Tuesday 31 October 2017

कागज़ की कश्ती

वो अक्सर मुझे खुदसे दूर रहने की हिदायत देती है, कहती है कि हम दोनों का कोई मेल नहीं है।

"मैं तेज़ बारिश हूँ और तुम कागज़, पास आओगे तो गल जाओगे।" वो मुझसे कहती है।

"कोई कागज़ का मामूली टुकड़ा नहीं, कागज़ की कश्ती हूँ मैं, तुम्हारे बिना मेरा कोई अस्तित्व है क्या? माना गलना ही है मुकद्दर मेरा, पर गलने से पहले कुछ देर साथ तो चल ही सकते हैं ना। अगर कागज़ की कश्ती बारिशों में गलने के डर से कभी पानी में ना उतरती तो उसके होने का कोई मतलब नहीं रहता, वो भी बाकि कागज़ों की तरह किसी रद्दी के ढेर में दफ़्न हो जाती या फिर अंत में किसी कूड़ेदान की भेंट चढ़ जाती। अब तुम ही बताओ, सालों किसी रद्दी के ढेर में सड़ते रहना अच्छा है या कुछ पल के लिए बारिश के पानी में उतरकर अपना सफ़र पूरा करना और मंज़िल आने पर शान से गलना। और गलने के बाद उसी पानी में समा जाना?
मैं रद्दी बनकर अपना जीवन नहीं काटना चाहता, तुम मुझे शान से गलने का मौका दोगी ना?" मैं उससे पूछता हूँ।

इतना सुनने के बाद मुझे उसकी आँखों का तूफ़ान शांत होता दिखता है। वो तेज़ बारिश है, इस तथ्य को मैं नकार नहीं सकता, पर आज उसकी आँखों में मुझे एक ठहराव नज़र आ रहा है। एक मद्धम ठहराव जो झील सा स्थिर नहीं है पर अब उनमें आँधी-तूफानों का वेग भी नहीं है। ठीक वैसा ही मद्धम बहाव है जैसा बारिशों के वक़्त होता है, पानी का वो मद्धम बहाव जिसमें अक्सर कागज़ की कश्तियाँ तैरती हैं।

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