Wednesday 30 August 2017

अभी नहीं किया बस कर रहा हूँ

अपने हाथ में चाय का कप लेकर घर की बालकनी से मैं बारिश की बूंदों को आसमान से नीचे गिरता हुआ देख रहा था। क्या ये बारिश की बूंदों की तरह हम भी एक साथ कई जगह हो सकते हैं?

सोच रहा था कि क्या हो गयी है ज़िंदगी। इसकी भागदौड़ में मैं दूसरों से काफी आगे निकल आया हूँ या इतना अकेला हो चुका हूँ कि कोई साथ में है ही नहीं।

अभी जैसे कल ही की बात लगती हो जब मैं अपनी दसवीं के एग्जाम के दरमियान एक गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लेने किसी दूसरे शहर गया था। पापा क्या गुस्सा हुए थे ना, पर बड़ा भाई मुझे खुद अपने साथ ले गया था।

मैं उस प्रतियोगिता में सिलेक्ट तो नहीं हो पाया पर इतना ज़रूर पता चल गया था कि आगे जाकर मुझे करना क्या है और दिल से डर भी दूर हो गया था कि एग्जाम में अच्छे नंबर नहीं आये तो क्या होगा।

फिर बारहवीं के बाद मैंने मास कम्युनिकेशन की डिग्री ली और एक थिएटर ग्रुप ज्वाइन कर लिया। पापा हमेशा से मेरे फैसलों के खिलाफ होते थे, क्यूंकि वो डरते थे कि कहीं मैं भी दूसरे बच्चों जैसा सफल नहीं हो पाया तो; पर मैं भी कहाँ मानने वाला था? डटा रहा, क्योंकि मुझे भरोसा था अपने आप पर।

कॉलेज के दिनों से ही थिएटर में इंटरेस्ट आने लगा था। ऐसा लगता था कि यही ज़िन्दगी है और इस ज़िन्दगी का अपना एक अलग ही मजा था।

कहानी लिखना, उसके लिए किरदार तलाशना और फिर उन लोगों को अपनी कहानी के किरदारों जैसा बनाना, यही सब दुनिया थी। कभी खुद कहानियां लिखता तो कभी किरदार ढूंढता, जब किरदार ना मिलते तो खुद कोई किरदार निभा लेता था।

नाटक खत्म होने के बाद जब लोग तालियां बजाते थे तो दिल को बहुत सुकून मिलता था।

मैं यही सोचता था कि उस नाटक में जो सन्देश दिया गया है, अगर वो किसी एक इंसान ने भी अपनी जिंन्दगी में उतार लिया तो हमारी मेहनत सफल हो गयी।

आगे चलकर राइटिंग मेरा पैशन बन गया और मैं कहानियाँ, ग़ज़लें, कविताएं, लेख वगैरह लिखने लगा।

इसी बीच मेरी कविता एक हिंदी अख़बार की प्रतिष्ठित पत्रिका  में प्रकाशित हुई जो एडिटर को बहुत पसंद आयी और उन्होंने मुझे अपने एक दोस्त से मिलने का आग्रह किया। मैंने भी हामी भरी और तय तारीख को अपनी सारी रचनायें लेकर उनसे मिलने जा पहुँचा।

मुझे एक अच्छे सैलरी पर उन महाशय ने कवितायेँ प्रकाशित करने का ऑफर दिया। मैंने हाँ में जवाब दिया और कब मेरी सारी कविताएं फटे पुराने पन्नों से निकल एक बढ़िया सी किताब में तब्दील हो गयी पता ही नहीं चला।

उस वर्ष मेरी पुस्तक को बहुत सराहा गया।

इस खुशी को बांटने मैं घर गया। पापा घर पर नहीं थे तो मैने माँ से कुछ देर बातें की। भाई के बच्चों के साथ मस्ती की। अचानक से दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी ।

ठक ठक...

ऐसा लगा किसी ने नींद से जगाया हो, मेरे मैनेजर साहब ने आ कर मुझे जगाया और कहा, "तुम्हें एक मेल करने को कहा था कर दिया क्या?"

"सर अभी नहीं किया बस कर रहा हूँ।"

ये सुनकर मैनेजर साहब चले गए और मैं यही सोचता रहा गया कि अभी नहीं किया बस कर रहा हूँ या कर लूंगा के चक्कर में ज़िन्दगी में कितने काम बाकी रह गए।

अगर वक़्त पर काम कर लिए होते तो शायद ज़िन्दगी कुछ और होती।

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