Tuesday 31 October 2017

Ravindra Gangwar quote

सुना है अब भी वो मुझको याद करते हैं!
जो कभी हमारे होना नहीं चाहते!!

ना जाने क्यों इक उलझन सी है उनमें!
बिना मेरे वो भी कहां चैन पाते!!

इक आवाज़ दबी सी है उनकी इस खामोशी में!
जिससे वो भी अब मुस्करा नहीं पाते!!

कहीं ना कहीं उनको भी गम है मुझसे दूर होने का!
जिसके बिना अब हम भी जी नहीं पाते!!
    

Ravindra Gangwar quote

मेंरे हर इक लफ्ज में तुम बसे हो!
कभी तो तुमको भी मेरा ख्याल आया होगा!!

कागज़ की कश्ती

वो अक्सर मुझे खुदसे दूर रहने की हिदायत देती है, कहती है कि हम दोनों का कोई मेल नहीं है।

"मैं तेज़ बारिश हूँ और तुम कागज़, पास आओगे तो गल जाओगे।" वो मुझसे कहती है।

"कोई कागज़ का मामूली टुकड़ा नहीं, कागज़ की कश्ती हूँ मैं, तुम्हारे बिना मेरा कोई अस्तित्व है क्या? माना गलना ही है मुकद्दर मेरा, पर गलने से पहले कुछ देर साथ तो चल ही सकते हैं ना। अगर कागज़ की कश्ती बारिशों में गलने के डर से कभी पानी में ना उतरती तो उसके होने का कोई मतलब नहीं रहता, वो भी बाकि कागज़ों की तरह किसी रद्दी के ढेर में दफ़्न हो जाती या फिर अंत में किसी कूड़ेदान की भेंट चढ़ जाती। अब तुम ही बताओ, सालों किसी रद्दी के ढेर में सड़ते रहना अच्छा है या कुछ पल के लिए बारिश के पानी में उतरकर अपना सफ़र पूरा करना और मंज़िल आने पर शान से गलना। और गलने के बाद उसी पानी में समा जाना?
मैं रद्दी बनकर अपना जीवन नहीं काटना चाहता, तुम मुझे शान से गलने का मौका दोगी ना?" मैं उससे पूछता हूँ।

इतना सुनने के बाद मुझे उसकी आँखों का तूफ़ान शांत होता दिखता है। वो तेज़ बारिश है, इस तथ्य को मैं नकार नहीं सकता, पर आज उसकी आँखों में मुझे एक ठहराव नज़र आ रहा है। एक मद्धम ठहराव जो झील सा स्थिर नहीं है पर अब उनमें आँधी-तूफानों का वेग भी नहीं है। ठीक वैसा ही मद्धम बहाव है जैसा बारिशों के वक़्त होता है, पानी का वो मद्धम बहाव जिसमें अक्सर कागज़ की कश्तियाँ तैरती हैं।

Monday 23 October 2017

*गुलाबी पेन्सिल : भाग-5*

**वो पहली मुलाकात**

ख़ुदा-ख़ुदा करके शाम हुई। घड़ी आज से पहले इतनी स्लो कभी ना थी। सच कहूँ तो आइंस्टीन की 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' आज जाकर समझ आई थी।

मैं 7:45 पर कार उसके घर के पास पार्क करके, उसका इंतज़ार कर रहा था। ज़िन्दगी में पहली बार वक़्त से पहले पहुँचा था। ये मेरी पहली क़ुरबानी थी। अभी तो आगे ना जाने क्या होने वाला था?

ठीक 8 बजे, उसे मैसेज किया।

"ख़ादिम हाज़िर है आपकी ख़िदमत में, मल्लिका-ए-हुस्न को कितना वक़्त लगेगा दीवान-ए-ख़ास से दीवान-ए-आम तक तशरीफ़ लाने में?"

जवाब आया, "बस, 5 मिनट।"

और अगले 50 मिनट तक, हर 5 मिनट बाद मैं यही पूछता रहा कि कितना टाइम, और वो यही जवाब देती रही, "बस, 5 मिनट!"

