Monday 30 April 2018

ठुकराओ अब कि प्यार करो मैं नशे में हूँ - शाहिद कबीर

ठुकराओ अब कि प्यार करो मैं नशे में हूँ

जो चाहो मेरे यार करो मैं नशे में हूँ

अब भी दिला रहा हूँ यक़ीन-ए-वफ़ा मगर

मेरा न ए'तिबार करो मैं नशे में हूँ

अब तुम को इख़्तियार है ऐ अहल-ए-कारवाँ

जो राह इख़्तियार करो मैं नशे में हूँ

गिरने दो तुम मुझे मिरा साग़र संभाल लो

इतना तो मेरे यार करो मैं नशे में हूँ

अपनी जिसे नहीं उसे 'शाहिद' की क्या ख़बर

तुम उस का इंतिज़ार करो मैं नशे में हूँ

Saturday 28 April 2018

वही फिर मुझे याद आने लगे हैं - ख़ुमार बाराबंकवी

वही फिर मुझे याद आने लगे हैं

जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं

वो हैं पास और याद आने लगे हैं

मोहब्बत के होश अब ठिकाने लगे हैं

सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं

तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं

हटाए थे जो राह से दोस्तों की

वो पत्थर मिरे घर में आने लगे हैं

ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को

ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं

हवाएँ चलीं और न मौजें ही उट्ठीं

अब ऐसे भी तूफ़ान आने लगे हैं

क़यामत यक़ीनन क़रीब आ गई है

'ख़ुमार' अब तो मस्जिद में जाने लगे हैं

पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं - गुलज़ार

पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं

शाम से तेज़ हवा चलने के आसार से हैं

नाख़ुदा देख रहा है कि मैं गिर्दाब में हूँ

और जो पुल पे खड़े लोग हैं अख़बार से हैं

चढ़ते सैलाब में साहिल ने तो मुँह ढाँप लिया

लोग पानी का कफ़न लेने को तय्यार से हैं

कल तवारीख़ में दफ़नाए गए थे जो लोग

उन के साए अभी दरवाज़ों पे बेदार से हैं

वक़्त के तीर तो सीने पे सँभाले हम ने

और जो नील पड़े हैं तिरी गुफ़्तार से हैं

रूह से छीले हुए जिस्म जहाँ बिकते हैं

हम को भी बेच दे हम भी उसी बाज़ार से हैं

जब से वो अहल-ए-सियासत में हुए हैं शामिल

कुछ अदू के हैं तो कुछ मेरे तरफ़-दार से हैं

Wednesday 25 April 2018

कर्ब चेहरों पे सजाते हुए मर जाते हैं - मालिकज़ादा जावेद

कर्ब चेहरों पे सजाते हुए मर जाते हैं

हम वतन छोड़ के जाते हुए मर जाते हैं

ज़िंदगी एक कहानी के सिवा कुछ भी नहीं

लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं

उम्र-भर जिन को मयस्सर नहीं होती मंज़िल

ख़ाक राहों में उड़ाते हुए मर जाते हैं

कुछ परिंदे हैं जो सूखे हुए दरियाओं से

इल्म की प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं

ज़िंदा रहते हैं कई लोग मुसाफ़िर की तरह

जो सफ़र में कहीं जाते हुए मर जाते हैं

उन का पैग़ाम मिला करता है ग़ैरों से मुझे

वो मिरे पास ख़ुद आते हुए मर जाते हैं

जिन को अपनों से तवज्जोह नहीं मिलती 'जावेद'

हाथ ग़ैरों से मिलाते हुए मर जाते हैं

Tuesday 24 April 2018

तन्हा दिल की दीवारों पर - अंजु गुप्ता

 तन्हा दिल की दीवारों पर
कुछ परछाइयां मंडराती हैं !
कभी छेड़ें दिल के तारों को,
कभी एकाँकी कर जाती हैं ! !

कभी पंख लगा के हसरतें,
अल्हड़पन में पहुंच जाती हैं !
खुशियों भरी प्यारी राहें,
फिर वापिस मुझे बुलाती हैं ! !

