Friday, 25 August 2017

*कजरी*

लेखक खोज 2017

गीली मिट्टी कहते थे कजरी को सभी, पर मेरे लिए वो मेरा ब्रह्मांड थी। उसका होना ज़िंदगी का होना था। दुनियावी चीज़ों से बनकर भी वो दुनिया से परे थी।

याद नहीं उसे पहली बार कब देखा था, पर उसकी आवाज़ ने जब पहली बार कानों पर दस्तक दी, एक कोहराम सा मच गया था मेरे अंदर। वो चीखती आवाज़ और उसके हाथ को खाती हुई आग की दहदहाती लपटें। ज़माने की भीड़ थी वहाँ, उसे बचाने नहीं, तमाशा देखने। मुझे क्या हुआ था याद नहीं, बस उसे घसीटते जा रही थी, उसे बचाना था मुझे। वो बच गयी, मेरा पसंदीदा कम्बल आग को बली चढ़ा के।

अपनी 14 साल कि उम्र में मैंने खुद की भी इतनी ज़रूरतें पूरी नहीं की होंगी जैसे मैं चारों पहर दौड़ती रहती थी कजरी के फोड़े और छाले मिटाने को। सब चला गया, कजरी की मासूमियत, फोड़े, छाले पर जले हुए का दाग कभी नहीं गया। लाखों बार मैने और बाऊजी ने पूछा कि कैसे हुआ, किसने किया? पर जब भी ये सवाल आता तो वो उस जले हुए हाथ को पकड़ के ऐसे चीखती जैसे वो सवाल ना पूछा गया हो, बल्कि उसके मन में आग लगा दी गई हो।

मैं 14 से 16 की हो गयी। कजरी कितने कि थी उसे भी नहीं पता था पर कहती थी कि पगली तुम्हारे ज़िन्दगी का महीना अब लाल बगीचा लेकर आया है, मेरा तो तीसरे बरस ही आया था। तो मैंने और कजरी ने मिलकर ये फैसला किया कि मैं 18 की हूँ तो वो 21 की। बहुत हंसी थी वो मुझपे, पगली-पगली कह के। मुझे तो वो पागल लगती थी, कुछ नहीं पता था उसे, ना उसका गाँव, ना उम्र, ना कपड़े पहनने का ढंग। पता नहीं मुझे क्यों पागल कहती थी। बाऊजी उसपर बहुत लाड़ जताते थे, उसे हमारे साथ रहने भी बुला लिया था। माँ होती तो कभी ऐसा नहीं करने देती।

कजरी बस हमेशा ये जानने के लिए मरी रहती थी कि माई भी मेरी ही तरह चमकती थी क्या? मैं समझती ही नहीं थी कि वो मेरी लम्बी उँगलियों और गोरे लाल गालों पर मोहित थी। कहती थी, "ऐ पगली! तू हमेशा ऐसे ही गोरी-चिट्टी रहना वरना मैं तुझे छोड़कर कहीं दूर चली जाउंगी।"

मैं बस मुस्कुरा देती थी, कैसे बताती उसे कि मुझे उसका सांवला रंग कैसे खींचता है, जैसे काले पहाड़ सफ़ेद आसमान के लिए जीते हैं दिन से रात तक और रात के कालेपन में पहाड़ उसे अपना रंग दे ही देता है।

हर साँस मेरी बस उसकी साँसों से मिलने के लिए बेक़रार होती गयी, जैसे-जैसे वक़्त उम्र को आगे बढ़ाता गया। कजरी भोली थी, मैं नहीं, मैं तो पागल थी उसके मन के सब कोने में घुसने को। पर अंजाम भी पता था इस पागलपन का, आग में ख़ाक कर दिए जाते। मैं, मेरी कजरी को तो आग की नज़र भी नहीं लगने देती थी तो बस इस पागलपन को परवान चढ़ाती रही।

