Monday 23 October 2017

*गुलाबी पेन्सिल : भाग-5*

**वो पहली मुलाकात**

ख़ुदा-ख़ुदा करके शाम हुई। घड़ी आज से पहले इतनी स्लो कभी ना थी। सच कहूँ तो आइंस्टीन की 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' आज जाकर समझ आई थी।

मैं 7:45 पर कार उसके घर के पास पार्क करके, उसका इंतज़ार कर रहा था। ज़िन्दगी में पहली बार वक़्त से पहले पहुँचा था। ये मेरी पहली क़ुरबानी थी। अभी तो आगे ना जाने क्या होने वाला था?

ठीक 8 बजे, उसे मैसेज किया।

"ख़ादिम हाज़िर है आपकी ख़िदमत में, मल्लिका-ए-हुस्न को कितना वक़्त लगेगा दीवान-ए-ख़ास से दीवान-ए-आम तक तशरीफ़ लाने में?"

जवाब आया, "बस, 5 मिनट।"

और अगले 50 मिनट तक, हर 5 मिनट बाद मैं यही पूछता रहा कि कितना टाइम, और वो यही जवाब देती रही, "बस, 5 मिनट!"

फिर आख़िरकार मेरा इंतज़ार रंग लाया और उसकी एक ही झलक ने मेरे इंतज़ार के दर्द को हवा कर दिया।

रेड तो नहीं पर ब्लैक ड्रेस पहनी थी उसने। मैंने दिल थाम कर उसे सर से पाँव तलक निहारा।

सरापा नूर, काले लिबास में ऐसा लग रहा था जैसे कोयले की खान से हीरा निकल आया हो।

आँखों में काजल, सिंपल सा मेकअप, जूड़े में लगी पेंसिल और तो और पैरों में भी पेंसिल हील।
ड्रेस थोड़ी रिवीलिंग थी। वैसे तो मैं बड़े मॉडर्न ख़्यालों वाला हूँ पर मुझे हल्का-सा गुस्सा आया। मैं नहीं चाहता था कि उसे इस रूप में मेरे सिवा कोई और देखे। मन किया उठा के ले जाऊँ कहीं दूर उसे, ज़माने की निगाह भी ना पड़ने दूँ। मैं इन्हीं ख़्यालों में उलझा रहा और वो चलती-चलती कार के बहुत करीब आ गई। एकदम से मुझे एहसास हुआ, जल्दी से कार से निकला और फ्रंट डोर उसके लिए खोला।

"अरे, इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी," वो गाड़ी में बैठते हुए मुस्कुराकर बोली।

शायद उसने ये उम्मीद नहीं की थी, पर मैं जानता था कि लड़कियों को ये सब अच्छा लगता है। जब आप किसी के दिल मे उतरना चाहो तो माइनर डीटेल्स का भी ख़ास ख़्याल रखना पड़ता है।

"आज तुम बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो," मैंने ड्राइव करते हुए, बिना उसकी तरफ़ देखे, मुस्कुराते हुए कहा।

उसने भी मुस्कुराते हुए सवाल किया, "मैं तुमको कब ख़ूबसूरत नहीं लगती वैसे?"

"अब तुम मुझको हर दिन पहले से ज़्यादा ख़ूबसूरत लगती हो तो क्या कहूँ? शायद पतंजलि के प्रोडक्ट्स का कमाल है," मैंने उसे चिढ़ाते हुए कहा क्योंकि मैं जानता था कि 'बाबा रामदेव' से चिढ़ थी उसे।

"चुपचाप ड्राइविंग पर कंसन्ट्रेट करो वर्ना कूद जाऊँगी चलती गाड़ी से," उसने चिढ़कर जवाब दिया।

तो मैंने हँसते हुए कहा, "कूदना मत, वैसे ही यू.पी.की सड़कों में गड्ढे हैं, तुम कूदोगी तो खाई बन जाएगी।"

"एक्सक्यूज़ मी! मैं इतनी मोटी हूँ?" पहले से ज़्यादा चिढ़ गई इस बार वो। मुझे लगा ज़्यादा टाँग खींचना भी सही नहीं, कहीं सच में नाराज़ ना हो जाए।

मैंने बात बदलते हुए कहा, "तुमको पता है कि अभी तुम्हें देखकर मैंने एक शेर लिख दिया?"