फिर आख़िरकार मेरा इंतज़ार रंग लाया और उसकी एक ही झलक ने मेरे इंतज़ार के दर्द को हवा कर दिया।

रेड तो नहीं पर ब्लैक ड्रेस पहनी थी उसने। मैंने दिल थाम कर उसे सर से पाँव तलक निहारा।

सरापा नूर, काले लिबास में ऐसा लग रहा था जैसे कोयले की खान से हीरा निकल आया हो।

आँखों में काजल, सिंपल सा मेकअप, जूड़े में लगी पेंसिल और तो और पैरों में भी पेंसिल हील।
ड्रेस थोड़ी रिवीलिंग थी। वैसे तो मैं बड़े मॉडर्न ख़्यालों वाला हूँ पर मुझे हल्का-सा गुस्सा आया। मैं नहीं चाहता था कि उसे इस रूप में मेरे सिवा कोई और देखे। मन किया उठा के ले जाऊँ कहीं दूर उसे, ज़माने की निगाह भी ना पड़ने दूँ। मैं इन्हीं ख़्यालों में उलझा रहा और वो चलती-चलती कार के बहुत करीब आ गई। एकदम से मुझे एहसास हुआ, जल्दी से कार से निकला और फ्रंट डोर उसके लिए खोला।

"अरे, इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी," वो गाड़ी में बैठते हुए मुस्कुराकर बोली।

शायद उसने ये उम्मीद नहीं की थी, पर मैं जानता था कि लड़कियों को ये सब अच्छा लगता है। जब आप किसी के दिल मे उतरना चाहो तो माइनर डीटेल्स का भी ख़ास ख़्याल रखना पड़ता है।

"आज तुम बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो," मैंने ड्राइव करते हुए, बिना उसकी तरफ़ देखे, मुस्कुराते हुए कहा।

उसने भी मुस्कुराते हुए सवाल किया, "मैं तुमको कब ख़ूबसूरत नहीं लगती वैसे?"

"अब तुम मुझको हर दिन पहले से ज़्यादा ख़ूबसूरत लगती हो तो क्या कहूँ? शायद पतंजलि के प्रोडक्ट्स का कमाल है," मैंने उसे चिढ़ाते हुए कहा क्योंकि मैं जानता था कि 'बाबा रामदेव' से चिढ़ थी उसे।

"चुपचाप ड्राइविंग पर कंसन्ट्रेट करो वर्ना कूद जाऊँगी चलती गाड़ी से," उसने चिढ़कर जवाब दिया।

तो मैंने हँसते हुए कहा, "कूदना मत, वैसे ही यू.पी.की सड़कों में गड्ढे हैं, तुम कूदोगी तो खाई बन जाएगी।"

"एक्सक्यूज़ मी! मैं इतनी मोटी हूँ?" पहले से ज़्यादा चिढ़ गई इस बार वो। मुझे लगा ज़्यादा टाँग खींचना भी सही नहीं, कहीं सच में नाराज़ ना हो जाए।

मैंने बात बदलते हुए कहा, "तुमको पता है कि अभी तुम्हें देखकर मैंने एक शेर लिख दिया?"

"सच में? सुनाओ मुझे," वो चहककर बोली।

"इस लिबास में निखार लेकर आया है तेरा रूप कुछ इस तरह, निकलती है घनी बारिश के बाद धूप जिस तरह।"

शेर सुनकर उसके गाल हया से लाल हो गए। मुस्कुराते हुए बोली, "शुक्रिया! तुम्हारा यही हुनर तुमको ख़ास बनाता है।"

मैं जानता था कि शेर में दम नहीं था, पर जिसके लिए शेर कहो उसे पसंद आ जाए, और क्या चाहिए।

दिन की तेज़ गर्मी की बाद अब मौसम सुहाना हो चला था। शायद, कहीं आस-पास बारिश हो रही थी। उसने कार का ए.सी. बंद करके ग्लासेस नीचे कर दिए। हल्की-हल्की बूंदाबांदी के साथ ठंडी हवा चल रही थी और वो मौसम को एन्जॉय करती हुई कोई गाना गुनगुना रही थी। मुझे समझ तो नहीं आ रहा था, शायद कोई फोक सॉन्ग था हिमाचली में, पर सुनने में अच्छा लग रहा था।