कुछ अनुत्तरित बातें जीवन की
अस्तित्व मेरी झुठलाती हैं !
आँखों की नमी ओढ़ मुस्कुराहट,
फिर बेचैनी मेरी छुपातीं हैं ! !

क्यों दिल की दीवारों पर
कुछ परछाइयां मंडराती हैं !
क्यों छेड़ें दिल के तारों को,
क्यों एकाँकी कर जाती हैं ! !

अंजु गुप्ता

वक्त का वक्त क्या है पता कीजिए - कुमार अरविन्द

 गजल : कुमार अरविन्द

वक्त का वक्त क्या है पता कीजिए |
बाखुदा हूं ‘ खुदा बाखुदा कीजिए |

दर्दे – दिल आज मेरे मुखालिब रहे |
सुखनवर से उन्हें ‘ आशना कीजिए |

चांद तक की अदा कुछ सँवर जायेगी |
अश्क आंखों से गर आबशा कीजिए |

कल्बे – रहबर इनायत बनी गर रहे |
चंद – लम्हों में फिर राब्ता कीजिए |

मशवरा ये हुकूमत तुम्हीं से लेगी |
नौजवानों खड़ा ‘ काफिला कीजिए |

जब वरक लफ्ज तेरे आगोश मे हैं |
दर्दे दिल लिख के ही रतजगा कीजिए |

मुझको अरविन्द हर सू नजर आते हैं |
मोजिज़ा ही सही मोजिज़ा कीजिए |

बाखुदा – खुदा के लिए , मुख़ालिब – आमने सामने , सुखनवर – शायर , आशना – परिचय , आबशा/आबशार – झरना , कल्बे रहबर – पथप्रदर्शक की पहले , राब्ता – मुलाकात , वरक – पन्ना , मोजिज़ा – चमत्कार

दिल में नफरत थी मुहब्बत ही सजा ली हमने - कुमार अरविन्द

 रोग जाता ही नहीं कितनी दवा ली हमने
माँ के क़दमों में झुके और दुआ ली हमने
इस ज़माने ने सताया भी बहुत है मुझको
आग ये सीने की अश्कों से बुझा ली हमने
जब नजर आई नहीं ख्वाब में माँ की सूरत
अपनी आंखों से हर इक नींद हटा ली हमनें
देखने तो आज सभी आये तमाशा मेरा
जब से दीवार घरों में ही उठा ली हमने
तेरी चाहत में हुआ है हाल दिवानों जैसा
अपनी पगड़ी ही सरे आम उछाली हमनें
हर तरफ ही यूं नजर आने लगी उल्फ़त जब
दिल में नफरत थी मुहब्बत ही सजा ली हमने
खत्म हो जाये न ये दौर मुलाकातों का
ज़िंदगी बस तेरे वादे पे बिता दी हमने
माँ के क़दमों में ये सारा ही जहां दिखता है
बस तेरी याद में हस्ती भी मिटा ली हमने
खौफ था मुझको चरागों से ही घर जलने का
आग ‘अरविन्द’ घरों में ही लगा ली हमने

— कुमार अरविन्द

बातें ही बातें हैं...भगवती प्रसाद व्यास 'नीरद'

चाहत मेरी पहचानता नहीं ,
दिल की बातें वह जानता नहीं !!

फूलों की माला है चुनी बुनी ,
बांध चुके गांठें मानता नहीं !!

आंखों में नींदों की खता कहां ,
आस चढ़ी सूली जानता नहीं !!

अलकें हैं काली सी घटा यहां ,
भीगें हम दोनों मानता नही !!

बातें ही बातें हैं अदा कभी ,
सब कुछ पायेगा मानता नहीं !!

अपनों ने अकसर दी सज़ा यहां ,
गैरों के दिल की जानता नहीं !!

खुशबू को बांधा है यदा कदा ,
वक़्त ठहर जाये ठानता नहीं !!

हमने तो बुन डाले सपन कई ,
पल ने जो ठानी मानता नहीं !!

दुनिया में मतवाला दिखे वही ,
सूरत दूजी पहचानता नहीं !!