एक शाम उसके बिछौने के नीचे कुछ सादे कागज़ मिले और पानी की बूंदे जब सुख जाती हैं तब जो एक दर्द भरी कोमल सी सूखी तसवीर बनती है, वही सूखी तसवीर थी उन सादे पन्नों पर। कजरी से पूछा तो शून्य की तरफ झांकते हुए रो पड़ी। कहने लगी, "ये मेरी कहानियाँ हैं, शब्दों को समझ नहीं पाती इसीलिए अश्कों से लिखती हूँ"।

मैं बस उसे ताकती रह गयी। हाँ, उन कुछ पाक लम्हों में उसने पहली बार मुझे आँखों से छुआ था। हम साथ सोये थे उस रात, वो अपने खोखले दूर-दराज़ के ख़्वाबों में जा चुकी थी और मैं कजरी की उँगलियों में अपनी उँगलियां फंसा कर घर बनाने के सपने ज़िंदा आँखों से सुन रही थी।

कजरी को हर रात मैं सोते हुए देखने आती थी। एक रात उसके साँसों को समझते-समझते मेरी आँखें बरस पड़ी। कुछ टूट गया मेरे भीतर उस वक़्त और एक पैगाम आया। उस घड़ी को समझ आया कि कजरी ही सब है, मेरे खोये खिलौने, मेरे बचपन का वो छोटा पुराना पीतल का लोटा, मेरा रहनुमा, पुरानी आदतें, सब गलत लहजे, नमक सा विश्वास, मेरी जीने की जरुरत और मेरी ज़िन्दगी की राहत।

डर क्या करता है आपके मन-बदन के साथ, उसी रात एहसास हुआ था। मैं कजरी को कसकर जकड़ कर रोने लगी, वो भी डर गयी थी। हम दोनों बस फंस गए थे हममें। वो लोरी गा कर नींद की बेटी निंदिया रानी को मेरे लिए बुलाने की कोशिश करती रही। पर मुझे सोना नहीं था अब, मुझसे सब्र नहीं हो रहा था। डर ने मुझे वश मैं कर लिया था, मेरे जीने की ज़रुरत के खोने का डर। मैं बस उठी और उसके लबों को अपने लबों में समेट लिया। वो ना सहमी, ना भागी बस मुझमें पिघलती गयी। कजरी का काजल और मेरा काजल घुल ही गया।

अगली सुबह कितने ख़्यालों ने धक्का मारा हम दोनों को, कितने आँसुओं ने रुलाया। मेरे अंदर ना डर बचा था ना वो अधूरापन। पर कजरी को कुछ हो गया था। वो गमगीन रहने लगी थी, बेमतलब भी बोलने लगी थी और हर वक़्त वो कहीं जाने की जल्दी में रहती थी। एक दोपहर उसने कहा," पगली, तुम मेरे लिए यहाँ नहीं आयी हो, मुझे जाने दो अपनी दुनिया में वापस, हम कहीं और मिलेंगे। वहाँ हमारा घर बनाएंगे।"

फिर वो डर वापस आ गया। हर पहर जब मैं कजरी की आहट नहीं महसूस कर रही होती, डर एक-आध हिस्सा खा ही जाता कि कहीं मेरी ज़िन्दगी की राहत ख़त्म तो नहीं होने वाली।

इस जहां का कड़वा सच यही है कि हमारी साँसों की जरुरत हमेशा ये हवा पूरा कर ही दे ये मुमकिन नहीं और हर वक़्त राहत आज तक किसी जीते-जागते, आह भरते हुए जिस्म को नसीब हो यह हो नहीं सकता।

शाम से सुबह हो गयी थी पर कजरी ना जाने कहाँ थी। एक महीने से एक बरस हो गया। बाऊजी माँ के पास जाने की ज़िद्द करते करते वहाँ चले ही गए। मौत आ गयी थी हमारे दरवाज़े, पर ना जाने कजरी क्यों नहीं आयी। अब भी कोसती हूँ उस दिन को जब कजरी की आवाज़ सुनी थी। अब भी जिस्मोजां के बचे-खुचे टुकड़ों से उसे तलाशती हूँ, मेरी कजरी को। ना इंतज़ार है, ना चाहत है कि वो वापस आये। यकीन है, मेरी कजरी आएगी। हमारे लब फिर पिघलेंगे। मेरी कजरी फिर आएगी।

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