****

एक घंटे की ड्राइव के बाद हम रेस्टोरेंट पहुँच गए। भीड़भाड़ से हटकर, शहर से दूर ये रेस्टोरेंट एक बंगले के अंदर था। चारों तरफ़ हरियाली थी। ये बंगला शायद किसी अंग्रेज़ के लिए बना होगा।

इसका मालिक ख़ुद एक आर्ट लवर था। वो ये रेस्टोरेंट शौक़ के लिए चलाता था। वर्ना कोई कैपिटलिस्ट होता तो कब के यहाँ मॉल और फ्लैट बन गए होते। मैंने कॉर्नर टेबल पहले ही बुक कर दी थी, वहाँ खिड़की से यमुना का किनारा दिखता था और दूर कहीं जाती गाड़ियों की लंबी लाइन, जिनकी सिर्फ़ हेडलाइट्स नज़र आ रही थी।

अंदर मद्धम-सी रोशनी थी। हल्की आवाज़ में 70's और 80's के गानों का म्यूजिक बज रहा था। टेबल और चेयर्स को एंटीक लुक दिया गया था। होटल की थीम किसी राजमहल जैसी थी। दीवारों पर पेंटिंग्स लगी थीं, आस-पास की हरियाली और होटल का वेंटिलेशन कुछ ऐसा था कि ए.सी. की ज़रूरत नहीं थी।

शिखा हर एक चीज़ को बहुत गहरी नज़र से देख रही थी, उसकी आँखों में बच्चों जैसी चमक थी, जैसे हर एक चीज़ को ख़ुद में समा लेना चाहती हो।

वो वहाँ के मंज़र में डूबी थी और मैं उसमें। मैंने आज तक उसे इस तरह से नहीं देखा था कभी, ऐसा लग रहा था कि ये पल बस यहीं थम जाए और मैं ताउम्र उसे देखता रहूँ बस।

जब हम अपनी टेबल पर पहुँचे तो वो मुझसे बोली, "एक्सीलेंट चॉइस साहिल, आई मस्ट से, आई एम इम्प्रेस्ड एंड आई नेवर न्यू दैट अ प्लेस लाइक दैट माइट एग्ज़िस्ट इन देल्ही एन.सी.आर.।"

"ख़ास लोगों के लिए, ख़ास जगह ढूँढनी पड़ती है, अभी तो ये इब्तिदा है, आगे-आगे देखिये होता है क्या," मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

बारिश शुरू हो गई थी और बूंदों की आवाज़ और खिड़की से आती नरम-ठंडी हवा के झोंके किसी हसीन ख़्वाब का एहसास दे रहे थे।

खाना उम्मीद के मुताबिक एकदम लज़ीज़ था। मैं यहाँ 5 साल बाद आया था, पर हर चीज़ में आज भी वैसा ही जादू था।

खाने खाते वक़्त, बातों का सिलसिला ऐसा चला कि जब घड़ी पर नज़र गई तो साढ़े बारह बज चुके थे।

"शायद, अब चलना चाहिए हमको।"

"मैं नहीं जा रही वापस। तुम जाओ, मुझे यहीं अच्छा लग रहा है," मेरे इसरार पर वो बच्चों-सी ज़िद करती हुई बोली। मैं मुस्कुरा कर चुप हो गया।

वो मुझे देखकर हँसते हुए बोली, "तुम बहुत क्यूट हो, चलो चलते हैं अब।"

चलो, दिवाली मनाते हैं |

आज अपने ग्रुप के सबसे शांत रहने वाले दोस्त को फ़ोन मिलाते हैं। अपने ग्रुप के जोकर को भी दिवाली वाले जोक्स मार-मार के हँसाते हैं। चलो, आज अपने सारे दोस्तों को अपने घर बुला के लाते हैं।

आज अपनी उस दोस्त के घर होके आते हैं, जिसका अभी पिछले महीने ही ब्रेक-अप हुआ है। उन दोस्तों के घर, उनसे मिल के आते हैं जो त्योहारों के मौसम आते ही अपने घरों के कोनों में दुबक के छिप जाते हैं। चलो, आज हर इंपोर्टेंट इंसान को उसकी इंपोर्टेंन्स का एहसास करवाते हैं।