Monday 23 April 2018

धुआँ बना के फ़ज़ा में उड़ा दिया मुझ को - नज़ीर बाक़री

धुआँ बना के फ़ज़ा में उड़ा दिया मुझ को

मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझ को

तरक़्क़ियों का फ़साना सुना दिया मुझ को

अभी हँसा भी न था और रुला दिया मुझ को

मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था

हवा ने थम के ज़मीं पर गिरा दिया मुझ को

सफ़ेद संग की चादर लपेट कर मुझ पर

फ़सील-ए-शहर पे किस ने सजा दिया मुझ को

खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को

न जाने कौन सा जज़्बा था जिस ने ख़ुद ही 'नज़ीर'

मिरी ही ज़ात का दुश्मन बना दिया मुझ को

हिज्र के काँच चुभे है हाथ की लकीरों में...सुरिंदर कौर


हिज्र के काँच चुभे है हाथ की लकीरों में।
इशक ने बैठा दिया ला कर हमे फकीरों में

ख़ता तो इतनी बड़ी नही, मेरी सैय्याद मेरे।
जकड़ के क्यू रखा है फिर मुझे जंजीरों मे।

ढूँढने से तो सुना है ,खुदा भी मिल जाता है,
लेकिन क्या पता,क्या लिखा है तकदीरों मे।

मेरी हस्ती पे ,गर तेरा करम बना रहे मालिक,
निकाल लूँगी मै राह ,लड़ कर तदबीरों से।

जीना है, तो जिंदगी में करम कर तू ऐ बंदे,
वक्त न ज़ाया कर ,सुनने को तहरीरों में।

सुरिंदर कौर
 

गज़ल - भरत मल्होत्रा


बुरा औरों का जो करता नहीं है
शर्म से उसका सर झुकता नहीं है
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कभी भी आज़मा लो जब जी चाहे
सच्चा आदमी डरता नहीं है
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दुनिया भर की दौलत मिल भी जाए
पेट लालच का पर भरता नहीं है
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नहीं बन पाएगा कुंदन कभी वो
जो अपनी आग में जलता नहीं है
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कहते हैं पते की बात लेकिन
बुज़ुर्गों की कोई सुनता नहीं है
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वफा रखो तुम अपनी पास अपने
ये सिक्का अब यहां चलता नही है
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।

Sunday 22 April 2018

“लिख दूँ” - आदित्य पाण्डेय

कलम ख़ामोश है
सोचता हूँ कि लिख दूँ
फ़िर सोचता हूँ कि आख़िर क्या लिख दूँ??

खौफ के दौर में चीखते मासूमों की कहानी लिख दूँ
मज़हबी आड़ में ज़ुर्म-ए-शय से होती हैरानी लिख दूँ
जब अदालतें इंसाफ नहीं, दौलत के लिए खुलती हैं
अस्मतें, घर के बंद दरवाजों, मन्दिरों में लुटती हैं
इन बदलती फिज़ाओं से दिखती इंसानियत की नाकामी लिख दूँ
कलम ख़ामोश है तो सोचता हूँ कि लिख दूँ
फ़िर सोचता हूँ कि आख़िर क्या लिख दूँ

जाति, मज़हब में बंटे मुल्क, फैलती नफ़रत
फ़ना होने को खड़ी कायनात की रवानी लिख दूँ
सियासत के ऊँचे पायदान पर,
ख़ामोश खड़ी है खाकी
चोर, लुटेरों, अमन परस्तों के बदन पर सजी है खादी
दौर-ए- दुश्वारियों से जूझते जिस्मों में फ़िर भी लहू है बाकी
ग़रीब की कमाई से लुटते खजाने की, नाकाम निगरानी लिख दूँ
या लिखूँ फ़िर की बेरोजगारी से बदहाल जवानी लिख दूँ
सच कहूँ..
तो लेखनी ख़फा, लफ्ज़ जुदा जुदा है
कलम एक अर्शे से बस ख़ामोश है
तो सोचता हूँ कि लिख दूँ
फ़िर सोचता हूँ कि
आख़िर क्या
लिख दूँ..

आदित्य पाण्डेय...

