Friday 18 May 2018

खोया हुआ सच - राजेंद्र जगोत्ता

एक लीला थी जिस का दिल जानवर के प्रति भी प्यार से पसीज जाता था और दूसरी तरफ सीमा थी, अपनों का दर्द जिस के मर्म को छूता न था. शायद यही वजह थी सीमा के दुख की.

सीमा रसोई के दरवाजे से चिपकी खड़ी रही, लेकिन अपनेआप में खोए हुए उस के पति रमेश ने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाएं हाथ में फाइलें दबाए वह चुपचाप दरवाजा ठेल कर बाहर निकल गया और धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो गया.
सीमा के मुंह से एक निश्वास सा निकला, आज चौथा दिन था कि रमेश उस से एक शब्द भी नहीं बोला था. आखिर उपेक्षाभरी इस कड़वी जिंदगी के जहरीले घूंट वह कब तक पिएगी?
अन्यमनस्क सी वह रसोई के कोने में बैठ गई कि तभी पड़ोस की खिड़की से छन कर आती खिलखिलाहट की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह दबेपांव खिड़की की ओर बढ़ गई और दरार से आंख लगा कर देखा, लीला का पति सूखे टोस्ट चाय में डुबोडुबो कर खा रहा था और लीला किसी बात पर खिलखिलाते हुए उस की कमीज में बटन टांक रही थी. चाय का आखिरी घूंट भर कर लीला का पति उठा और कमीज पहन कर बड़े प्यार से लीला का कंधा थपथपाता हुआ दफ्तर जाने के लिए बाहर निकल गया.
सीमा के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई. कितने खुश हैं ये दोनों… रूखासूखा खा कर भी हंसतेखेलते रहते हैं. लीला का पति कैसे दुलार से उसे देखता हुआ दफ्तर गया है. उसे विश्वास नहीं होता कि यह वही लीला है, जो कुछ वर्षों पहले कालेज में भोंदू कहलाती थी. पढ़ने में फिसड्डी और महाबेवकूफ. न कपड़े पहनने की तमीज थी, न बात करने की. ढीलेढाले कपड़े पहने हर वक्त बेवकूफीभरी हरकतें करती रहती थी.
क्लासरूम से सौ गज दूर भी उसे कोई कुत्ता दिखाई पड़ जाता तो बेंत ले कर उसे मारने दौड़ती. लड़कियां हंस कर कहती थीं कि इस भोंदू से कौन शादी करेगा. तब सीमा ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन यही फूहड़ और भोंदू लीला शादी के बाद उस की पड़ोसिन बन कर आ जाएगी और वह खिड़की की दरार से चोर की तरह झांकती हुई, उसे अपने पति से असीम प्यार पाते हुए देखेगी.
दर्द की एक लहर सीमा के पूरे व्यक्त्तित्व में दौड़ गई और वह अन्यमनस्क सी वापस अपने कमरे में लौट आई.
‘‘सीमा, पानी…’’ तभी अंदर के कमरे से क्षीण सी आवाज आई.
वह उठने को हुई, लेकिन फिर ठिठक कर रुक गई. उस के नथुने फूल गए, ‘अब क्यों बुला रही हो सीमा को?’ वह बड़बड़ाई, ‘बुलाओ न अपने लाड़ले बेटे को, जो तुम्हारी वजह से हर दम मुझे दुत्कारता है और जराजरा सी बात में मुंह टेढ़ा कर लेता है, उंह.’