आज अपने फ्रेंड-एनेमी को भी दिवाली के मौके पर गले से लगा के, अपना दोस्त बना के आते हैं। हाथी-घोड़े वाली मिठाई खा के, हम दुनिया भर की सारी कड़वाहटें भूल जाते हैं। चलो, रसगुल्लों की मिठास हम अपने अपनों के दिलों में भी घोल आते हैं।

आज अपने उन बूढ़े पड़ोसियों के यहाँ जाते हैं, जो अक्सर त्योहारों के दिनों में अकेले ही त्योहार मनाते रह जाते हैं। बग़ल वाली पम्मी आँटी को भी डिनर पे बुलाते हैं। शर्मा अंकल, जिनसे पापा की लड़ाई है, चलो आज, उनका दरवाज़ा खटखटा के, उनको भी विश करके आते हैं।

आज सच ही में थोड़ा अँधेरा मिटाते हैं। किसी रोते हुए चेहरे की मुस्कुराहट बन जाते हैं। आज डिप्रेशन, एंग्ज़ायटी, लोनलिनेस नाम के राक्षसों का पुतला जलाते हैं। चलो, आज दिवाली मनाते हैं।

आज किसी के गमों को मिटाने की ख़ातिर, किसी के आँसुओं के बह जाने के लिए एक हमदर्द का कंधा बन जाते हैं। किसी की तन्हाईयों के हम आज हमसफ़र बन जाते हैं। आज सच ही में थोड़ा अँधेरा अपनी ज़िन्दगियों से भी मिटाते हैं।

चलो, आज हम सब एक साथ मिल के दिवाली मनाते हैं।

*गुलाबी पेंसिल पार्ट -4*

"कर गए वादा वो ख्वाबों में मिलने का मुझसे,
बस इसी खुशी में नींद ना आई तमाम रात।"

शनिवार शाम को मिलना था पर कमबख़्त जुम्मे की रात आँखों ही आँखों में कट गई। सुबह 7 बजे उसका व्हाट्सएप्प आया।

"गुड़ मॉर्निंग साहिल।"

"गुड़ मोर्निंग सनशाइन," मैंने जल्दी से जवाब दिया। छुट्टी के दिन उसका सात बजे उठ जाना, ये इशारा था कि आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई थी। तभी उसका कॉल आ गया। उसकी आवाज़ में एक अजब सा नशा था। "क्या साहिल साहब, लगता है नींद नहीं आई?"

मेरे दिल के किसी कोने से आवाज़ आयी, "जुनूं नहीं मुझे कि मैं जागूं तमाम रात,
पर तेरा खयाल जगाए तो क्या करूँ?"

पर मैंने ये बात उससे कही नहीं, क्योंकि ज़्यादा प्यार और बेचैनी दिखाना नए रिश्ते की सेहत के लिए हानिकारक होता है। मैंने ऐसे ही बहाना बनाते हुए कहा "अरे रूममेट को जॉगिंग का नया नया शोक चढ़ा है, तो उसी का डोर खोलने उठा था।"

"तुम कबसे जॉगिंग स्टार्ट करोगे मोटू," उसने चहकते हुए पूछा।

"एक्सक्यूज़ मी मोहतरमा! फ़ॉर योर काइंड इन्फॉर्मेशन मेरा बॉडी मास इंडेक्स 23 है और मोटों की कैटेगरी 25 से स्टार्ट होती है। और इससे कम करके भी क्या करूँगा? औरों के लिए भी तो थोड़ा स्कोप छोड़ दूँ, वरना सब की सब मेरी ही दीवानी हो गयीं तो बाकी लड़कों का क्या होगा?"

