Thursday 31 August 2017

*दि एलुमनाई मीट*

*दि एलुमनाई मीट*
“बात सन ‘64, उस वक्त की है जब ये स्वतंत्रता भवन नहीं था। सिरेमिक डिपार्टमेंट, डिपार्टमेंट ऑफ़ सिलिकेट टेक्नोलॉजी हुआ करता था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश श्री एन एच भगवती विश्विद्यालय के वीसी थे। मेरा दाखिला उस वक्त के बनारस कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (BENCO) में हुआ। उस वक्त आई.एम.एस (IMS) और बेंको (BENCO) की रैगिंग बड़ी मशहूर थी। लंका से मोरवी तक बिना कपड़ों के ही परेड हो जाती थी। कई बार तो हम डर के मारे स्टेशन भाग जाते थे; कोई कहीं रात गुज़रता था तो कोई कहीं।”

उन्होंने पानी का कुल्हड़ कांपते हाथों से पकड़कर अपने होंठों से लगाया। एक अजीब सी सुकून भरी मुस्कान थी उनके चेहरे पर, एक मुस्कुराहट जिसे शायद जीवन का अंतिम लक्ष्य कहा जाता हो। हमारे संस्थान में पुराछात्र सम्मलेन था, अर्थात् एलुमनाई मीट। 1967 की बैच के हमारे एक एलुमनाई थे। हमारा नुक्कड़ नाटक देखने के बाद मेरे पास आये और बोले, “बहुत अच्छा किया बेटा। खूब मेहनत करो। आगे बढ़ो और खुश रहो।”

मैंने आवाज में कंपकंपाहट महसूस की थी लेकिन आशीर्वाद अटल था।

ज़्यादा सिगरेट पीने से उनके होंठ काले पड़ गये थे, उन्होंने पानी पीकर कुल्हड़ फेंका, क्रीम कलर के रूमाल से अपने होंठो को पोंछा और फिर वही रूहानी हँसी हँसते हुए बोले, “हमारे जाते-जाते ये सब कॉलेज मिलकर आईटी-बीएचयू बन गये। अब ना बेंको रहा न मिन्मेट और ना टेक्नो। हमारे ज़माने में सब अलग था। तुम लोगों के वक्त तो लिम्बडी कार्नर हो गया। हम रात के 2 बजे लंका पर सिर्फ चाय पीने जाया करते थे। एक लड़का था साकेत भवस्कर, मेरा सबसे अच्छा दोस्त था, हम उसे साकेत बाबू बुलाते थे। पिछले साल ही एक्सपायर हो गये साकेत बाबू। बड़ा ज़िंदादिल इंसान था। अभी कितने ही दोस्त आ नहीं पाए, सबकी उम्र हो गयी, कुछ फॅमिली में बिजी हो गये।”

वे कहना चाहते थे कि अब उनका कोई दोस्त नहीं है। उनकी हँसी रो रोकर उनका अकेलापन दिखा रही थी।

“... हम दस लोगों का ग्रुप था। अभी मैं अकेला आया। ये वक्त भी ना कितना जल्दी बदलता है। पचास साल हो गये। आप हमारी मिसेज हैं,” उन्होंने अपने बगल में बैठी अपनी पत्नी की और इशारा किया।

मैंने बढ़ कर चरण स्पर्श किये तो बोलीं, “बेटा इनका तो हर रोज का है। जबसे रिटायर हुए हैं तबसे हर रोज बीएचयू की बातें।”

“आपने भी यहीं से इकोनॉमिक्स से एमए किया है। आप रिटायर्ड आईईएस अधिकारी हैं।” उन्होंने बड़ी ही शालीनता और औपचारिक तरीके से अपनी पत्नी जी का परिचय करवाया, और अपनी बात जारी रखते हुए बोले, “... इन्हें तो कभी नहीं भाते बीएचयू के किस्से। पता नहीं कैसी चिढ़ है।”

वो उन्हें कुछ छेड़ना चाहते थे।

“होगी नहीं? किस्मत तो यहीं से फूटना शुरू हुई थी,” वो मुँह फेरते हुए बोलीं।

“हमसे जो पहली बार यहीं मिलीं थीं ना, तभी...” उनके झुर्रीदार चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी।

मैं एक औपचारिक हँसी हँसा। उन्होंने अपनी बात जारी रखी, “अब तो बेटे-बेटी सेटल हो गये। हम और हमारी मिसेज अकेले रहते हैं मुंबई में। अब हमारे पास सुनाने को है ही क्या? बस कुछ किस्से हमारे लड़कपन के। आज पूरे पचास साल बाद भी ये सब अपना सा लगता है। वो रात में बिजली जाने पर पूरे हॉस्टल में चिल्लाना। एम एम वी के चक्कर लगाना...”