और प्रतिशोध की एक कुटिल मुसकान उस के चेहरे पर आ गई. अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर वह तन कर रमेश की फोटो के सामने खड़ी हो गई, ‘‘ठीक है रमेश, तुम इसलिए मुझ से नाराज हो न, कि मैं ने तुम्हारी मां को टाइम पर खाना और दवाई नहीं दी और उस से जबान चलाई. तो लो यह सीमा का बदला, चौबीसों घंटे तो तुम अपनी मां की चौकीदारी नहीं कर सकते. सीमा सबकुछ सह सकती है, अपनी उपेक्षा नहीं. और धौंस के साथ वह तुम्हारी मां की चाकरी नहीं करेगी.’’
और उस के चेहरे की जहरीली मुसकान एकाएक एक क्रूर हंसी में बदल गई और वह खिलाखिला कर हंस पड़ी, फिर हंसतेहंसते रुक गई. यह अपनी हंसी की आवाज उसे कैसी अजीब सी, खोखली सी लग रही थी, यह उस के अंदर से रोतारोता कौन हंस रहा था? क्या यह उस के अंदर की उपेक्षित नारी अपनी उपेक्षा का बदला लेने की खुशी में हंस रही थी? पर इस बदले का बदला क्या होगा? और उस बदले का बदला…क्या उपेक्षा और बदले का यह क्रम जिंदगीभर चलता रहेगा?
आखिर कब तक वे दोनों एक ही घर की चारदीवारी में एकदूसरे के पास से अजनबियों की तरह गुजरते रहेंगे? कब तक एक ही पलंग की सीमाओं में फंसे वे दोनों, एक ही कालकोठरी में कैद 2 दुश्मन कैदियों की तरह एकदूसरे पर नफरत की फुंकारें फेंकते हुए अपनी अंधेरी रातों में जहर घोलते रहेंगे?
उसे लगा जैसे कमरे की दीवारें घूम रही हों. और वह विचलित सी हो कर धम्म से पलंग पर गिर पड़ी.
थप…थप…थप…खिड़की थपथपाने की आवाज आई और सीमा चौंक कर उठ बैठी. उस के माथे पर बल पड़ गए. वह बड़बड़ाती हुई खिड़की की ओर बढ़ी.
‘‘क्या है?’’ उस ने खिड़की खोल कर रूखे स्वर में पूछा. सामने लीला खड़ी थी, भोंदू लीला, मोटा शरीर, मोटा थुलथुल चेहरा और चेहरे पर बच्चों सी अल्हड़ता.
‘‘दीदी, डेटौल है?’’ उस ने भोलेपन से पूछा, ‘‘बिल्लू को नहलाना है. अगर डेटौल हो तो थोड़ा सा दे दो.’’
‘‘बिल्लू को,’’ सीमा ने नाक सिकोड़ कर पूछा कि तभी उस का कुत्ता बिल्लू भौंभौं करता हुआ खिड़की तक आ गया.
सीमा पीछे को हट गई और बड़बड़ाई, ‘उंह, मरे को पता नहीं मुझ से क्या नफरत है कि देखते ही भूंकता हुआ चढ़ आता है. वैसे भी कितना गंदा रहता है, हर वक्त खुजलाता ही रहता है. और इस भोंदू लीला को क्या हो गया है, कालेज में तो कुत्ते को देखते ही बेंत ले कर दौड़ पड़ती थी, पर इसे ऐसे दुलार करती है जैसे उस का अपना बच्चा हो. बेअक्ल कहीं की.’
अन्यमनस्क सी वह अंदर आई और डेटौल की शीशी ला कर लीला के हाथ में पकड़ा दी. लीला शीशी ले कर बिल्लू को दुलारते हुए मुड़ गई और उस ने घृणा से मुंह फेर कर खिड़की बंद कर ली.
पर भोंदू लीला का चेहरा जैसे खिड़की चीर कर उस की आंखों के सामने नाचने लगा. ‘उंह, अब भी वैसी ही बेवकूफ है, जैसे कालेज में थी. पर एक बात समझ में नहीं आती, इतनी साधारण शक्लसूरत की बेवकूफ व फूहड़ महिला को भी उस का क्लर्क पति ऐसे रखता है जैसे वह बहुत नायाब चीज हो. उस के लिए आएदिन कोई न कोई गिफ्ट लाता रहता है. हर महीने तनख्वाह मिलते ही मूवी दिखाने या घुमाने ले जाता है.’
