Sunday 10 September 2017

**सुनो ना!**

''सुनो ना! मुझे भूख लगी है, चलो कुछ खाने चलते हैं,'' उसने मेरी तरफ पलट कर बोला। मैं हमेशा की तरह उसके साथ वाली कुर्सी पर बैठा था।

''अभी अभी तो आया हूँ, कुछ देर रुको फिर चलते हैं,'' मैंने अपने फोन की तरफ देखते हुए कहा।

''चलो ना। फिर वापस आकर मुझे काम करना है बहुत सारा। आज मैनेजर ने फाइनल रिपोर्ट मांगी है।''

फोन से नज़र हटाकर मैंने उसकी तरफ देखा तो चश्मे के पीछे से झांकती हुई बड़ी बड़ी आंखें मुझे घूर रही थीं। उनमे गुस्सा था, मुझपर या मैनेजर पर, वो नहीं मालूम। भलाई इसी में मालूम हुई कि बेटा उठ लो अभी के अभी। फिर क्या था, कुछ ही पलों में हम फूड कोर्ट के अंदर खड़े थे।

''हाँ जी! तो क्या फरमाइश है मोहतरमा की आज?'' मेन्यू को देखते हुए मैंने पूछा।

''मैं तो वही लूंगी रोज़ की तरह- दही पापड़ी। तुम्हें कुछ नया चाहिए तो देख लो, इतना सब है यहाँ। सुनो ना! तुम यहाँ से कुछ लो, मैं चाय लेकर आती हूँ। तुम्हें क्या चाहिए?'' दूसरे काउंटर की ओर जाते हुए उसने पूछा।

''कॉफ़ी। बिना चीनी के।'' मेन्यू को एक बार फिर ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला मैंने।

5 मिनट बाद दोनों हाथों में एक एक कप पकड़े वो जल्दी जल्दी चली आ रही थी।

''हाय रे! कितनी गर्म है,'' कप को मेज़ पर रखते हुए वो बोली।

''कितनी बार कहा है कागज़ के कप में रख के लाया करो। रोज़ अपना हाथ जलाती हो,'' भौहें सिकोड़ के मैंने कहा।

''अरे बाबा, क्यों कप बर्बाद करना जब काम ऐसे ही चल जाता है,'' बोलकर मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी।

''सुनो ना, तुम इतनी कड़वी कॉफी कैसे पीते हो? वो भी बिना चीनी के?'' अपनी चाय में चीनी मिलाते हुए वो बोली।

''हा हा! तुम मीठे शरबत जैसी चाय पीने वाले लोग क्या जानो कॉफ़ी का स्वाद?'' अपने कप से एक घूँट लेने के बाद मैं बोला और वापस फोन में कुछ देखने लगा।

अचानक ही ऊँगली में कुछ जलन सी महसूस हुई और मैं ख़्यालों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में प्रवेश कर गया। बीती बातें सोचते सोचते अनायास ही मेरा हाथ कॉफ़ी के गर्म ग्लास पर लग गया था। 3 महीने हो गए हैं उस बात को और आज तुम दूसरे शहर में हो, मुझसे दूर, मेरी पहुँच से बाहर। वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में- आउट ऑफ़ रीच।

जब तुम सामने थी तब मैं आधा वक़्त फोन पर ज़ाया कर देता था और आज जब मैं अकेला हूँ तब तुमसे कहना चाहता हूँ कि...

सुनो ना, मैं पूरा पूरा दिन इंतज़ार करता था शाम आने का, कि तब हम मिलेंगे, बैठेंगे, बातें करेंगे।

सुनो ना, गर्म ग्लास से तुम्हारे चेहरे पर जो शिकन आती थी, वो मझे किसी घाव से कम दर्द नहीं देती थी।

सुनो ना, तुम पूछा करती थी कि कड़वी कॉफ़ी कैसे पीता हूँ? तुम्हारे बाद ज़िंदगी की मिठास कम हो जाएगी ये मालूम था मुझे, और ये भी कि तब सिर्फ ये कॉफ़ी ही मेरे अंदर की कड़वाहट को समझ पाएगी। और मैं आज भी इसी के घूँट में कहीं अपनी मिठास खोज रहा हूँ।

सुनो ना, सिर्फ एक ही शख्स गया है और कुर्सियां दो वीरान हुई हैं- एक मेरे सामने, एक तुम्हारे सामने, शायद।

सुनो ना, मुझे शुरुआत से ही मालूम था कि तुम्हारे इरादे और मंज़िल अलग हैं, लेकिन मैं किसी तरीके से उनमें शामिल होने की कोशिश करता रहा, हमेशा।

तुम हमेशा से बोलने वालों में से थी और मैं सुनने वालों में, लेकिन आज मैं बहुत कुछ कह रहा हूँ और तुमसे सिर्फ यही गुज़ारिश है कि ''सुनो ना...''

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