Tuesday 12 September 2017

*सपने*

*सपने*

"जी, आप पिछले कुछ दिन से दिखी नहीं। कहीं गई थीं क्या?" पीछे से किसी अजनबी की आवाज़ सुन कर सुधा जी चौंक गईं। मुड़कर देखा तो सफ़ेद पजामे-कुर्ते में एक सज्जन उनके बगल में बेंच पर बैठते हुए दिखे।

"जी नहीं, कहीं गयी नहीं थी। बच्चें छुट्टियाँ बिताने आ गये थे तो उन्हीं के साथ व्यस्त हो गई थी," ख़ुद को थोड़ा और बेंच के दूसरे कोने पर शिफ़्ट करती हुई बोलीं।

"ओह! वैसे आपको हर रोज़ शाम को यहाँ टहलते देखता था, आप नहीं दिखीं इसलिए पूछ बैठा," बात आगे बढ़ाते हुए वो सज्जन बोले।

"जी, कोई बात नहीं। मेरा टहलना हो गया है, अब चलती हूँ," कहते हुए सुधा जी उठ खड़ी हुईं तो वो सज्जन भी साथ हो लिए।

सुधा जी को ये असहज लगा मगर कुछ बोलीं नहीं, अपना चलती रहीं।

कोने से वो मुड़ने ही वाली थीं कि सज्जन बोल पड़े, " मेरा नाम अरुण है, यहीं बाजू वाली सोसाइटी में रहता हूँ, अगर आप के पास थोड़ा वक़्त है तो चलिए ना चाय पी लेते हैं, शाम वाली।"

सुधा जी को अब और अजीब लगा। वो मना करने ही वाली थीं कि अरुण बोल पड़े, "जानता हूँ, बच्चे चले गये तो आप उदास होंगी, थोड़ी देर बातें होंगी तो बेहतर लगेगा।"

ना चाहते हुए भी सुधा जी दुकान के सामने लगी कुर्सी पर बैठ गईं। इधर-उधर की बातें होने लगीं। बातों-बातों में पता चला कि अरुण जी रिटायर्ड बैंक मैनेजर हैं और उनके बच्चे विदेश में रहते हैं। पत्नी तीन साल पहले साथ छोड़ कर जा चुकी है।

जिस साफ़गोई से अरुण जी अपने बारे में हर बात बता रहे थे, सुधा जी को वो अच्छा लग रहा था। सुधा जी ने भी अपने बारे में एकाध बात बतायी, मगर पति के बारे में चुप रहीं। अरुण जी ने भी ज़्यादा नहीं कुरेदा, और चाय ख़त्म कर के दोनों अपने-अपने घर चले गये।

फिर ये साथ में चाय और टहलने का सिलसिला शुरू हो गया। सुधा जी को अरुण जी की हर बात गुदगुदा देती थी। जब बातों-बातों में जो अरुण जी ग़ालिब, फ़ैज़, फ़राज़ की ग़ज़लें और शेर बोलते थे, सुधा जी को वो सबसे ज़्यादा पसंद आता था।

अब सुधा जी भी खुल कर उनसे बातें करने लगी थीं। उनके मन के सूनेपन को अरुण जी की बातें भरने लगी थीं। जीवन भर जिस साथ को वो तरसती रहीं, वो अब जाकर, उम्र के इस पड़ाव पर मिला।

सुधा जी अब ख़ुद का और ख़्याल रखने लगी थीं। पहले तो सिर्फ़ सफ़ेद कुर्ते में टहलने आती थीं, अब किसी दिन गुलाबी तो कभी हल्के हरे रंग के कुर्ते भी नज़र आने लगे थे। बातों-बातों में एक दिन अरुण जी ने अपना पसंदीदा रंग, आसमानी बोल दिया, तो दो आसमानी कुर्ते भी ले आईं बाज़ार से।

उस दिन टहल कर दोनों बैठे ही थे कि अरुण जी ने पूछ लिया, "आप दूसरी शादी के बारे में क्या सोचती हैं?"

सुधा जी सन्नाटे में चली गईं। काफ़ी देर चुप रहीं और फिर बिना चाय पीए घर चली गईं। कई दिनों तक टहलने भी नहीं आयीं। अरुण जी ने कॉल भी किया मगर कोई जवाब नहीं मिला।

अरुण जी ने भी अब पार्क आना छोड़ दिया। महीनों गुज़र गए। बाज़ार, सब्ज़ी मंडी, कहीं भी उन्हें सुधा जी नहीं दिखी। ख़ुद को बहुत कोसा, कितनी हीं गालियाँ दीं, मन ही मन कुढ़ते रहें। "आख़िर पहले कम से कम दोस्त तो थे। रोज़ मुलाक़ात तो होती थी। और ज़्यादा पाने की चाहत में जो था वो भी गँवा दिया।"