खिड़की के पार उन के ठहाके गूंजते, तो सीमा हैरान होती और मन ही मन उसे लीला के पति पर गुस्सा भी आता कि आखिर उस फूहड़ लीला में ऐसा क्या है जो वह उस पर दिलोजान से फिदा है. कई बार जब सीमा का पति कईकई दिन उस से नाराज रहता तो उसे उस लीला से रश्क सा होने लगता. एक तरफ वह है जो खूबसूरत और समझदार होते हुए भी पति से उपेक्षित है और दूसरी तरफ यह भोंदू है, जो बदसूरत और बेवकूफ होते हुए भी पति से बेपनाह प्यार पाती है. सीमा के मुंह से अकसर एक ठंडी सांस निकल जाती. अपनाअपना वक्त है. अचार के साथ रोटी खाते हुए भी लीला और उस का पति ठहाके लगाते हैं. जबकि दूसरी ओर उस के घर में सातसात पकवान बनते हैं और वे उन्हें ऐसे खाते हैं जैसे खाना खाना भी एक सजा हो. जब भी वह खिड़की खोलती, उस के अंदर खालीपन का एहसास और गहरा हो जाता और वह अपने दर्द की गहराइयों में डूबने लगती.
‘‘सीमा, दवाई…’’ दूसरे कमरे से क्षीण सी आवाज आई. बीमार सास दवाई मांग रही थी. वह बेखयाली में उठ बैठी, पर द्वेष की एक लहर फिर उस के मन में दौड़ गई. ‘क्या है इस घर में मेरा, जो मैं सब की चाकरी करती रहूं? इतने सालों के बाद भी मैं इस घर में पराई हूं, अजनबी हूं,’ और वह सास की आवाज अनसुनी कर के फिर लेट गई.
तभी खिड़की के पार लीला के जोरजोर से रोने और उस के कुत्ते के कातर स्वर में भूंकने की आवाज आई. उस ने झपट कर खिड़की खोली. लीला के घर के सामने नगरपलिका की गाड़ी खड़ी थी और एक कर्मचारी उस के बिल्लू को घसीट कर गाड़ी में ले जा रहा था.
‘‘इसे मत ले जाओ, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं,’’ लीला रोतेरोते कह रही थी.
लेकिन कर्मचारी ने कुत्ते को नहीं छोड़ा. ‘‘तुम्हारे कुत्ते को खाज है, बीमारी फैलेगी,’’ वह बोला.
‘‘प्लीज मेरे बिल्लू को मत ले जाओ. मैं डाक्टर को दिखा कर इसे ठीक करा दूंगी.’’
‘‘सुनो,’’ गाड़ी के पास खड़ा इंस्पैक्टर रोब से बोला, ‘‘इसे हम ऐसे नहीं छोड़ सकते. नगरपालिका पहुंच कर छुड़ा लाना. 2,000 रुपए जुर्माना देना पड़ेगा.’’
‘‘रुको, रुको, मैं जुर्माना दे दूंगी,’’ कह कर वह पागलों की तरह सीमा के घर की ओर भागी और सीमा को खिड़की के पास खड़ी देख कर गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरे बिल्लू को बचा लो. मुझे 2,000 रुपए उधार दे दो.’’
‘‘पागल हो गई हो क्या? इस गंदे और बीमार कुत्ते के लिए 2,000 रुपए देना चाहती हो? ले जाने दो, दूसरा कुत्ता पाल लेना,’’ सीमा बोली.
