Sunday 22 April 2018

“लिख दूँ” - आदित्य पाण्डेय

कलम ख़ामोश है
सोचता हूँ कि लिख दूँ
फ़िर सोचता हूँ कि आख़िर क्या लिख दूँ??

खौफ के दौर में चीखते मासूमों की कहानी लिख दूँ
मज़हबी आड़ में ज़ुर्म-ए-शय से होती हैरानी लिख दूँ
जब अदालतें इंसाफ नहीं, दौलत के लिए खुलती हैं
अस्मतें, घर के बंद दरवाजों, मन्दिरों में लुटती हैं
इन बदलती फिज़ाओं से दिखती इंसानियत की नाकामी लिख दूँ
कलम ख़ामोश है तो सोचता हूँ कि लिख दूँ
फ़िर सोचता हूँ कि आख़िर क्या लिख दूँ

जाति, मज़हब में बंटे मुल्क, फैलती नफ़रत
फ़ना होने को खड़ी कायनात की रवानी लिख दूँ
सियासत के ऊँचे पायदान पर,
ख़ामोश खड़ी है खाकी
चोर, लुटेरों, अमन परस्तों के बदन पर सजी है खादी
दौर-ए- दुश्वारियों से जूझते जिस्मों में फ़िर भी लहू है बाकी
ग़रीब की कमाई से लुटते खजाने की, नाकाम निगरानी लिख दूँ
या लिखूँ फ़िर की बेरोजगारी से बदहाल जवानी लिख दूँ
सच कहूँ..
तो लेखनी ख़फा, लफ्ज़ जुदा जुदा है
कलम एक अर्शे से बस ख़ामोश है
तो सोचता हूँ कि लिख दूँ
फ़िर सोचता हूँ कि
आख़िर क्या
लिख दूँ..

आदित्य पाण्डेय...

1 comment:

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