मेरे जवाब पर वो हँसते हुए बोली, "इंजीनियर साहब हर बात पर टेक्निकेलिटि में मत घुस जाया करो," उसकी हँसी ऐसी थी जैसे मंदिर में घंटियाँ बज रही हो।

"चलो सी यू एट 8 पीएम शार्प और लेट मत करना वरना जो भी मिला 8 बजे उसके साथ चली जाऊँगी मैं। बाय फ़ॉर नाउ।" ये कहते हुए उसने फ़ोन रख दिया।
वो मेरी लेट लतीफी वाली आदत को जानती थी। मैं ऑफिस भी अक्सर लेट पहुँचता था। वो एचआर डिपार्टमेंट में थी। लेट कमिंग्स और सैलरी डिडक्शन्स वही देखती थी। और मेरी यही बुरी आदत शुरू में उससे मिलने का सबक बनी, कई बार उसने मुझे वार्न करने को बुलाया था। पर उसके वार्न पर मेरा चार्म भारी पड़ गया। नौकरी जाते जाते छोकरी झोली में आ गयी।

**

"भाई आज शाम के लिए अपनी कार दे दे प्लीज।" मैंने ऑलमोस्ट गिड़गिड़ाते हुए रूममेट से कहा।
"अबे तुझे गाड़ी क्यों चाहिए बे? तू डीटीसी में पास बनवा कर धक्के खाने वाला आदमी, तुझे कार का क्या काम आ गया? पूरे वीकेंड तो तू घर में पड़ा किताबों और लैपटॉप में घुसा रहता है," रूममेट ने हैरानी से पूछा।

फिर एक सेकंड रुक कर बोला, "गर्लफ्रैंड भी नहीं....एक मिनट..डेट पर जा रहा है भाई?"
मैंने कुछ कहा नहीं, बस मुस्कुरा दिया।

मेरी मुस्कुराहट को मेरी हाँ जानकर वो बड़े जोश में बोला, "भाई तू ये ले चाबी, आज तूने दिल खुश कर दिया। नहीं तो मुझे लगा था कि तेरी शादी की बिरयानी खाने की तमन्ना दिल में ही लिए तेरा यार दुनिया से रुखसत हो जाएगा। अच्छा ये बता क्या करती है भाभी हमारी?"

"अरे भाई पहली बार मिल रहा हूँ डिनर पर नॉर्मली, ऑफिस में साथ है और तू इतने ख़्वाब मत पाल अभी से," मैंने हँसते हुए कहा।

"भाई ये लड़की कुछ ख़ास होगी वैसे, तुझे 5 साल से जनता हूँ, पहली बार किसी लड़की के साथ डेट पर जा रहा है तू। वर्ना मुझे तो कई मर्तबा शक़ होता था तुझ पर,  इसीलिए रात को अपना डोर लॉक करके सोता था," उसकी बात पर मैं खिलखिला कर हँस पड़ा, डोर लॉक वाला कुछ ज़्यादा ही हो गया था।

ये दोस्त भी अजब किस्म के प्राणी होते हैं। तुमसे ज़्यादा एक्ससितमेंट तो इनको होती है। मैं वैसे तो बस में सफ़र करना ही पसंद करता था। ओला/ऊबर का ख्याल भी आया था दिल में पर अपनी कार हो तो बेहतर रहता है। मैंने उसकी गाड़ी कभी नहीं मांगी थी पर आज कुछ खास दिन था मेरे लिए। और इस बात का अहसास उसे भी था, तभी मान गया वर्ना आप उसकी किडनी बेचकर आईफ़ोन खरीद लो चाहे ख़ुशी ख़ुशी दे देगा, पर कार को हाथ भी ना लगाने दे किसी को।

"भाई पर एक बात का ख्याल रखना, परसों ही सर्विस कराई है, सीट्स भीगें ना बस, बरसात का मौसम है," दोस्त कार की चाबी देते हुआ बोला।

मैं बस अब बेसब्री से शाम का इंतज़ार करने लगा।

Monday 16 October 2017

मिठास

"एक दिन मैं तुम्हें छोड़कर चली जाऊँगी, तब ढूँढ़ते रहना मुझे दुनिया भर में," इसी कुर्सी पर बैठकर उसने ये कहा था और मैंने उसकी बात को हर बार की तरह गीदड़भभकी समझ के हवा में उड़ा दिया था।

"मैं अब से तुमसे बोलना ही छोड़ दूंगी," बेडरूम से झाँकता खाली बिस्तर लगातार उसकी यही बात दोहरा रहा था।

"मैं तुम्हारे लिए जो करती हूँ उसकी तुम्हें ज़रा भी कद्र नहीं है। एक दिन कोई नहीं होगा जो तुम्हारा ध्यान रखे," सिंक में पड़े गंदे बर्तन, बाथरूम में बिखरे हुए मैले कपड़े, फर्श पर बिछी धूल की चादर और मेरा तपता माथा रह रह कर मुझे उसके इन्हीं उलहनों की याद दिला रहा था।