लीला ने एक बार असीम निराशा और वेदना के साथ सीमा की ओर देखा. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी. सहसा उस की आंखें अपने हाथ में पड़ी सोने की पतली सी एकमात्र चूड़ी पर टिक गईं. उस की आंखों में एक चमक आ गई और वह चूड़ी उतारती हुई वापस कुत्ता गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ी.
‘‘भैया, यह लो जुर्माना. मेरे बिल्लू को छोड़ दो,’’ वह चूड़ी इंस्पैक्टर की ओर बढ़ाती हुई बोली.
इंस्पैक्टर भौचक्का सा कभी उस के हाथ में पकड़ी सोने की चूड़ी की ओर और कभी उस कुत्ते की ओर देखने लगा. सहसा उस के चेहरे पर दया की एक भावना आ गई, ‘‘इस बार छोड़ देता हूं. अब बाहर मत निकलने देना,’’ उस ने कहा और कुत्ता गाड़ी आगे बढ़ गई.
लीला एकदम कुत्ते से लिपट गई, जैसे उसे अपना खोया हुआ कोई प्रियजन मिल गया हो और वह फूटफूट कर रोने लगी.
सीमा दरवाजा खोल कर उस के पास पहुंची और बोली, ‘‘चुप हो जाओ, लीला, पागल न बनो. अब तो तुम्हारा बिल्लू छूट गया, पर क्या कोई कुत्ते के लिए भी इतना परेशान होता है?’’
लीला ने सिर उठा कर कातर दृष्टि से उस की ओर देखा. उस के चेहरे से वेदना फूट पड़ी, ‘‘ऐसा न कहो, सीमा दीदी, ऐसा न कहो. यह बिल्लू है, मेरा प्यारा बिल्लू. जानती हो, यह इतना सा था जब मेरे पति ने इसे पाला था. उन्होंने खुद चाय पीनी छोड़ दी थी और दूध बचा कर इसे पिलाते थे, प्यार से इसे पुचकारते थे, दुलारते थे. और अब, अब मैं इसे दुत्कार कर छोड़ दूं, जल्लादों के हवाले कर दूं, इसलिए कि यह बूढ़ा हो गया है, बीमार है, इसे खुजली हो गई है. नहीं दीदी, नहीं, मैं इस की सेवा करूंगी, इस के जख्म धोऊंगी क्योंकि यह मेरे लिए साधारण कुत्ता नहीं है, यह बिल्लू है, मेरे पति का जान से भी प्यारा बिल्लू. और जो चीज मेरे पति को प्यारी है, वह मुझे भी प्यारी है, चाहे वह बीमार कुत्ता ही क्यों न हो.’’
सीमा ठगी सी खड़ी रह गई. आंसुओं के सागर में डूबी यह भोंदू क्या कह रही है. उसे लगा जैसे लीला के शब्द उस के कानों के परदों पर हथौड़ों की तरह पड़ रहे हों और उस का बिल्लू भौंभौं कर के उसे अपने घर से भगा देना चाहता हो.
अकस्मात ही उस की रुलाई फूट पड़ी और उस ने लीला का आंसुओंभरा चेहरा अपने दोनों हाथों में भर लिया, ‘‘मत रो, मेरी लीला, आज तुम ने मेरी आंखों के जाले साफ कर दिए हैं. आज मैं समझ गई कि तुम्हारा पति तुम से इतना प्यार क्यों करता है. तुम उस जानवर को भी प्यार करती हो जो तुम्हारे पति को प्यारा है. और मैं, मैं उन इंसानों से प्यार करने की भी कीमत मांगती हूं, जो अटूट बंधनों से मेरे पति के मन के साथ बंधे हैं. तुम्हारे घर का जर्राजर्रा तुम्हारे प्यार का दीवाना है और मेरे घर की एकएक ईंट मुझे अजनबी समझती है. लेकिन अब नहीं, मेरी लीला, अब ऐसा नहीं होगा.’’
लीला ने हैरान हो कर सीमा को देखा. सीमा ने अपने घर की तरफ रुख कर लिया. अपनी गलतियों को सुधारने की प्रबल इच्छा उस की आंखों में दिख रही थी.

