Sunday 22 April 2018

न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे - मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे

ख़ुद अपने बाग़ को फूलों से डर लगे है मुझे

अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में

कहीं हो जलता मकाँ अपना घर लगे है मुझे

मैं एक जाम हूँ किस किस के होंट तक पहुँचूँ

ग़ज़ब की प्यास लिए हर बशर लगे है मुझे

तराश लेता हूँ उस से भी आईने 'मंज़ूर'

किसी के हाथ का पत्थर अगर लगे है मुझे

No comments:

Post a Comment