Tuesday, 3 October 2017

जश्न

जश्न

*भाग-1*

"आख़िर तुम्हारी नज़र मुझ पर पड़ ही गई। वैसे मुझे पहचानने में तो कभी तुम गलती कर ही नहीं सकते लेकिन इतने सारे लोगों की भीड़ में शायद दिखाई नहीं पड़ी होऊंगी। मुझे देखकर एक पल को सकपका गए थे तुम, लाज़मी भी है। मेरे यहाँ आने का तो ख़्याल भी नहीं आया होगा तुम्हें।
मैं भी ना जाने इतना साहस कैसे कर बैठी। अपनी ही बर्बादी के जश्न में शामिल होने आ पँहुची। बस देखना है मुझे कि उस पल जब तुम मुझे ख़ुद से हमेशा के लिए दूर कर दोगे, तुम्हारे चेहरे पर क्या भाव होंगे? उस पल क्या तुम भी टूट जाओगे? क्या मुझे सामने देखकर ज़रा भी नहीं हिचकिचाओगे? जो भी होगा, मुझे देखना है। इस सच्चाई को कुबूलने के लिए चश्मदीद बनना बेहद ज़रूरी है मेरे लिए। क्या पता उस पल मेरा चेहरा देखकर तुम कुछ कमज़ोर पड़ जाओ और मुझे मेरी बर्बादी से दूर खींच लाओ।"

मैंने अपनी डायरी बंद की ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक सुनाई दी।

"इतनी रात को कौन हो सकता है?"मैंने सोचा कि यहाँ तो कोई मुझे जानता भी नहीं उसके सिवा। दरवाज़ा खोला तो वही था।

"दरवाज़ा बंद कर लो," उसने जल्दी से अंदर घुसते हुए कहा।

मैंने यंत्रवत उसकी आज्ञा का पालन किया। मुझे देखकर हमेशा की तरह उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं थी। गुस्से से तमतमा रहा था उसका चेहरा। जैसे अक्सर मेरी किसी गलती के प्रतिक्रिया में हो जाया करता था। मेरा चेहरा भावहीन था।

"तुम यहाँ क्या कर रही हो? जानती हो ना कि यहाँ सबको तुम्हारे बारे में पता है?" उसने तीखे स्वर में पूछा।

"वही करने आई हूँ जिसके लिए बाकी सब मेहमान यहाँ हैं।" मैंने शांत स्वर में कहा।

"मेरे सामने ज़्यादा होशियारी दिखाने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूर तुम्हारे दिमाग़ में कुछ पक रहा है।" उसने सख्ती से कहा।

"कुछ नहीं पक रहा मेरे दिमाग़ में। मैं यहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी खुशी में शरीक़ होने आई हूँ।" मेरे स्वर में अब भी कोई लड़खड़ाहट नहीं थी।

"अच्छा! एक बात का ध्यान रखना कि अगर आख़िरी वक़्त में तुमने कोई गड़बड़ की तो मैं तुम्हारा कोई साथ नहीं दूँगा," उसकी आवाज़ में धमकी का पुट था।

"जानती हूँ," मैंने उतने ही शांत स्वर में उत्तर दिया।

उसने आगे कुछ कहने के लिए अपना मुँह खोला लेकिन तभी बाहर से कोई आवाज़ आई जिसने उसका ध्यान भटका दिया। उसके चेहरे पर कुछ नरमाहट आ गई। प्यार तो वो मुझसे करता ही था।

"मैं नहीं चाहता कि तुम्हें किसी तरह का कोई नुक़सान पहुँचे," मेरा चेहरा उसने अपने हाथों में लेकर कहा।

"चिंता मत करो, कुछ नहीं होगा मुझे," मैंने हल्का सा मुस्कुरा कर कहा।

"ये शहर नहीं है, बच्चा! अगर कुछ भी पंगा हुआ तो ये लोग ना तो तुम्हें और ना ही मुझे छोड़ेंगे," उसके स्वर में बेबसी थी।

"मैं कोई पंगा नहीं करूँगी। तुम आराम से जाकर सो जाओ,"
मैंने आगे बढ़कर उसके माथे पर हल्के से फूँक मारी और उसकी आँखों को चूम लिया।

वो कुछ हल्के मन और सधे कदमों के साथ मेरे कमरे से चला गया। उसके सामने जितना शांत रहने का दिखावा मैं कर रही थी, मेरा चित्त उससे कहीं ज़्यादा अशांत था।

***********

सुबह दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनकर मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी। शायद कोई उठाने के लिए आया होगा। मोबाइल में समय देखा तो सात ही बजे थे। बाहर से हलचल की आवाज़ें आ रही थीं। मैं सुबह जल्दी उठने वालों में से नहीं हूँ लेकिन इतने शोर में सोना भी मुमकिन नहीं था। तैयार होकर नीचे पहुँची तो कोई रस्म चल रही थी। आगे जाकर देखा तो स्वर हल्दी से लिपा-पुता बैठा था। ये नज़ारा देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

"गुडमॉर्निंग! आज बड़ी जल्दी उठ गई," रक्षित ने मुस्कुराते हुए कहा।

उसके हाथ में वीडियो कैमरा था। रक्षित, मेरा और स्वर दोनों का दोस्त था। कल उसके साथ ही मैं यहाँ आई थी। वो मेरे दिल का हाल जानता था इसलिए माहौल को हल्का करने की कोशिश कर रहा था।

