Friday 18 May 2018

वर्षा

तुरंत ही बारिश बंद हुई है। खिड़की से बाहर की ओर झांका तो हर चीज बारिश के पानी से धुली, नहाई, साफ-सुथरी नजर आने लगी। मेघ की बाल्टियां उड़ेल कर आसमान भी जैसे कुछ धुली हुई-सी नीली फितरत में आ गया हो। आम के पेड़ के गहरे हरे रंग में पानी की बौछारों ने कुछ ताजगी-सी भर दी। अमरूद के पेड़ों की हल्के हरे रंग की पत्तियां जैसे अभी-अभी खिली हों। लीची के नन्हे-से हरे फल धुल कर चमकने लगे। इधर-उधर बेसबब उगी जंगली घास भी खिलखिलाने लगी। तपती गरमी से राहत पाकर चिड़िया का संसार भी ज्यादा चहकने लगा। जाने कौन-सा पंछी है जो कांपते हुए सुरों में लंबी तान देता है। रह-रह कर गूंजती आवाज जैसे उसकी आत्मा की पुकार हो। अभी वह सहमा-सा अपने घोंसले में छिपा बैठा रहा होगा, जब बादल गरज कर धरतीवासियों को डरा रहे थे। बिजली चमक कर उन्हें उनके तुच्छ होने का अहसास करा रही थी। बादल वर्षा कर तृप्त हो गए तो धरती के प्राणी गुंजायमान हो उठे। जैसे मेरा थका मन भी कुछ हरा-हरा-सा हो गया। कुदरत के बीच रहते हुए जीवन कितना जुदा होता है! खिड़की से झांकें तो पेड़-पौधे मुस्कराते हुए मिलते हैं। घर से बाहर निकलें तो वे हमें कुदरत की अनूठी छटा का अहसास कराते हैं। तितलियां देखने के लिए हमें किसी थ्री-डी फिल्म की जरूरत नहीं। बस हम अपने किसी काम में मगन हों और तितलियों का जोड़ा ठीक हमारी नाक के सामने से अपने नन्हें परों को हिलाता हुआ निकल जाए। छोटे बच्चों के पास चिड़ियों से भरा हुआ घर-आंगन हो और चिड़िया देख वे खुश होकर बोलें- ‘आ चिया, आ चिया।’ मेरे साथ दरअसल ऐसा होता है। शाम का समय किसी ऊंघती हुई बालकनी पर नहीं बीतता। न ही मोबाइल में इयरफोन लगाकर बोरियत तोड़ने की जरूरत महसूस होती है। कुछ न कर बस देखें भी, तो इधर एक डाल पर चिड़िया उड़ी, उधर दूसरी डाल पर दूसरी चिड़िया आ बैठी। सबसे अच्छा तो तोतों के झुंड को देख कर लगता है। आम के पेड़ की शाखें अमियों से झुकी हुई हैं। तोतों के झुंड को उनकी पसंद की सारी चीजें मिली हुई हैं।

अब यह बात मुहावरे वाली नहीं लगती कि कौवा कांव-कांव करेगा तो कोई मेहमान आता है। ऊंची-ऊंची कई मंजिला इमारतों वाले शहर में कौवों की कांव-कांव भी नहीं सुनाई देती। केवल कबूतरों की गुटरगूं रहती है। तो अब जब कौवा कांव-कांव करता है तो लगता है कि कोई मेहमान तो नहीं आने वाला। फिर गिलहरियों को देखने का भी अपना लुत्फ होता है। एक पेड़ से उतरती है, दूसरे पेड़ पर सर्र से चढ़ जाती है। आगे के दो छोटे पांवों में पकड़ कर जब कुछ खा रही होती है तो लगता है कि इससे मासूम दुनिया में कोई और नहीं। इसकी मासूमियत पर उधर पड़ोस वाली बिल्ली की नजर हमेशा लगी रहती है। वह अक्सर ढलती शाम में शिकार पर निकलती है, ताकि लोग उसे न भगाएं। शायद उसका शिकार भी अंधेरे में बिल्ली को ठीक से न देख पाए। बिल्ली मौके का फायदा उठा कर हवा में छलांग लगाती है और एक ‘विकेट’ गिर जाता है! एक बदमाश चिड़ियों का झुंड भी है। जब अपने आसपास की दुनिया को ध्यान से देखने में मगन हों तो वे हल्ला मचाती किसी पेड़ की डाल पर उतरती हैं। अपने पंखों से जैसे आसमान की चादर खींच कर पेड़ के ऊपर चांदनी की तरह डाल देती हों। या फिर छत पर छापा मार देती हैं या फिर गाड़ी की छत पर ही। इनकी चहचहाहट इतनी तेज होती है और ये इतनी तेजी से अपने पंख झाड़ती रहती हैं कि इन्हें बदमाश चिड़ियों का झुंड कहना गलत नहीं लगता। इधर-उधर खाने-पीने की चीजें चुगने के बाद वे फुर्र हो जाती हैं।

छोटे बच्चों को मिट्टी से खेलना बहुत अच्छा लगता है। वे नन्हे हाथों से मिट्टी उठाते हैं और वापस डाल देते हैं। बस जब वे दौड़ लगाते हैं तो छोटी-छोटी क्यारियों में सूख चुके लहसुन-प्याज के कुचले जाने का डर सताता है। बच्चे भी कोशिश करते हैं कि उनके पांव क्यारियों में न पड़ कर छोटी-छोटी पगडंडियों पर पड़ें। टमाटर अभी लाल और बड़े होने का इंतजार कर रहे हैं। बच्चे इनकी तरफ आकर्षित होते हैं। हम तो नंगे पांव फर्श पर पैर रखने को तैयार नहीं होते और ये बच्चे नंगे पांव ही घरों में बनी छोटी क्यारियों, जंगली घासों के ऊपर दौड़ लगाते हैं। फर्श पर नंगे पांव चलना ज्यादा मुश्किल है, घास-मिट्टी में नहीं। बारिश के बाद दूर से झिलमिलाती पहाड़ियां भी ज्यादा हरी-भरी सी लगने लगी हैं। बारिश जैसे धूल भरी तस्वीरों की मिट्टी झाड़ देती हो। पेड़ों का मन खुश कर देती हो। पंछियों को तर कर देती हो। यही बारिश ज्यादा होती है तो डर भी लगता है। डर भी अपनी जगह सही है। फिर जब धूप आएगी तो सारी नमी को सुखा देगी। जैसे कम्प्यूटर पर ‘रिफ्रेश’ का बटन दबाते हैं, कुदरत भी बारिश के जरिए सब कुछ ‘रिफ्रेश’ कर देती है। हमें जिंदगी की ओर लौटना है तो कुदरत की ओर लौटना होगा। कुदरत के साथ कुछ समय बिताना होगा।

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