ये एक बात समझने में रात हो गई है - तहज़ीब हाफ़ी

ये एक बात समझने में रात हो गई है

मैं उस से जीत गया हूँ कि मात हो गई है

मैं अब के साल परिंदों का दिन मनाऊँगा

मिरी क़रीब के जंगल से बात हो गई है

बिछड़ के तुझ से न ख़ुश रह सकूँगा सोचा था

तिरी जुदाई ही वज्ह-ए-नशात हो गई है

बदन में एक तरफ़ दिन तुलूअ' मैं ने किया

बदन के दूसरे हिस्से में रात हो गई है

मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर

ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है

रहेगा याद मदीने से वापसी का सफ़र

मैं नज़्म लिखने लगा था कि ना'त हो गई है

न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे - मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे

ख़ुद अपने बाग़ को फूलों से डर लगे है मुझे

अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में

कहीं हो जलता मकाँ अपना घर लगे है मुझे

मैं एक जाम हूँ किस किस के होंट तक पहुँचूँ

ग़ज़ब की प्यास लिए हर बशर लगे है मुझे

तराश लेता हूँ उस से भी आईने 'मंज़ूर'

किसी के हाथ का पत्थर अगर लगे है मुझे

Saturday 21 April 2018

अरमान - रामनरेश त्रिपाठी

है शौक यही, अरमान यही
हम कुछ करके दिखलाएँगे,
मरने वाली दुनिया में हम
अमरों में नाम लिखाएँगे।
जो लोग गरीब भिखारी हैं
जिन पर न किसी की छाया है,
हम उनको गले लगाएँगे
हम उनको सुखी बनाएँगे।
जो लोग अँधेरे घर में हैं
अपनी ही नहीं नजर में हैं,
हम उनके कोने कोने में
उद्यम का दीप जलाएँगे।
जो लोग हारकर बैठे हैं
उम्मीद मारकर बैठे हैं,
हम उनके बुझे दिमागों में
फिर से उत्साह जगाएँगे।
रोको मत, आगे बढ़ने दो
आजादी के दीवाने हैं,
हम मातृभूमि की सेवा में
अपना सर्वस्व लगाएँगे।
हम उन वीरों के बच्चे हैं
जो धुन के पक्के-सच्चे थे,
हम उनका मान बढायेंगे
हम जग में नाम कमाएँगे।
- रामनरेश त्रिपाठी

ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ - मोहसिन नक़वी

ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ

मैं आवाज़ों के बन मैं घिर गया हूँ

मिरे घर का दरीचा पूछता है

मैं सारा दिन कहाँ फिरता रहा हूँ

मुझे मेरे सिवा सब लोग समझें

मैं अपने आप से कम बोलता हूँ

सितारों से हसद की इंतिहा है

मैं क़ब्रों पर चराग़ाँ कर रहा हूँ

सँभल कर अब हवाओं से उलझना

मैं तुझ से पेश-तर बुझने लगा हूँ

मिरी क़ुर्बत से क्यूँ ख़ाइफ़ है दुनिया

समुंदर हूँ मैं ख़ुद में गूँजता हूँ

मुझे कब तक समेटेगा वो 'मोहसिन'

मैं अंदर से बहुत टूटा हुआ हूँ

Friday 20 April 2018

दिल था कि फिर बहल गया, जाँ थी कि फिर संभल गई!

