Saturday 2 September 2017

वो तितलियों सा

वो तितलियों सा सुबह को,
गुलों की तलाश में,
नगर नगर भटक गया,
शजर शजर में खो गया।

वो गुबार सा था शाम में,
रात तक ठहर गया,
बंदिशों की आग में,
मोम सा पिघल गया।

उसूलों के ख़ुमार में,
जब चट्टानों से टकरा गया,
ज़र्रा ज़र्रा बिखर गया,
धुआं धुआं सा रह गया।

जो खून सा जब उबल गया,
सैलाब बन के उमड़ गया,
बस्तियां वीरां वो कर गया,
हैरान शहर सा रह गया।

बुज़दिलों के रेलों में,
जाहिलों के मज़्मों में,
वो कुसूरवार सा बन गया,
सहम सहम के रह गया।

रुख्सती के लम्हों में,
वो पूछता है 'ज़ैद' मुझे,
क्या सूरत अब बदल गयी,
क्या गुलिस्तां संवर गया?

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