उसका साथ छोड़ने का दिल नहीं करता। पर सपने शायद टूटने के लिए ही बने होते हैं, सपनों में ज़्यादा देर ठहरा नहीं जाता।

'गुड नाईट'

~

Saturday 4 November 2017

"इक ख्याल"

#hindi #hindipoetry #yqbaba #yqdidi #yqtales #ravindragangwar #love #lovequotes Follow my writings on https://www.yourquote.in/ravindrakumar19946 #yourquote

"इक ख्याल"

फिर आज सुबह यूं ही,
दिल में इक ख्याल सा आया।
किस्मत में नहीं था जो,
क्यों दिल उसी पर हर बार आया।।
रोता रहा हूं मैं फिर,
उसकी बेरूखी जानकर।
जब पता चला कि उसका,
दिलदार है वापस आया।।

वक्त की मार से यूं,
सिमट सी गई है ज़िन्दगी।
हो गई है मोहब्बत से,
क्यों इस कदर दुश्मनी।।
जीता रहा था अब तक,
जिस को मैं अपना जानकर।
वो अमानत था किसी और की,
फिर क्यों उस पर एतबार आया।।

क्यों उससे मिलकर जिन्दगी,
लग रही थी इतनी हसीन।
क्यों जगायी दिल में मोहब्बत,
वो हसीना नाज़नीन।।
थक गया हूं मैं अब,
उसको याद कर- कर।
कभी जो थी मेरी जिंदगी,
फिर आज उसे मैं छोड़ आया।।

    (Ravindra Gangwar)

Wednesday 1 November 2017

इश्क

हर लफ्ज लिख रहा हूं उसकी चाहत में!
और उसको खबर भी नहीं!!

मेरे साथ तो हैं उसकी यादें!
पर वो मेरा हमसफर नहीं!!

दीवाना हुआ हूं इश्क में उनके इस कदर!
और वो कहते हैं मैं तुम्हारा नहीं!!

अब तो तन्हा यूं ही गुजरती हैं रातें!
तेरे सिवा कोई और दिल को गंवारा नहीं!!

मोहब्बत

लिखते रहते हैं अक्सर सुख़नवर सभी,
चाँद, तारे, सूरज और आसमाँ पर रुबाईयाँ,
गीत, शेर-ओ-शायरी, नज़्में कभी।

मैं देखूँ तो मुझे,
खूं-ओ-गोश्त का बना,
ये इंसां भी ख़ूब लगता है।

और ख़ूब लगता है मुझे ये ज़माना,
जहाँ इंसान मोहब्बत की ख़ातिर
ख़्यालों के अनगढ़े पहाड़ चढ़ता है।

मगर, मैं ना लिखूँ जो तुम्हारे वास्ते
चाँद-तारों की सी आकर्षक उपमायें,
मेरे प्यार को झूठा ही कह दोगी क्या?

मेरी कल्पनाओं के हृदय में बसने वाली तुम,
मेरी कल्पनाओं के बिना भी
मेरे साथ रह लोगी क्या?

ना हो जो मेरे पास
तुम्हें देने को कोई अलंकार,
मेरी वास्तविकता की कड़वाहट सह लोगी क्या?

या फिर मुझे छोड़ जाओगी,
जैसे हर सुबह चाँद-तारे
छोड़ जाया करते हैं मुझे?

जैसे हर शाम,
सूरज उदास हो
ढल जाया करता है?

जैसे आसमान कभी-कभी
ज़ार-ज़ार हो,
आँसू बहाया करता है?

क्या तुम भी यूँ ही नाख़ुश रहोगी?
क्या तुम्हें भी शब्द चाहिये मेरे?
या मेरी ख़ामोशी की झंकार सुनोगी?

जिन्हें मैं शब्दों में ढाल ना सका,
क्या तुम वो अलंकार सुनोगी?