-त्रिभुवन ||
वह लंदन से पत्र लिख रहा था।
प्रसून भाई, कॉमनवेल्थ हेड्स ऑफ़ गवर्नमेंट मीटिंग (चोगम) सम्मेलन का इस तरह फ़ायदा उठवाने के लिए तुम्हें अपने हृदय तल से कितना साधुवाद दूं! मेरे पास शब्द नहीं हैं। मेरे यार तुमने तो कमाल कर दिया। साला मैं तो कच्ची कैरियों को आम बताकर बेचने में उस्ताद था, तुमने तो यार गुठलियां की गुठलियां ही अल्फ़ांज़ो बताकर टिका दीं! मान गए गुरू!
प्रसून, तुम्हारी वो एक कविता है ना….शर्म आ रही है ना! यार इस वक़्त मुझे बहुत याद आ रही है। लेकिन शीर्षक के बाद ऐसा लगता है कि यह कविता इसी पंक्ति पर ख़त्म हो जानी चाहिए। तुमने वेस्टमिंस्टर के सेंट्रल हॉल से जिस तरह लंदन में बैठे लाेगों के माथे पर तिलक लगवाया और उनके दिमाग़ों का जिस तरह मुरब्बा बनाया, वह कमाल की अदा थी। आैर ये तुम जानते ही हो कि ये सब वे प्रवासी थे, जो अंगरेज़ के वापस चले जाने के बाद हिन्दुस्तान में अपनी रूह को ग़मज़दा देखकर उनके पीछे-पीछे चले गए थे।
मुझे इस वक़्त वो पाकिस्तानी (हां-हां, वह घटिया मुल्क़, जैसा कि तुमने एक सवाल पूछकर साबित भी किया कि हमने कैसे सर्जिकल स्ट्राइक करके क़ीमा बना दिया) शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का शेर याद आ रहा है : शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई! सच में उस्ताद, पैसा तो लगा, लेकिन मज़ा आ गया। ये जो आरिफ़ा-वारिफा, उन्नाव-वुन्नाव, नोटबंदी-ओटबंदी जैसे वाहियात से मामलों के कारण विपक्ष वाले जो हालात ख़राब कर रहे थे ना, उनसे कुछ सांस मिल गई।
सच कहता हूं, कई दिन से साला दिमाग का दही हो रहा था तुमने जैसे बज़्म-ए-ख़याल में हुस्न की शमां सी जला दी। क़माल हो या क़माल। फ़िल्मी गीतकारों के इतिहास में आज तक जो कुछ ग़ुलज़ार और जावेद अख़्तर जैसे लोग सोच भी नहीं पाए, तुमने तो उससे आगे भी नए जहां तलाश लिये। सच में मैकेन एरिकसन ने तुम्हारी प्रतिभा को ठीक ही पहचाना।
प्रसून यार, अपनी तबियत प्रसन्न हो गई। दर्द जितना भी था, चांद बनकर चमक उठा। वो हिज़्र की रातों की सी बेचैनी को तुमने धो-पौंछ दिया। मैं लंदन में सुबह उठा तो हृदय गदगद हो गया। अप्रैल की ये सुहानी सुबह मचल-मचलकर महक-महक कर मुझे बांहों में भर रही थी। तुमने तो मेरे यार सारे हालात ही बदल दिए। आज तो एक नई सुबह थी और नई सबा थी।
वो क़मीना पत्रकार तो इसे ‘अवेक इन लंदन, अनअवेयर इन इंडिया’ नाम देकर मज़ाक उड़ा रहा था, लेकिन तूने प्रसून सारे पैसे वसूल करवा दिए। मैं इतना खुश हूं कि बयान नहीं कर सकता। क्या-क्या बुलवा दिया तुमने मुझसे। मेरी सरकार की ख़ूब आलोचना की जानी चाहिए। आख़िर हम लोकतंत्र में रहते हैं। मैं भी आप जैसा ही आदमी हूं और मुझ में भी वही कमियां हो सकती हैं, जो आप में हैं। क्या रे यार। तूने तो परेश रावल को भी पीछे छोड़ दिया। क्या खूब तो प्लाॅट, क़माल स्टोरी, म्युजिक और शानदार स्क्रीनप्ले! ग़ज़ब बंदे हो यार। कहां तो शेख़ साहब के इक़राम में आज तक जो शय हराम थी, उसी को तुमने राहते-जां बना डाला। तुमने यार जो पब्लिक रिलेशंस की टर्म को जर्नलिज्म और पॉलिटक्स के जिस हॉट डॉग में बदला है ना, वह सच में संजीव कपूर जैसे लोग भी कुछ नहीं कर सकते। हां, इससे याद आया, तुम अब पब्लिक रिलेशंस और पाेएट्री का कोई फ्यूजन करके सैफ्रॉन चिल्ली रेस्टॉरेंट भी चला सकते हो!
प्रसून, तुमने किस तरह सबको एक साथ कैसे-कैसे साधा। मैं तो मन ही मन हंस-हंसकर लोटपाेट हो रहा था कि तुमने एक गुजराती को चूसी हुई गुठली दी और वह आंखों में आंसू भरकर उसे केसर आम समझकर ले गया। और वह तो और भी कमाल था। वो कर्नाटक वाला तो गुठली को तोतापुरी समझकर ही चूसता-चूसता सम्मेलन से बाहर निकला। ये आम की गुठलियों का इतना शानदार प्रयोग तुमने कहां सीखा मित्र? वो हिमाचल वाले को तुमने जैसे ही गुठली दी, मुझे लगा एक बार कि ये तो वॉमिट कर देगा, लेकिन क्या देखता हूं, वह तो चोसा समझकर लपालप चूसने लगा। और यार वो यूपी वाले दोनों बुड्ढ़े तो गुठलियों को ऐसे बटोर ले गए जैसे लंगड़े और दशहरी की ताज़ा कटी फांकें हों। मुझे तो वो बंगाली और महाराष्ट्रियन पर हंसी आ रही है। दोनों भाई गुठलियों को अल्फ़ांजों और हिमसागर समझकर टूट पड़े। वो आंध्र वाला भाई तो बची-खुची गुठलियों को बंगनपल्ली समझकर ही फ़िदा था! यार, प्रसून तुम वाकई में भारत रत्न हो! अगली बार अपनी सरकार आ गई तो अपना ये वादा रहा कि तेरे को भारत-रत्न पक्का! बस तू मेरे लिए इस देश के हर मतदाता को भाग मिल्खा भाग की तरह ईवीएम की तरफ दौड़ाता रह! दोस्त, तू ही है अब। तू मेरी पार्टी के किसी बंदे के दिल को लहू कर या किसी और का, या अपना ही कर, लेकिन मेरा गरेबाँ तो रफ़ू कर!
तुुम्हारा
मैं
…और वहीं कहीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ या पता नहीं किसी और की आत्मा भी भटक रही थी। वह गुनगुना रही थी : बिखरी इक बार तो हाथ आई है कब मौज-ए-शमीम, दिल से निकली है तो कब लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है!

