Wednesday 1 November 2017

मोहब्बत

लिखते रहते हैं अक्सर सुख़नवर सभी,
चाँद, तारे, सूरज और आसमाँ पर रुबाईयाँ,
गीत, शेर-ओ-शायरी, नज़्में कभी।

मैं देखूँ तो मुझे,
खूं-ओ-गोश्त का बना,
ये इंसां भी ख़ूब लगता है।

और ख़ूब लगता है मुझे ये ज़माना,
जहाँ इंसान मोहब्बत की ख़ातिर
ख़्यालों के अनगढ़े पहाड़ चढ़ता है।

मगर, मैं ना लिखूँ जो तुम्हारे वास्ते
चाँद-तारों की सी आकर्षक उपमायें,
मेरे प्यार को झूठा ही कह दोगी क्या?

मेरी कल्पनाओं के हृदय में बसने वाली तुम,
मेरी कल्पनाओं के बिना भी
मेरे साथ रह लोगी क्या?

ना हो जो मेरे पास
तुम्हें देने को कोई अलंकार,
मेरी वास्तविकता की कड़वाहट सह लोगी क्या?

या फिर मुझे छोड़ जाओगी,
जैसे हर सुबह चाँद-तारे
छोड़ जाया करते हैं मुझे?

जैसे हर शाम,
सूरज उदास हो
ढल जाया करता है?

जैसे आसमान कभी-कभी
ज़ार-ज़ार हो,
आँसू बहाया करता है?

क्या तुम भी यूँ ही नाख़ुश रहोगी?
क्या तुम्हें भी शब्द चाहिये मेरे?
या मेरी ख़ामोशी की झंकार सुनोगी?

जिन्हें मैं शब्दों में ढाल ना सका,
क्या तुम वो अलंकार सुनोगी?

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