"हाँ, आज से मेरी ज़िंदगी के खुशनुमा पलों की शुरुआत जो हो रही है। आज के दिन कैसे सो सकती हूँ?" मैंने व्यंग्य कसते हुए कहा।

कुछ देर की ख़ामोशी के बाद मैंने सभी दोस्तों से कहा, "चलो, हम भी चलकर स्वर को हल्दी लगाते हैं।"

रक्षित को छोड़कर बाकी सब मुझे हैरानी से देखने लगे।

"आर यू श्योर?" प्रिया ने पूछा

"अरे! मेरा भी पूरा हक है स्वर की शादी की रस्मों का लुत्फ उठाने का, इतना सोचने वाली बात क्या है इसमें?" इतना कहकर मैं आगे बढ़ने लगी।

मेरा ऐसा रुख देखकर बाकी लोग भी पीछे आ गए। मुझे देखकर स्वर के चेहरे के भाव थोड़े डगमगाए। वो शायद मेरी आँखों में आँसू ढूंढ़ रहा था लेकिन उसकी उम्मीदों के विपरीत मेरे चेहरे पर मुस्कान थी। मेरी ये मुस्कान उसे और दर्द दे गई, शायद इसीलिए, जब मेरे द्वारा हल्दी लगाते वक़्त रक्षित फ़ोटो खींच रहा था तो स्वर के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

रस्म खत्म होते ही मैं फिर से अपने कमरे में आ गई। दिन में हम सभी दोस्तों का आसपास के इलाके में घूमने का इरादा था। कपड़े बदलकर मैं बाहर आई तो देखा कि स्वर भी हमारे साथ जाने को तैयार खड़ा था।

"अरे! परसों तेरी शादी है। तू कहाँ चल पड़ा हमारे साथ?" रक्षित ने उसे छेड़ते हुए कहा।

स्वर ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चुपचाप जीप में जाकर बैठ गया।
रास्ते में बार-बार उसकी नज़रें मेरे चेहरे की तरफ ही आ रहीं थीं। मैं बस उसकी ओर देखकर हल्के से मुस्कुरा देती।

उसका गांव बहुत ही खूबसूरत था। शांत लेकिन गर्मजोशी से भरपूर। गांव पार करके हम लोग शहर आ पहुँचे। बाज़ार में सभी खरीददारी करने में मशग़ूल हो गए। मैं भी एक दुकान पर कपड़े खरीदने लगी। तभी मेरा मोबाइल बज उठा, 'सामने वाली गली में पहली बांई गली लेकर, आ जाओ।' स्वर का मैसेज था।

गली बिल्कुल सुनसान थी। हम दोनों के सिवा वहाँ कोई नहीं था।

"क्या हुआ? मुझे यहाँ क्यों बुलाया?" मैंने सरलता से पूछा।

"तुमसे अकेले में कुछ बात करनी थी जो कि घर पर या उस बाज़ार में मुमकिन नहीं था।" उसने जवाब दिया।

"आज रात मेरे साथ भाग चलोगी?" उसने मेरे क़रीब आते हुए कहा।

"दो महीने पहले मैं भी यही कहती थी, स्वर। उस वक़्त तुम्हारा फैसला कुछ और था," मैंने उसकी आँखों में आँखें डालकर जवाब दिया।

"तो फिर तुम यहाँ क्या करने आई हो?" उसने परेशान स्वर में पूछा।

"तुम्हारी शादी में शामिल होने," मैंने सपाट तरीके से जवाब दिया।

"तुम्हें क्या लगता है कि तुम्हें यहाँ इस तरह से देखकर मैं ये शादी कर पाऊँगा?" वो मचल उठा।

"तो मत करो ना ये शादी," मेरे इतना कहते ही कुछ देर के लिए चुप्पी छा गई।

"तुम जानती हो मैं ऐसा नहीं कर सकता," आख़िरकार उसने हारी हुई आवाज़ में कहा।

"तो फिर बेवजह परेशान होना छोड़ दो,” मैं मुड़कर वापस जाने लगी तो उसने मेरा हाथ थाम लिया।

"तुम मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही हो?'' उसकी आवाज़ में पीड़ा साफ़ झलक रही थी।

''तुम्हारे साथ?" पल भर को मैं मुस्कुरा उठी।

"तुम्हारे साथ कुछ नहीं करना मुझे। मैं तो बस उस पल तुम्हें देखना चाहती हूँ। जब प्यार करने की हिम्मत की है तो अब अपने प्यार की बर्बादी का जश्न भी मनाना चाहती हूँ। बस इतना ही चाहती हूँ," इतना कहकर मैं मुँह फेरकर चलने लगी।

"रुशिता!" उसने पीछे से आवाज़ लगाई, पर मैंने मुड़कर नहीं देखा।

तभी मुझे अहसास हुआ कि एक आँसू मेरी पलक से फिसलकर गाल तक आ चुका था। उस नामुराद को फटाफट पोंछकर मैंने फिर से अपने चेहरे पर मुस्कान जमा ली।

वापसी में रास्ते भर मैं स्वर की ओर देखकर नहीं मुस्कुराई। हालांकि उसकी नज़रें अब भी मुझ पर ही जमी थी।

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