हिन्दी बेचारी सिसक रही, कैसे इनको गढा गया।। - राज कुमार तिवारी

 नव युग के निर्माता से, नौ लिखा गया न पढ़ा गया।
हिन्दी बेचारी सिसक रही, कैसे इनको गढ़ा गया।।
हिन्दी बेचारी सिसक रही……………

नौ लिखके जो बतला दिया, बोले ये त्रिसूल है।
अभी नवासी,उन्नायसी में, फंसते सब स्कूल हैं।
बारहखडी को भूल गये हैं, ए बी सी के आगे।
पहाड़ बनी ककरहा है, पहाड़ा भी न पढ़ा गया।।
हिन्दी बेचारी सिसक रही…………….

पैमाना सारा भूले हैं, अद्धा पौना भी जाने न
कलम उठा ली हाथों में, तख्ती भी पहचानें ने
तख्ती से तख्ता पलटा है, कर्जा चुका नही पाये
लथ पथ काया से ये, हिन्दुस्तान गढ़ा गया।
हिन्दी बेचारी सिसक रही……………

चमडी गोरी सब उधड गई, भाषा उनकी खटकती है
हाय बाय सब करते हैं, हिन्दी सर को पटकती है।
अभी यहां कुछ गया नही, ठोकर से निकलेगी अः
मां की भाषा का ये चिप्पक, ऐसे नही जड़ा गया।
हिन्दी बेचारी सिसक रही……………

सात को छ कहने वाले, तीन को भी न जान सके
आठ को यू समझ रहे, पांच को वाई मान रहे।
हर भाषा का इल्म सभी को होना बहुत जरूरी है
राजभाषा पर जबरन, कुछ तो यहां जडा गया।
हिन्दी बेचारी सिसक रही……………
राज कुमार तिवारी (राज)

'दिन-रात खटते हैं फिर लोग पूछते हैं काम क्या करती हो

क्या आप ऐसी नौकरी करना पसंद करेंगे जिसमें रोज 16-17 घंटे काम करना हो, हफ़्ते में किसी दिन छुट्टी न मिले, कोई सैलरी न मिले और इन सबके बाद कहा जाए कि तुम काम क्या करते हो? दिन भर सोते तो रहते हो!

असल में देश का एक बड़ा तबका ऐसी ही नौकरी कर रहा है. ये नौकरी करने वाली औरतें हैं. वो औरतें जिन्हें हम हाउसवाइफ़, होममेकर या गृहणी कहते हैं.

गृहणियों के काम को लेकर एक बार फिर चर्चा छिड़ी जब कुछ दिनों पहले कर्नाटक हाइकोर्ट ने एक मामले में अपना फ़ैसला सुनाया.

हुआ ये था कि एक दंपती के बीच तलाक़ का मामला चल रहा था और पत्नी को अदालत में पेश होने के लिए मुज़फ़्फ़रनगर से बेंगलुरु आना था.

वो फ़्लाइट से आना चाहती थी लेकिन पति चाहता था कि वो ट्रेन से आए क्योंकि वो हाउसवाइफ़ है और उसके पास 'बहुत खाली वक़्त' है.

'सातों दिन एक जैसे'

हालांकि जस्टिस राघवेंद्र एस चौहान पति की दलील से सहमत नहीं हुए और उन्होंने कहा कि एक हाउसवाइफ़ भी उतनी ही व्यस्त होती है जितना बाहर जाकर नौकरी करने वाला कोई शख़्स.

ये सारा मामला सुनकर दिल्ली में रहने वाली काजल पूछती हैं, "अगर कोई मर्द ऑफ़िस से आता है तो हम उसके लिए चाय-पानी लेकर तैयार रहते हैं लेकिन हम दिन भर काम करते हैं तो हमारे लिए कोई ऐसे नहीं करता. क्यों?"

तीन साल की बच्ची को गोद में लिए बैठी नेहा कहती हैं, "घर में सबसे पहले सोकर हम औरतें उठती हैं, सबसे देर में बिस्तर पर भी हम ही जाते हैं और फिर सुनने को मिलता है कि हमारे पास काम क्या है!"

चार बच्चों की मां सुनीता जब अपने काम गिनाना शुरू करती हैं तो ये लिस्ट जैसे ख़त्म होने का नाम नहीं लेती.

गुलाबी लिबास पहने श्वेता फीकी हंसी हंसते हुए कहती हैं, "ऑफ़िस में काम करने वालों को तो हफ़्ते में एक-दो दिन छुट्टी भी मिल जाती है. हमारा तो मंडे टू संडे, सातों दिन एक से होते हैं."

क्या कहते हैं पुरुष?

दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले सागर मानते हैं कि काम तो किसी के पास कम नहीं है. घर के काम की अपनी चुनौतियां हैं और बाहर के काम की अपनी.

वो कहते हैं ''ये कहना ग़लत होगा कि घर पर औरतों के पास काम नहीं होता. हमें तो छुट्टी मिल भी जाती है लेकिन उनको तो हमेशा मुस्तैद रहना पड़ता है. कभी बड़ों की ज़िम्मेदारी...कभी बच्चों की और पति तो है ही. आदमी तो अपनी ज़िम्मेदारी औरत पर डाल देता है लेकिन औरत किसी से नहीं कह पाती. बहुत मुश्किल है हाउसवाइफ़ होना.''