Thursday 19 April 2018

रोज़ इक शख़्स चला जाता है ख़्वाहिश करता - राज़ी अख्तर शौक़

रोज़ इक शख़्स चला जाता है ख़्वाहिश करता

अभी आ जाएगा बादल कोई बारिश करता

घर से निकला तो जहाँ-ज़ाद ख़ुदा इतने थे

मैं अना-ज़ाद भी किस किस की परस्तिश करता

हम तो हर लफ़्ज़ में जानाँ तिरी तस्वीर हुए

इस तरह कौन सा आईना सताइश करता

किसी वहशत-ज़दा आसेब की मानिंद हूँ मैं

इक मकाँ में कई नामों से रिहाइश करता

इक न इक दिन तो ये दीवार-ए-क़फ़स गिरनी थी

मैं न करता तो कोई और ये शोरिश करता

अब जो तस्वीर बना ली तो ये धुन और लगी!

कभी देखूँ लब-ए-तस्वीर को जुम्बिश करता

सब अंधेरे में हैं इक अपने मकाँ की ख़ातिर

क्या हवाओं से चराग़ों की सिफ़ारिश करता

और क्या मुझ से तिरी कूज़ा-गरी चाहती है

मैं यहाँ तक तो चला आया हूँ गर्दिश करता

इन ज़मीनों ही पे क्या ख़ोशा-ए-गंदुम के लिए

आसमानों से चला आया हूँ साज़िश करता

             - राज़ी अख्तर शौक़

स्मृतियों ने साथ न छोड़ा – आलोक यादव


स्मृतियों ने साथ न छोड़ा

मनबसियों ने साथ न छोड़ा

धुंधले हुए चित्र बचपन के

कौन सुनाए परीकथाएं

ऐसी नींद नहीं आती अब

जिन में फिर वो सपने आएं

पर सपनों में जो आती थीं

उन परियों ने साथ न छोड़ा

जीवन की आपाधापी में

जाने कितने साथी छूटे

जग में मनभावन उपवन के

छूटे कितने ही गुलबूटे

जिन की गंध बसी थी मन में

उन कलियों ने साथ न छोड़ा

यायावर हम निपट अकेले

रह पाए किस घर के हो के

चौखट ऐसी कोई नहीं थी

कर मनुहार हमें जो रोके

पर हम साथ जहां चलते थे

उन गलियों ने साथ न छोड़ा.