"तुम मुझे इतना परेशान करोगे तो मैं सब कुछ छोड़ दूँगी। नौकरी भी, घर भी और ये दुनिया भी," घर का खुला दरवाज़ा उसकी नामौजूदगी की गवाही दे रहा था।

"अब बस मैं और नहीं रोना चाहती," इसी आईने में देखते हुए उसने कहा था।

उसने बार-बार कहा था। वो रोई थी, यहाँ तक कि गिड़गिड़ा भी गई थी कई बार मेरे सामने। पर मुझे हमेशा ही ये सब औरतों वाले नाटक लगते थे। काश! मैंने उसके दर्द को अपना समझा होता। दर्द ना समझता, उसे ही समझने की कोशिश की होती।

आज वो चली गई। मैं अकेला इस घर में खुद को कोसते हुए बैठा हूँ। जानता था कि वो कभी भी मुझसे दूर जा सकती है पर कभी मानना नहीं चाहा था। शायद उसके प्यार पर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही भरोसा था, इसी लिए जब-तब उसे लताड़ता रहा।

अपना हक़ जो समझता था उस पर। लेकिन भूल गया था कि हक़ के साथ ज़िम्मेदारी भी आती है और उससे भी ज़्यादा ज़रूरत होती है आपसी समझ की। उसे शायद मुझसे एक समझ भरे स्पर्श की ही दरकार थी।

आज देखो, मैं अकेला हूँ। और कोई दिन होता तो शायद मैं जश्न मना रहा होता उसके ना होने का, लेकिन आज, आज ही के दिन तो हम पहली बार मिले थे। सफ़ेद सलवार-क़मीज़ में वो आसमान से उतरी किसी परी से कम नहीं लग रही थी। सिर्फ मैं ही नहीं वो भी मुझ पर पहली ही नज़र में फ़िदा हो गई थी। कई दिनों बाद मोबाइल के ज़माने में भी चिट्ठी लिखकर उसने मुझे ये बताया था।
चिठ्ठी! शायद वो मेरे लिए कोई आखिरी चिट्ठी छोड़ कर गई हो।

दराज़?
सब की सब खाली।
रसोई के कैबिनेट?
यहाँ भी कुछ नहीं है।
मायूस होकर डाइनिंग टेबल पर आ बैठा हूँ। अरे, ये फलों की टोकरी के पास क्या है?
रिपोर्ट?

मैं पिता बनने वाला हूँ!

सारी ख़ुशी एक ही पल में काफ़ूर हो गई। इस हालत में जाने कहाँ होगी वो? कहीं ख़ुद के साथ कुछ ग़लत तो...नहीं, नहीं...ऐसा नहीं हो सकता। मैं उसको ढूँढ कर निकालूँगा।

अभी मैं घर से बाहर क़दम रखने ही वाला था कि वो कस के मेरे सीने से आ लिपटी।

"ओ, आरव! आज मैं बहुत-बहुत ख़ुश हूँ। तुमने...तुमने रिपोर्ट पढ़ ली?" उसकी नज़र मेरे हाथों में पकड़े कागज़ पर से होते हुए मेरे चेहरे तक आ पहुँची जो अब आँसुओं में भीगा था।

"अरे! ये क्या? तुम रो क्यों रहे हो? ये तो ख़ुशी की बात है, पगले।" उसने मेरे आँसू पोंछकर मुझे फिर से गले लगाते हुए कहा।

मैं कुछ नहीं कह पाया। बस ज़ोर से उसे अपनी बाँहों में भींच लिया। मेरे दिलोदिमाग में पिछले पंद्रह मिनट घूम रहे थे जो मैंने उससे बिछड़ने के डर के साये में बिताए थे। अब मैं उसे कहीं नहीं जाने दूँगा।

"लो, मिठाई खाओ।" उसने मेरे सामने बरफ़ी का डिब्बा खोलते हुए कहा। आज भी वो अपनी नहीं मेरी पसंद की मिठाई लाई थी।