दिल्ली के ही चंदन का मानना है कि घर संभालना बहुत मुश्किल काम है. वो कहते हैं ''ऐसी औरतें काम पर भले न जाती हों लेकिन उनके बिना आप भी काम पर नहीं जा पाएंगे. नाश्ता तो वही देती हैं...फिर साफ-सुथरे, प्रेस किए कपड़े मिल जाते हैं. ये सब हाथों-हाथ नहीं मिले तो दुनिया के आधे मर्द नौकरी पर ही न जा पाएं. जाएं तो रोज़ लेट ही पहुंचे.''

ज़मीनी सच्चाई

अभी कुछ वक़्त पहले मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भारत की मानुषी छिल्लर से पूछा गया था कि दुनिया के किस प्रोफ़ेशन को सबसे ज़्यादा सैलरी मिलनी चाहिए थी.

उन्होंने जवाब दिया था- मां को. कहने की ज़रूरत नहीं है भारत में मांओं की एक बड़ी संख्या गृहणी का काम करती है. यानी वो काम जिसे शायद काम की तरह देखा भी नहीं जाता.

मानुषी के इस जवाब की ख़ूब चर्चा हुई थी और इसके बाद उन्होंने प्रतियोगिता जीतकर विश्वसुंदरी का ताज अपने सिर पर पहना.

घर संभालने वाले महिलाओं की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि मानुषी का जवाब ज़मीनी हक़ीकत के काफी क़रीब था.

रिसर्च

ऑर्गनाइज़ेशन फ़ॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट की एक रिसर्च में भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका जैसे 26 देशों का अध्ययन किया गया.

रिसर्च में पाया गया कि इन देशों की महिलाएँ रोज औसतन साढ़े चार घंटे बिना किसी पैसे के काम करती हैं.

55 साल की सुशीला जब नई-नई दुल्हन बनकर ससुराल आई थीं तो घर में इतना काम होता था कि उन्हें खाने-पीने तक का होश नहीं रहता था.

वो कहती हैं, "सुबह उठकर गोबर थापना, गाय-भैंसों को चारा-पानी देना, घर के बच्चों को स्कूल भेजना, मर्दों को टिफ़िन देना, दोपहर में खाना बनाना और फिर शाम का चाय-नाश्ता बनाकर रात के खाने की तैयारी. पूरे दिन रोटी खाने का टाइम ही नहीं मिलता था. रोटी भी भागते-दौड़ते खाते थे."

'हाउसवाइफ़ क्यों कहते हो'

सुशीला आगे कहती हैं, "इतना खटने के बाद घर का ख़र्च चलाने के लिए पैसे मांगो तो पहले सैकड़ों सवाल पूछे जाते हैं और फिर एक-एक पैसे का हिसाब मांगा जाता है. हम भी नौकरी करते तो अपनी मर्जी से पैसे ख़र्च करते."

मंजू को 'हाउसवाइफ़' शब्द से ही दिक्कत है.

उन्होंने कहा, "ऑफ़िस में काम करने वाले या तो दिन में काम करते हैं या रात में. हम लोग तो सुबह से लेकर रात तक काम करते रहते हैं. फिर हमें हाउसवाइफ़ क्यों कहते हो? हम तो घर की महारानी हुए."

कुछ वक़्त पहले चेतन भगत ने भी इस बात की ओर ध्यान दिलाया था. उन्होंने औरतों से कहा था कि वो ख़ुद को हाउसवाइफ़ कहना बंद करें क्योंकि उनकी शादी घर से नहीं बल्कि एक शख़्स से हुई है.

घरवालों की सबसे बुरी बात क्या लगती है?

"हमें सोने नहीं देते. हम बिस्तर पर ठीक से लेट भी नहीं पाते कि कभी चाय की फ़रमाइश आ जाती है तो कभी किसी के एक पैर का मोजा नहीं मिलता." ये नेहा की शिकायत है.

क्या चाहती हैं ये औरतें

उमा को सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा तब आता है जब लोग उन्हें सीरियल देखने के लिए ताना मारते हैं.