"सच में? सुनाओ मुझे," वो चहककर बोली।

"इस लिबास में निखार लेकर आया है तेरा रूप कुछ इस तरह, निकलती है घनी बारिश के बाद धूप जिस तरह।"

शेर सुनकर उसके गाल हया से लाल हो गए। मुस्कुराते हुए बोली, "शुक्रिया! तुम्हारा यही हुनर तुमको ख़ास बनाता है।"

मैं जानता था कि शेर में दम नहीं था, पर जिसके लिए शेर कहो उसे पसंद आ जाए, और क्या चाहिए।

दिन की तेज़ गर्मी की बाद अब मौसम सुहाना हो चला था। शायद, कहीं आस-पास बारिश हो रही थी। उसने कार का ए.सी. बंद करके ग्लासेस नीचे कर दिए। हल्की-हल्की बूंदाबांदी के साथ ठंडी हवा चल रही थी और वो मौसम को एन्जॉय करती हुई कोई गाना गुनगुना रही थी। मुझे समझ तो नहीं आ रहा था, शायद कोई फोक सॉन्ग था हिमाचली में, पर सुनने में अच्छा लग रहा था।

****

एक घंटे की ड्राइव के बाद हम रेस्टोरेंट पहुँच गए। भीड़भाड़ से हटकर, शहर से दूर ये रेस्टोरेंट एक बंगले के अंदर था। चारों तरफ़ हरियाली थी। ये बंगला शायद किसी अंग्रेज़ के लिए बना होगा।

इसका मालिक ख़ुद एक आर्ट लवर था। वो ये रेस्टोरेंट शौक़ के लिए चलाता था। वर्ना कोई कैपिटलिस्ट होता तो कब के यहाँ मॉल और फ्लैट बन गए होते। मैंने कॉर्नर टेबल पहले ही बुक कर दी थी, वहाँ खिड़की से यमुना का किनारा दिखता था और दूर कहीं जाती गाड़ियों की लंबी लाइन, जिनकी सिर्फ़ हेडलाइट्स नज़र आ रही थी।

अंदर मद्धम-सी रोशनी थी। हल्की आवाज़ में 70's और 80's के गानों का म्यूजिक बज रहा था। टेबल और चेयर्स को एंटीक लुक दिया गया था। होटल की थीम किसी राजमहल जैसी थी। दीवारों पर पेंटिंग्स लगी थीं, आस-पास की हरियाली और होटल का वेंटिलेशन कुछ ऐसा था कि ए.सी. की ज़रूरत नहीं थी।

शिखा हर एक चीज़ को बहुत गहरी नज़र से देख रही थी, उसकी आँखों में बच्चों जैसी चमक थी, जैसे हर एक चीज़ को ख़ुद में समा लेना चाहती हो।

वो वहाँ के मंज़र में डूबी थी और मैं उसमें। मैंने आज तक उसे इस तरह से नहीं देखा था कभी, ऐसा लग रहा था कि ये पल बस यहीं थम जाए और मैं ताउम्र उसे देखता रहूँ बस।

जब हम अपनी टेबल पर पहुँचे तो वो मुझसे बोली, "एक्सीलेंट चॉइस साहिल, आई मस्ट से, आई एम इम्प्रेस्ड एंड आई नेवर न्यू दैट अ प्लेस लाइक दैट माइट एग्ज़िस्ट इन देल्ही एन.सी.आर.।"

"ख़ास लोगों के लिए, ख़ास जगह ढूँढनी पड़ती है, अभी तो ये इब्तिदा है, आगे-आगे देखिये होता है क्या," मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

बारिश शुरू हो गई थी और बूंदों की आवाज़ और खिड़की से आती नरम-ठंडी हवा के झोंके किसी हसीन ख़्वाब का एहसास दे रहे थे।

खाना उम्मीद के मुताबिक एकदम लज़ीज़ था। मैं यहाँ 5 साल बाद आया था, पर हर चीज़ में आज भी वैसा ही जादू था।

खाने खाते वक़्त, बातों का सिलसिला ऐसा चला कि जब घड़ी पर नज़र गई तो साढ़े बारह बज चुके थे।

"शायद, अब चलना चाहिए हमको।"

"मैं नहीं जा रही वापस। तुम जाओ, मुझे यहीं अच्छा लग रहा है," मेरे इसरार पर वो बच्चों-सी ज़िद करती हुई बोली। मैं मुस्कुरा कर चुप हो गया।

वो मुझे देखकर हँसते हुए बोली, "तुम बहुत क्यूट हो, चलो चलते हैं अब।"

No comments:

Post a Comment