"तुम कहाँ गई थी, रिया?" मैं ख़ुद को पूछने से रोक नहीं पाया।

"अरे! इतनी अच्छी ख़बर बग़ैर तुम्हारी पसंदीदा मिठाई के कैसे सुनाती! यही लेने गई थी।" उसने खिलखिलाते हुए कहा।

वो क्या जानती थी कि मेरे जीवन में मिठास तो एक सिर्फ उसके होने से ही है। वो नहीं हो तो सब खारा।

Tuesday 10 October 2017

चढ़ गए हम भी सूली पर

"ये भी पसंद नहीं आया। ना जाने कितने नाटक हैं इस लड़की के। अरे बूढ़ी हो जाएगी तब करेगी क्या शादी? कोई पसंद हो तो वो बता दे पर नहीं इन्हें तो माँ-बाप को परेशान करके ही सुख मिलता है," हमारी बस एक ‘ना’ ने प्रवचनों की झड़ी लगा दी। ये तो अब हर रोज़ की बात हो गई थी।

दरअसल, हम हैं एक मिडिल-क्लास हिन्दुस्तानी लड़की, जिसकी अब उम्र हो गई है शादी की। आजकल के हर यंगस्टर की तरह हम भी चाहते हैं लाइफ़ को थोड़ा और एन्जॉय करना। अब हमारे पेरेंट्स को कौन समझाए ये बात, वो तो हर रोज़ बस एक नया रिश्ता ले आते हैं। आज जो लड़का दिखाया वो खाता-कमाता तो सही था लेकिन हमें उसकी सूरत पसंद नहीं आई।

असल बात बताएँ? हमारे सिर पर सवार है लव मैरिज का भूत। हालाँकि घरवालों की तरफ़ से कोई परेशानी नहीं है। वो तो आगे बढ़-बढ़कर पूछते हैं, "बता दे कोई हो तो, कर दें शादी; छुटकारा मिले।"

अब उन्हें कौन समझाए कि लव मैरिज के लिए कोई होना भी तो चाहिए। हम हैं कि हमें कोई मिलता ही नहीं। जीवन के इस मोड़ पर ‘अक्षय कुमार’ की कही एक बात अक्सर याद आ जाती है, "जो हमें चाहिए उसे कोई और चाहिए और जिसे हम चाहिए, वो किसे चाहिए?"

कभी-कभी ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी का सार छुपा है फिल्मों में।

हमने सोचा क्यों ना घरवालों के लिए जो खुन्नस थी उसे जिम में पसीने के साथ बहा दिया जाए। क्या पता इसी बहाने हम कुछ आकर्षक हो जाएँ और हमारे प्रिंस चार्मिंग की नज़र हम पर पड़ जाए। संयोग ही था कि जिम में वर्जिश करते हुए हमारा सपनों का राजकुमार हमारे सामने आ खड़ा हुआ। उसके कसरती बदन को हम निहार ही रहे थे कि यहाँ भी माँ का फ़ोन आ गया। घर जल्दी आने का ऑर्डर दे डाला। किसी लड़के से मिलने जाना था। माँ से तने बैठे हम आज तो इस ‘सलमान’ के फैन से बात किए बिना घर जाने वाले नहीं थे।

"एक्सक्यूज़ मी!" हमारे बोलने पर उसने जो लुक दिया, भगवान का शुक्र था कि हमारी दिल की धड़कनें क़ाबू हो गईं। वर्ना पहले ही दिन उन्हें हमें बाँहों में उठा कर अस्पताल ले जाना पड़ता। शुरुआती झटके से उभरते ही हमने पूछा, "क्या आप यहाँ इंस्ट्रक्टर हैं?"