यूँ तो चश्मे के पीछे आँसू दिखते नहीं मगर उनकी आवाज में एक भीगापन महसूस कर लिया था मैंने।

“उस दौर में आप हर लम्हे, हर चेहरे को सेल्फियों में कैद नहीं कर सकते थे। बमुश्किल हमारे ग्रुप की एक ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीर है मेरे पास। इसलिए दिल के कैमरे में कैद कर लिया है कितनी ही बातों को। कितनी जवां कहानियाँ, बिरला से ब्रोचा, लंका से गदौलिया, एम एम वी से मधुबन के बीच गुम हो गयीं। आज भी जब मैं आ रहा था तो दोपहर की तेज़ धूप में गाड़ियों के शोर के बीच कहीं बूढ़े कानों को एक नयी आवाज सुनाई दी ‘एक लड़की भीगी भागी सी...’ रात करीब 3 बजे यही गाना गाते-गाते हम सब आ रहे थे लंका से मोरवी...”

मैंने उन्हें बीच में रोका, “माफ़ कीजियेगा सर! ढाई बजे से क्लास है। आपसे मिलकर अच्छा लगा।”

उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया आगे, मैंने कुछ सकुचाते हुए उनसे हाथ मिलाया। अपने गर्म हाथों में उनके उम्र की ठंडक और यादों की नमी महसूस कर सकता था मैं।

मैं स्वतंत्रता भवन से वर्कशॉप की तरफ जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा रहा था। मैं क्लास भी गया था, रूम पर भी आया और शाम के 6 भी बज चुके थे मगर मुझे कुछ पता ही नहीं चला। कुछ चल रहा था मेरे अंदर। एक मन कह रहा था कि ये फालतू की बातें हैं और दूसरा कह रहा था कि यही तो सच है।

“8 महीने हो गये हैं। आते ही कितनी गालियाँ दी थीं इस कॉलेज को, इस हवा में आते ही एक गुस्से से भर गया था। कितना पागलपन किया था। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो याद आता है कि स्कूल में भी तो यही था। किसे अच्छा लगता था हर रोज़ होमवर्क करके कॉपी चेक कराना। जब देखो तब डिसिप्लिन-डिसिप्लिन का लेक्चर सुनना। कितनी नफरत थी उस सेंट ज़ेवियर्स से। मगर आज जब इस कॉलेज आया तो ऐसा लगा कि नहीं स्कूल सबसे अच्छा था, कितने दोस्त थे, सब अपने जैसे थे। इस कॉलेज में हज़ारों की भीड़ में अपने जैसे दोस्तों को ढूँढना मुश्किल है। और अपूर्वा, मेरा सीक्रेट क्रश, यहाँ तो कोई था ही नहीं। आज जब उन दिनों को याद करता हूँ तो लगता है कि जब हमारे पास जो चीज़ होती है तब हमें उसकी कद्र नहीं होती।

लेकिन अब मैं थोड़ा सा समझदार हो रहा हूँ। वक्त के साथ खुद को ढालना सीख लिया है। अब एल टी 3 वाली सड़क पर गोबर परेशान नहीं करता। डिपार्टमेंट के बूढ़े हो चुके पंखों में गर्मी नहीं लगती। गलत साइड में आ रहे ऑटो वाले के लिये मुँह से कुछ गलत नहीं निकलता। ई डी की क्लासेज भी झेल लीं। पान खाते हुए प्रोफेसर्स की अंग्रेजी में गलतियाँ निकालना बंद कर दिया। कॉलेज की अंदरूनी राजनीति को भारत देश की राजनीति समझ कर माफ़ कर दिया। लैन की कमी को जिओ से भर लिया। पनीर आलू की सब्जी खा लेता हूँ। एल सी पर हर रोज चाय पीना आदत बन गया है, या यूँ कहूँ कि नफरत अब प्यार में बदल गयी है।

प्यार हो गया है इस जगह से इस कॉलेज से। अब किसी शायर की तरह इसे महबूब मानकर इसकी झूठी सही पर तारीफ मैं दिल से करता हूँ। और दिल को थोड़ा समझा बुझाकर बोला यार एडजस्ट कर ना। तो अब दिल ने भी जो है उसके साथ एडजस्ट करना सीख लिया है, इसलिए एक क्रश भी है। और आखिर में अब मुझे एक नया शब्द खोजना होगा ये रात के 2 बजे होने वाले नाश्ते को अंग्रेजी में क्या बोलेंगे भाई? ये भी यहीं आकर करने लगा हूँ ना।”

“अब मैं यादें सहेज रहा हूँ कि शायद कभी किसी एलुमनाई मीट में आज से पचास-पचपन साल बाद मेंरे पास भी कहानियाँ हों सुनाने के लिये। कोई किस्सा सुना सकूँ इसलिए कितने किस्से शुरू किये हैं मैंने, बेवजह ही...”

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