वो कहती हैं, "दिन-रात काम करते हैं. थोड़ी देर सीरियल देख भी लिया तो क्या आफ़त आ गई? इसी बहाने हमारा दिल बहल जाता है तो इसमें क्या तकलीफ़ है?"

तो ये औरतें चाहती क्या हैं?

थोड़ी सी तारीफ़, थोड़ी सी इज़्जत और थोड़ा सा प्यार.

उमा, काजल, पूनम, सुनीता और नेहा एक-एक करके जवाब देती हैं.

काजल कहती हैं, "हम जो काम करते हैं वो सैलरी से कहीं ऊपर का है. आप बस इस सच को कबूल लें, इतना ही हमारे लिए काफ़ी होगा.

वैसे अगर मोटा-मोटा अनुमान लगाया जाए तो भी होममेकर्स को कम कम से कम 45-50 हज़ार रुपए महीने मिलने चाहिए.

ब्रिटन में ऑफ़िस फ़ॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स (ONS) की रिपोर्ट (2014) के मुताबिक़ अगर सिर्फ़ घरों में लॉन्ड्री (कपड़े धोने और उनके रखखाव) को गिना जाए तो इसकी क़ीमत 97 अरब से ज़्यादा होगी यानी ब्रिटेन की जीडीपी का 5.9%.

कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि गृहणियों को उनके काम के पैसे भले न मिलते हों लेकिन इन्हें आर्थिक गतिविधियों का हिस्सा माना जाना चाहिए.

वर्षा

तुरंत ही बारिश बंद हुई है। खिड़की से बाहर की ओर झांका तो हर चीज बारिश के पानी से धुली, नहाई, साफ-सुथरी नजर आने लगी। मेघ की बाल्टियां उड़ेल कर आसमान भी जैसे कुछ धुली हुई-सी नीली फितरत में आ गया हो। आम के पेड़ के गहरे हरे रंग में पानी की बौछारों ने कुछ ताजगी-सी भर दी। अमरूद के पेड़ों की हल्के हरे रंग की पत्तियां जैसे अभी-अभी खिली हों। लीची के नन्हे-से हरे फल धुल कर चमकने लगे। इधर-उधर बेसबब उगी जंगली घास भी खिलखिलाने लगी। तपती गरमी से राहत पाकर चिड़िया का संसार भी ज्यादा चहकने लगा। जाने कौन-सा पंछी है जो कांपते हुए सुरों में लंबी तान देता है। रह-रह कर गूंजती आवाज जैसे उसकी आत्मा की पुकार हो। अभी वह सहमा-सा अपने घोंसले में छिपा बैठा रहा होगा, जब बादल गरज कर धरतीवासियों को डरा रहे थे। बिजली चमक कर उन्हें उनके तुच्छ होने का अहसास करा रही थी। बादल वर्षा कर तृप्त हो गए तो धरती के प्राणी गुंजायमान हो उठे। जैसे मेरा थका मन भी कुछ हरा-हरा-सा हो गया। कुदरत के बीच रहते हुए जीवन कितना जुदा होता है! खिड़की से झांकें तो पेड़-पौधे मुस्कराते हुए मिलते हैं। घर से बाहर निकलें तो वे हमें कुदरत की अनूठी छटा का अहसास कराते हैं। तितलियां देखने के लिए हमें किसी थ्री-डी फिल्म की जरूरत नहीं। बस हम अपने किसी काम में मगन हों और तितलियों का जोड़ा ठीक हमारी नाक के सामने से अपने नन्हें परों को हिलाता हुआ निकल जाए। छोटे बच्चों के पास चिड़ियों से भरा हुआ घर-आंगन हो और चिड़िया देख वे खुश होकर बोलें- ‘आ चिया, आ चिया।’ मेरे साथ दरअसल ऐसा होता है। शाम का समय किसी ऊंघती हुई बालकनी पर नहीं बीतता। न ही मोबाइल में इयरफोन लगाकर बोरियत तोड़ने की जरूरत महसूस होती है। कुछ न कर बस देखें भी, तो इधर एक डाल पर चिड़िया उड़ी, उधर दूसरी डाल पर दूसरी चिड़िया आ बैठी। सबसे अच्छा तो तोतों के झुंड को देख कर लगता है। आम के पेड़ की शाखें अमियों से झुकी हुई हैं। तोतों के झुंड को उनकी पसंद की सारी चीजें मिली हुई हैं।