– आलोक यादव

खुशबुओं का कहाँ ठिकाना है - नीरज निश्चल

 हर तरफ फैलते ही जाना है ।
खुशबुओं का कहाँ ठिकाना है ।

हमसफ़र आप सा मिले जिसको,
उसका तो हर सफर सुहाना है ।

हमने पूछा कि ज़िन्दगी क्या है,
उसने बोला कि मुस्कराना है ।

आपको हर खुशी मुबारक हो,
हर दुआ का यही तराना है ।

किस्सा ए ज़िन्दगी अगर समझो,
कुछ हकीकत है कुछ फ़साना है ।

देख कर जिसको जान जाती है,
ज़िन्दगी का वही बहाना है ।

नीरज निश्चल

सोचा करता हूँ - नीरज निश्चल 

सोचा करता हूँ मै तेरा ओहदा  रब से कम क्या होगा ।
हिज़्र में जब है इतनी लज्जत वस्ल का आलम क्या होगा ।

इश्क के पहलू में तो खिजां भी नूर खिलाती है दिल में,
ये मेरा भगवान ही जाने फूलों का मौसम क्या होगा ।

माना तेरी खबर नहीं कुछ लेकिन मै बेखबर नहीं,
अपना हाल बता देता है हाले हमदम क्या होगा ।

रहकर मुझसे दूर तू साथी मेरे कितने पास भी है,
इस दुनिया मे कोई तुझसा मेरा महरम क्या होगा ।

‘नीरज’ जिसकी राहों में ये लुत्फे जीवन पाया है,
तड़प उठा हूँ सोच के उस मंजिल का संगम क्या होगा ।

नीरज निश्चल

Wednesday 18 April 2018

कविता – दे कोई दुहाई - जयति जैन 'नूतन'

 नयनों की पुकार है

उस आंख वाले को

जो नासमझ बना है

जो निशब्द आगे बढ़ा है।

नजर ना आया जिसे

नयनों का गर्म नीर

नजरअंदाज किया जिसने

चोट खाती हुई पीर।

वेदना के क्षण भूला

आंखों का सपना टूटा

ढलती शाम सा जीवन में

अंधेरों में एक पुष्प खिला।

दे कोई उसे दुहाई

कोई तो एहसास जगे

पायल की झनकार सुने वो

जीवन में श्रृंगार भरे।

फुरसत मिलते ही - गीता यादवेंदु

पुरानी किताब के मुड़े पन्ने

क्यों खोलने लगता है दिल

फुरसत मिलते ही

जो गुजर गया, वो गुजर गया

यादों के नश्तर

क्यों घोंपने लगता है दिल

फुरसत मिलते ही

चिडि़यों सा चहके, फूलों सा खिले

रोकने लगता है

क्यों नहीं देखता है दिल

फुरसत मिलते ही

जिस ने हाथ में हाथ दिया नहीं

आस उसी से लगा के

जाने क्यों बैठा है दिल.

– गीता यादवेंदु

Friday 13 April 2018

अज़नबी

रमाकान्त पटेल 

मैं तो एक अज़नबी हूँ

आता रहता हूँ ख़्वावों में

करती हो मेरा इंतजार क्यों

क्यों देखती हो राहों में

मांगती हो हरदम ख़ुदा से

आता हूं तुम्हारी दुआओं में

कहती नहीं हो किसी से तुम

रहती हो अपनी कदराओं में

मैं जानता हूँ कि तुम मुझको

ढूँढती रहती हो चौबारों में

तुमने कहा है ये ख़ुद से

वो होगा एक हजारों में

अज़नबी की कोई पहचान नहीं

वो मिल जाएगा इन्हीं नज़ारो में

          -रमाकान्त पटेल