उन्होंने शर्मा कर जवाब दिया, "नहीं-नहीं! मैंने तो अभी दो महीने पहले ही जॉइन किया है।"

उनके अंदाज़ से लग रहा था कि वो भी हम में दिलचस्पी ले रहे हैं और ये पहली दफ़ा नहीं जब वो हमें देख रहे हैं। छुप-छुपकर ताकने का सिलसिला यहाँ से भी चालू था।

ख़ैर, इंट्रोडक्शन के बाद जैसे ही हम बात आगे बढ़ाने वाले थे, कि माँ का फिर से फ़ोन आ गया। अपनी क़िस्मत को कोसते हुए फ़टाफ़ट जिम से बाहर आ गए।

जाने किससे मिलवाने वाले थे आज घरवाले। माँ के कहे मुताबिक़ तैयार तो हो गए पर किसी भी ऊल-जलूल इंसान से मिलने का हमारा बिल्कुल भी मूड नहीं था। जाना तो था ही, सो पहुँच गए रेस्ट्रॉन्ट में।

अब जाने कौन-सी मिल्कियत का मालिक था, आधे घण्टे से ऊपर हो गया, अभी तक जनाब ने दर्शन नहीं दिए थे। उसके इंतज़ार में हम चार कप चाय पी चुके थे। तभी सामने से सूट-बूट में चश्मा लगाए एक नौजवान हमारी टेबल की तरफ़ बढ़ने लगा। हम आँखें बंद करके भगवान से प्रार्थना करने लगे कि ये वो लड़का ना हो। यक़ीन मानिए इतनी शिद्दत से फ़रियाद हमने दसवीं बोर्ड के रिज़ल्ट के वक़्त भी नहीं की होगी। अब मामला ज़िन्दगी और मौत का था भाई!

जब वो शख़्स हमारे बग़ल वाले टेबल पर बैठा तो इतनी राहत मिली जितनी कभी मेट्रो में सीट मिलने पर भी नहीं मिली होगी। तभी हमें कंधे पर एक थपथपाहट महसूस हुई।

"श्रुति?" किसी ने पीछे से कहा।

हमने पीछे मुड़कर देखा और हम हामी में सिर हिलाने से ज़्यादा और कुछ ना कर पाए। ऐसा लगा जैसे हमारे सपनों का जहां हमारे सामने खड़ा हो। जिम में देखा वो बांका नौजवान हमारे रूबरू था।

"अरे! आप यहाँ?" एक पल के लिए तो हमें लगा कि वो हमारा पीछा करते हुए यहाँ तक आए हैं पर फिर दिमाग़ ने हमें असलियत का एहसास कराया कि हम कोई हूर की परी नहीं जो कोई इस तरह हमारे पीछे आए।

"हाँ, मैं! आप ही से मिलने आया हूँ पर आपकी नज़रें तो कहीं और ही भाग रही हैं," उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा।

"हम तो यहाँ अपनी शादी के लिए लड़का देखने आए थे," हम अपनी सफाई देने ही लगे थे कि वो शरारत भरी आँखों से झाँकतेे हुए बोले, "जानता हूँ।"

अब आगे क्या हुआ आपको क्या बताएँ। तीन महीने बीत चुके हैं इस बात को। दो दिन बाद हमारी शादी है। उस दिन जिसने कंधा थपथपाया था वो अब हमारे होने वाले पतिदेव हैं। उन्हें देखते ही हमारी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। सूट-बूट में उनका कसरती बदन और भी कहर ढा रहा था। हम तो उन पर पहले से ही फ़िदा थे, उन्होंने बताया कि हम भी उन्हें तस्वीर और बायो-डेटा देखते ही पसन्द आ गए थे। और तो और उन्होंने जिम भी हमसे जान-पहचान करने के लिए ही जॉइन किया था, लेकिन हम तो अपनी ही दुनिया मे खोए रहते थे। ख़ैर, जो हुआ अच्छे के लिए ही हुआ। सबसे बड़ी बात ये थी उनका नेचर भी वैसा ही था जैसा हमें चाहिए था। खुले विचार, फ्रेंडली अंदाज़, उम्दा सोच, उनकी इन सब बातों ने हमें उनका और क़ायल कर दिया था।

हमारा लव मैरिज करने का सपना दो दिन बाद पूरा होने वाला था। बस एक बात हमें आज तक खलती है। क्या ये सच में लव मैरिज है? हमें तो अरेंज्ड ज़्यादा लग रही है। उन्हें हमारे पेरेंट्स ने ही तो अरेंज किया था उन्हें हमारी लाईफ़ में। ख़ैर, हमें क्या! लव तो हमें हो ही गया था उनसे, अब मैरिज करने में भी कोई हर्ज़ नहीं था।

तो बस, चढ़ गए हम भी सूली पर।