Monday 16 October 2017

मिठास

"एक दिन मैं तुम्हें छोड़कर चली जाऊँगी, तब ढूँढ़ते रहना मुझे दुनिया भर में," इसी कुर्सी पर बैठकर उसने ये कहा था और मैंने उसकी बात को हर बार की तरह गीदड़भभकी समझ के हवा में उड़ा दिया था।

"मैं अब से तुमसे बोलना ही छोड़ दूंगी," बेडरूम से झाँकता खाली बिस्तर लगातार उसकी यही बात दोहरा रहा था।

"मैं तुम्हारे लिए जो करती हूँ उसकी तुम्हें ज़रा भी कद्र नहीं है। एक दिन कोई नहीं होगा जो तुम्हारा ध्यान रखे," सिंक में पड़े गंदे बर्तन, बाथरूम में बिखरे हुए मैले कपड़े, फर्श पर बिछी धूल की चादर और मेरा तपता माथा रह रह कर मुझे उसके इन्हीं उलहनों की याद दिला रहा था।

"तुम मुझे इतना परेशान करोगे तो मैं सब कुछ छोड़ दूँगी। नौकरी भी, घर भी और ये दुनिया भी," घर का खुला दरवाज़ा उसकी नामौजूदगी की गवाही दे रहा था।

"अब बस मैं और नहीं रोना चाहती," इसी आईने में देखते हुए उसने कहा था।

उसने बार-बार कहा था। वो रोई थी, यहाँ तक कि गिड़गिड़ा भी गई थी कई बार मेरे सामने। पर मुझे हमेशा ही ये सब औरतों वाले नाटक लगते थे। काश! मैंने उसके दर्द को अपना समझा होता। दर्द ना समझता, उसे ही समझने की कोशिश की होती।

आज वो चली गई। मैं अकेला इस घर में खुद को कोसते हुए बैठा हूँ। जानता था कि वो कभी भी मुझसे दूर जा सकती है पर कभी मानना नहीं चाहा था। शायद उसके प्यार पर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही भरोसा था, इसी लिए जब-तब उसे लताड़ता रहा।

अपना हक़ जो समझता था उस पर। लेकिन भूल गया था कि हक़ के साथ ज़िम्मेदारी भी आती है और उससे भी ज़्यादा ज़रूरत होती है आपसी समझ की। उसे शायद मुझसे एक समझ भरे स्पर्श की ही दरकार थी।

आज देखो, मैं अकेला हूँ। और कोई दिन होता तो शायद मैं जश्न मना रहा होता उसके ना होने का, लेकिन आज, आज ही के दिन तो हम पहली बार मिले थे। सफ़ेद सलवार-क़मीज़ में वो आसमान से उतरी किसी परी से कम नहीं लग रही थी। सिर्फ मैं ही नहीं वो भी मुझ पर पहली ही नज़र में फ़िदा हो गई थी। कई दिनों बाद मोबाइल के ज़माने में भी चिट्ठी लिखकर उसने मुझे ये बताया था।
चिठ्ठी! शायद वो मेरे लिए कोई आखिरी चिट्ठी छोड़ कर गई हो।

दराज़?
सब की सब खाली।
रसोई के कैबिनेट?
यहाँ भी कुछ नहीं है।
मायूस होकर डाइनिंग टेबल पर आ बैठा हूँ। अरे, ये फलों की टोकरी के पास क्या है?
रिपोर्ट?

मैं पिता बनने वाला हूँ!

सारी ख़ुशी एक ही पल में काफ़ूर हो गई। इस हालत में जाने कहाँ होगी वो? कहीं ख़ुद के साथ कुछ ग़लत तो...नहीं, नहीं...ऐसा नहीं हो सकता। मैं उसको ढूँढ कर निकालूँगा।

अभी मैं घर से बाहर क़दम रखने ही वाला था कि वो कस के मेरे सीने से आ लिपटी।

"ओ, आरव! आज मैं बहुत-बहुत ख़ुश हूँ। तुमने...तुमने रिपोर्ट पढ़ ली?" उसकी नज़र मेरे हाथों में पकड़े कागज़ पर से होते हुए मेरे चेहरे तक आ पहुँची जो अब आँसुओं में भीगा था।

"अरे! ये क्या? तुम रो क्यों रहे हो? ये तो ख़ुशी की बात है, पगले।" उसने मेरे आँसू पोंछकर मुझे फिर से गले लगाते हुए कहा।

मैं कुछ नहीं कह पाया। बस ज़ोर से उसे अपनी बाँहों में भींच लिया। मेरे दिलोदिमाग में पिछले पंद्रह मिनट घूम रहे थे जो मैंने उससे बिछड़ने के डर के साये में बिताए थे। अब मैं उसे कहीं नहीं जाने दूँगा।

"लो, मिठाई खाओ।" उसने मेरे सामने बरफ़ी का डिब्बा खोलते हुए कहा। आज भी वो अपनी नहीं मेरी पसंद की मिठाई लाई थी।

"तुम कहाँ गई थी, रिया?" मैं ख़ुद को पूछने से रोक नहीं पाया।

"अरे! इतनी अच्छी ख़बर बग़ैर तुम्हारी पसंदीदा मिठाई के कैसे सुनाती! यही लेने गई थी।" उसने खिलखिलाते हुए कहा।

वो क्या जानती थी कि मेरे जीवन में मिठास तो एक सिर्फ उसके होने से ही है। वो नहीं हो तो सब खारा।

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