एक दिन दोपहर में खाना खा कर सोने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक से डोर-बेल बजी। अभी कौन आया होगा, यही सोचते हुए दरवाज़ा खोला तो देखा कि सुधा जी आसमानी साड़ी में सामने खड़ी थीं।

उनको यूँ सामने पा कर वो अवाक् हो गये। थोड़ी देर बाद होश आया तो सुधा जी को अंदर आने को कहा।

दोनों चुप-चाप काफ़ी देर तक बैठे रहे। फिर अचानक सुधा जी बोल पड़ीं।

"आप मेरे लिए जैसी सोच रखते हैं मैं भी वही सोचती हूँ। आपसे मिलने के बाद मैंने अकेलेपन को जाते देखा है। आपके साथ जितना समय बिताती हूँ, वही वो समय होता है जिसमें मैं ख़ुद के साथ होती हूँ। मगर उस दिन यूँ अचानक आप ने शादी का विषय निकाल दिया तो मुझे कुछ समझ नहीं आया। घर जा कर काफ़ी देर सोचती रही और फिर एक दिन हिम्मत कर के बच्चों को फ़ोन किया और सब बातें बता दीं," इतना कह कर वो फिर चुप हो गईं।

अरुण जी भी चुप-चाप उनके दोबारा बोलने का इंतज़ार करते रहे। काफ़ी देर ख़ामोशी पसरी रही तो वो रसोई में जा कर लाल-चाय बना लाये।

सुधा जी ने चाय की पहली चुस्की ली और बोला, "आप जानते हैं मेरे पति बरसों पहले मेरी छोटी बहन के साथ शादी कर के दिल्ली शिफ़्ट हो गए। मैंने अकेले ही बेटा-बेटी को पढ़ा लिखा कर, इस मुक़ाम पर पहुँचाया है कि आज उन्हें किसी बात की कमी नहीं है। उन्होंने ने मुझे मेहनत करते हुए देखा है, ज़माने से जूझते देखा है। बेटी मेरी बड़ी है, तो उसने कितनी ही रातों मेरे आँसुओं को पोंछा है। मैंने भी अपनी पूरी ज़िंदगी इन बच्चों के लिए निकाल दी जिसका मुझे कोई मलाल भी नहीं है। मगर आज जब मैंने अपनी ख़ुशी, अपनी ज़िंदगी के बारे में पहली बार सोचा तो वो ज़माने के साथ जा खड़े हुए। उन्होंने उस पिता से रिश्ता जोड़ लिया जिसने कभी उनकी कोई क़द्र नहीं की। आप जानते हैं, मेरी बेटी कल मुझे फ़ोन कर के क्या बोली?"

अपनी धुन में बोले जा रही थीं सुधा जी।

"कहती है कि पापा आपको इसलिए छोड़ गए क्यूँकि आप शुरू से ही ऐसी थीं। आपका अफेयर अपने ऑफ़िस के बॉस के साथ था। आपको माँ कहने में शर्म आती है," कहते-कहते वो फफक कर रो पड़ीं।

अरुण जी पहले कुछ देर कुछ सोचते रहे और फिर उठ कर सुधा जी के पास गए और उन्हें गले से लगा लिया। वो जो अकेलेपन और दर्द का सैलाब ना जाने कितने सालों से अंदर भरा था, सुधा जी ने आँखों से बह जाने दिया।

घंटों यूँ ही उनके सीने से लगी रोती रहीं और अपने अधूरे ख़्वाब, वो सारे अरमान जिन्हें सोच कर वो अपने पति के घर आयी थीं, बताती चली गयीं।

अरुण जी जैसे किसी छोटे बच्चे की तरह सारी बातें गौर से सुनते रहे। दोपहर से शाम कब हो गई, पता ही नहीं चला।

फिर देर रात दोनों  साथ में टहलने निकले तो रास्ते में आइसक्रीम के ठेले को जाते देख कर अरुण जी रुक गए और दो आइसक्रीम ले आए। रोड के साइड में लगी बेंच पर दोनों बैठ कर आइसक्रीम खाने लगे।

आइसक्रीम ख़त्म कर के दोनों पार्क के अंदर चले गये। रात की रानी की ख़ुशबू पूरे पार्क को महकाए हुए थी। आसमान में पूरा चाँद निकल आया था। देर तक दोनों चलते रहें खामोशी से।

फिर अचानक गेंदे के एक छोटे से फूल को अरुण जी ने तोड़ कर सुधा जी के बालों में खोंस दिया। सुधा जी अवाक् देखती रह गईं।

अरुण जी हमेशा की तरह पूरी ज़िंदादिली और अपने शायराने अन्दाज़ में बोल उठे, "दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है, लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है।"

और अब सुधा जी ने आगे बढ़कर अरुण जी का हाथ थाम लिया और उनके कदम से कदम मिलाती हुई एक नई मंज़िल की तरफ़ बढ़ने लगीं।

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