Tuesday 19 September 2017

दर्द का सौदा

दर्द का सौदा

आज मेरा मन बेचैन है। आँखों की कोर से फिसल कर मन की गंदगी बह रही है। पतझड़ का मौसम है। बाहर भी, घर में भी। कमज़ोर कड़ियाँ टूट के झड़ रही हैं, ठीक आम के पेड़ से पीले पत्तों के जैसे। बरसात के बाद की सीलन अभी गयी नहीं है। इंतज़ार ज़ारी है कि कभी तो मीठी सी धूप मुझे अपना दीदार दे। मग़र आज वो धूप नहीं होगी। और शायद आज के बाद कभी नहीं।

दर्द के सौदागरों ने भी अपनी बिसात बिछा ली है। दर्द लिखेंगे, दर्द बेचेंगे, और लोग दर्द खरीदेंगे, दर्द पढ़ेंगे। उसी दर्द में गोते खायेंगे। उसी दर्द के कसीदे पढ़ेंगे। और दर्द-दर्द चिल्लायेंगे। दर्द बाँटने से घटता है, सुना था। मग़र अब नहीं। होता होगा किसी ज़माने में ऐसा। आज तो दर्द बाँटने से बढ़ा हुआ ही मालूम होता है।

मेरी काशी को ही देखे कोई। जब तक मैं उसे अपना दर्द नहीं बताती तब तक वो भी तो मुस्कुराती रहती है। फ़िर जब मेरी तक़लीफ़ देख लेती है तो वो भी बेज़ार सी हो जाती है। वो भी तो दर्द की सौदागर ही है। कोई लिख कर दर्द बयाँ कर जाता है और वो गा कर, नाच कर अपना दर्द बयाँ करती है। फर्क़ बस इतना है कि किसी शायर की गज़ल से कोई घायल हो या ना हो मग़र मुई काशी के ठुमके से पूरा बनारस घायल हो जाये, ऐसा हुनर है उसके दर्द में।

अक्सर जब काशी, रात के अंधेरे में अकेले रियाज़ करती है तो उसके घुँघरूओं के रोने की आवाज़ सुनाई पड़ती है। कई रोज़ मैंने छिप-छिप कर उसे अपने दर्द को घुँघरुओं में उतारते देखा है। कमबख़्त की आँखें ऐसी मुस्कुराहट बिखेरना जानती हैं कि कोई फर्ज़ भी ना कर पाये कि उन आँखों में सजने पर वो आँसुओं की बूँदें कैसी लगेंगी!

मुझे वो पढ़ा लिखा कर डॉक्टर बनाना चाहती है। मेरी काशी ख़ुद कभी पढ़-लिख ना सकी मगर मुझसे अक्सर कहती है, 'गंगा, तू तो अपनी बड़ी बहन काशी जैसी नहीं ना बनेगी? तुझे तो पढ़ लिख कर ख़ूब बड़ा बनना है। खूब बड़ी डॉक्टरनी बनेगी मेरी छोटी बहना।'

मैं उसे देख के मुस्कुरा देती हूं। मन ही मन कोसती हूँ कभी उसे। खुद दर्द सह कर मुझे मरहम देने का हुनर सिखाना चाहती है।

और आज देखो, कैसे बेसुध सी पड़ी है मेरे सामने! हिला रही हूँ, हिलती तक नहीं है। आलस की पुड़िया है पूरी। अभी जागेगी। नाच नाच कर पैरों से ख़ून निकाल लिया है। पगली है। जानती नहीं क्या कि इसके दर्द से मुझे भी दर्द होता है?

'काशी, उठ ना। उठ ना, काशी।'

कितना उठाऊँ इसे आख़िर। कोई बताये इसे कि अभी उम्र बाकी है बहुत मेरी। अभी डॉक्टर नहीं बनी हूँ मैं। अभी बीमार नहीं पड़ सकती ये। अभी इसका इलाज़ नहीं कर पाऊँगी मैं, और ना ही करवा पाऊँगी।

जियाराम जी कहते हैं कि दिदिया नहीं उठेगी अब। बताते हैं कि किसी के प्रेम में पड़ गयी थी। उसी के प्रेम ने मेरी दिदिया की जान ले ली। इतना नाची, इतना नाची कि ख़ुद की सुध ही खो बैठी। बड़ी-बड़ी डॉक्टरी फ़ेल हो गयी मेरी दिदिया के प्रेम रोग के आगे। तो क्या, उसका प्रेम मेरे प्रेम से बड़ा हो गया? मेरे बारे में भूल ही गयी मेरी काशी।

नहीं, मरे हुओं से कोई शिकायत नहीं करते, मालूम है मुझे। मर गयी है, काशी, मेरी दिदिया। अब नहीं उठेगी। और अपनी जान के बदले छोड़ गई है अपने प्रेम का रोग मेरे हिस्से। ज्यों गंगा बहती है काशी में, वैसे ही अब ये गंगा भी बहेगी अपनी काशी की याद में, सारी उम्र। जब तक साँस रहेगी, तब तक यही सोचूँगी कि बड़ा बुरा हुआ जो ये दर्द का सौदा हुआ।

और अब नहीं बनना है मुझे डॉक्टर। नहीं देना है मरहम किसी को। जो ख़ुद ज़ख्मी है, वो क्या और किसी का इलाज़ करेगा? आख़िर प्रेम जैसे रोग का कोई इलाज़ ही नहीं है जब, तो क्या मतलब ऐसी डॉक्टरी का जो किसी काशी और किसी गंगा का अलग होना भी ना रोक पाये!

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