अब यह बात मुहावरे वाली नहीं लगती कि कौवा कांव-कांव करेगा तो कोई मेहमान आता है। ऊंची-ऊंची कई मंजिला इमारतों वाले शहर में कौवों की कांव-कांव भी नहीं सुनाई देती। केवल कबूतरों की गुटरगूं रहती है। तो अब जब कौवा कांव-कांव करता है तो लगता है कि कोई मेहमान तो नहीं आने वाला। फिर गिलहरियों को देखने का भी अपना लुत्फ होता है। एक पेड़ से उतरती है, दूसरे पेड़ पर सर्र से चढ़ जाती है। आगे के दो छोटे पांवों में पकड़ कर जब कुछ खा रही होती है तो लगता है कि इससे मासूम दुनिया में कोई और नहीं। इसकी मासूमियत पर उधर पड़ोस वाली बिल्ली की नजर हमेशा लगी रहती है। वह अक्सर ढलती शाम में शिकार पर निकलती है, ताकि लोग उसे न भगाएं। शायद उसका शिकार भी अंधेरे में बिल्ली को ठीक से न देख पाए। बिल्ली मौके का फायदा उठा कर हवा में छलांग लगाती है और एक ‘विकेट’ गिर जाता है! एक बदमाश चिड़ियों का झुंड भी है। जब अपने आसपास की दुनिया को ध्यान से देखने में मगन हों तो वे हल्ला मचाती किसी पेड़ की डाल पर उतरती हैं। अपने पंखों से जैसे आसमान की चादर खींच कर पेड़ के ऊपर चांदनी की तरह डाल देती हों। या फिर छत पर छापा मार देती हैं या फिर गाड़ी की छत पर ही। इनकी चहचहाहट इतनी तेज होती है और ये इतनी तेजी से अपने पंख झाड़ती रहती हैं कि इन्हें बदमाश चिड़ियों का झुंड कहना गलत नहीं लगता। इधर-उधर खाने-पीने की चीजें चुगने के बाद वे फुर्र हो जाती हैं।

छोटे बच्चों को मिट्टी से खेलना बहुत अच्छा लगता है। वे नन्हे हाथों से मिट्टी उठाते हैं और वापस डाल देते हैं। बस जब वे दौड़ लगाते हैं तो छोटी-छोटी क्यारियों में सूख चुके लहसुन-प्याज के कुचले जाने का डर सताता है। बच्चे भी कोशिश करते हैं कि उनके पांव क्यारियों में न पड़ कर छोटी-छोटी पगडंडियों पर पड़ें। टमाटर अभी लाल और बड़े होने का इंतजार कर रहे हैं। बच्चे इनकी तरफ आकर्षित होते हैं। हम तो नंगे पांव फर्श पर पैर रखने को तैयार नहीं होते और ये बच्चे नंगे पांव ही घरों में बनी छोटी क्यारियों, जंगली घासों के ऊपर दौड़ लगाते हैं। फर्श पर नंगे पांव चलना ज्यादा मुश्किल है, घास-मिट्टी में नहीं। बारिश के बाद दूर से झिलमिलाती पहाड़ियां भी ज्यादा हरी-भरी सी लगने लगी हैं। बारिश जैसे धूल भरी तस्वीरों की मिट्टी झाड़ देती हो। पेड़ों का मन खुश कर देती हो। पंछियों को तर कर देती हो। यही बारिश ज्यादा होती है तो डर भी लगता है। डर भी अपनी जगह सही है। फिर जब धूप आएगी तो सारी नमी को सुखा देगी। जैसे कम्प्यूटर पर ‘रिफ्रेश’ का बटन दबाते हैं, कुदरत भी बारिश के जरिए सब कुछ ‘रिफ्रेश’ कर देती है। हमें जिंदगी की ओर लौटना है तो कुदरत की ओर लौटना होगा। कुदरत के साथ कुछ समय बिताना होगा।