Thursday, 5 October 2017

जश्न *भाग- 3

जश्न

*भाग- 3*

बारात अपने पूरे शबाब पर थी।  मेरे आजू-बाजू सभी लोग बेतहाशा नाच रहे थे। मैं सबके बीच में बेसुध खड़ी थी। तभी मेरी नज़र घोड़ी पर सजधज कर बैठे स्वर पर पड़ी। एक पल को हमारी आँखों ने एक-दूसरे का सामना किया। उस एक पल में ना जाने क्या हुआ कि मैं अपने आप को भूलकर नाचने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे अंदर कुछ बाकी ना रहा हो, जैसे ये मेरी ज़िंदगी का अंतिम नृत्य हो।

तभी अचानक बारात में भगदड़ मचने लगी। शायद घोड़ी बेकाबू हो गई थी। मैंने घबराकर स्वर की तरफ देखा, घोड़ी उसके पूरे नियंत्रण में थी। वो सबको किनारे करता हुआ घोड़ी लेकर मेरी ही तरफ आ रहा था। मेरी कमर में हाथ डालकर उसने मुझे घोड़ी पर बिठा लिया। अब हम साथ में इस दुनिया से दूर जा रहे थे, तारों भरी रात में हम बहुत दूर निकल आए थे। अब यहाँ हम दोनों के सिवा कोई नहीं था। हम आज़ाद थे, एक दूसरे का साथ जीवनभर निभाने के लिए।

'पल भर ठहर जाओ..दिल ये संभल जाए...'
फ़ोन की घंटी सुनकर मैं अपनी मरीचिका से बाहर निकल आई। माँ का फ़ोन था।

“हैलो!” मैंने उनींदी आवाज़ में कहा।

“हैलो, बेटा! सो रही थी क्या?” माँ ने पूछा।

“हाँ, माँ! आप कैसे हो?” मैं अब तक उठकर बिस्तर पर बैठ चुकी थी।

“मैं तो ठीक हूँ। तू कैसी है बेटा? आज स्वर की शादी है ना!” माँ की आवाज़ में चिंता झलक रही थी।

“मैं बिल्कुल ठीक हूँ, माँ! आप तो जानती हैं, मैं बिल्कुल आप पर गई हूँ।” मैंने चहकते हुए कहा।

“जानती हूँ, बेटा। तू बहुत मज़बूत है। अगर ज़रा सी भी परेशानी हो तो अभी वापस आ जा।” उन्होंने कहा।

“आप ऐसी बात करोगे तो कैसे चलेगा, माँ? मैं जो करने आई हूँ, करके ही वापस आऊँगी।” मैंने दृढ़ स्वर में कहा।

“बस तुम्हारी चिंता हो रही थी। आखिर माँ हूँ तुम्हारी।”

मैं समझ सकती थी कि माँ इस वक़्त कैसा महसूस कर रही होंगी। आख़िर एक माँ ही तो अपने बच्चे के दिल का पूरा हाल जान सकती है। माँ को अपनी  तरफ़ से आशवस्त कर मैंने फ़ोन रख दिया।

बारात अब किसी भी वक़्त रवाना हो सकती थी। तैयार होने के  लिए कपड़े निकालने को अलमारी खोली तो स्वर के बॉक्स पर नज़र पड़ी। उसे अपने संदूक में रखकर, मैं इत्मिनान से तैयार होने लगी। आज तो जश्न की रात थी।

"स्वर आज मुझे मेरे सबसे ख़ूबसूरत रूप में देखेगा।"

********
स्वर अपनी दुल्हन के साथ मंडप में बैठा था। भावी जोड़ा एक-दूसरे के गले में स्वीकृति के हार पहना चुका था। पंडित रटे-रटाए मंत्र पढ़ रहा था। बारात में स्वर की नज़र एक बार मुझ पर पड़ी, एक पल के लिये समय जैसे ठहर ही गया था। फिर बैंड-बाजे की आवाज़ से दोनों वास्तविकता में लौट आए।

अब स्वर में इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह अपनी नज़रों का रुख मेरी तरफ़ कर ले। इस वक़्त वह केवल हवन-कुंड की अग्नि को एकटक देख रहा था। दुल्हन का हाथ उसके हाथों में था।

थोड़ी देर में फेरों की शुरुआत हो गई। हर एक फेरे के साथ, मैं अपने आपको एक वचन दे रही थी।

"मैं जीवन के हर सफ़र में ख़ुद का साथ कभी नहीं छोड़ूंगी। अपने आप को हर हाल में अपनाऊँगी।"

"मैं हमेशा अपने परिवार को सबसे ज़्यादा अहमियत दूँगी। कभी अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करूँगी।"

"ज़िंदगी की किसी भी उलझन में हार जाने के डर से पीछे नहीं हटूँगी।"

"जीवन में कभी भी, किसी पर भी बोझ नहीं बनूँगी। अपनी हर मुश्किल से अपने बल पर लड़ूँगी।"

"मैं अपने जीवन का हर फ़ैसला किसी से भी प्रभावित हुए बिना, अपनी पूरी सोच-समझ से लूँगी।"

" मैं किसी को भी, किसी भी तरह से अपने सम्मान को ठेस नहीं पहुँचाने दूँगी।"

और ये आख़िरी फेरा... इसके बाद सब कुछ ख़त्म हो जाएगा। या शायद जीवन के किसी नए सफ़र की शुरुआत। आख़िरी क़सम का वक़्त था।

"आज के बाद फिर कभी मैं किसी को अपने वर्तमान या भविष्य के साथ खेलने नहीं दूँगी।"

जश्न पूरा हो चुका था। अब विदाई की बारी थी। सभी लोग नए जोड़े को बधाई देने के लिए उनकी ओर जा रहे थे लेकिन मेरे कदम विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। बाहर खड़ी गाड़ी और उसमें रखा सामान मेरा इंतज़ार कर रहे थे। एक बार को जी किया कि मुड़कर आख़िरी बार स्वर को निहार लूँ लेकिन अब बाकी ही क्या रह गया था। मेरे प्यार का गुरूर मेरी आँखों के सामने चकनाचूर हो चुका था।

कार में बैठते ही, ना जाने ख़ुद पर या फिर अपनी किस्मत पर ठहाके मारकर हँस पड़ी। शायद इस हँसी में कोई दर्द भी था। तभी आँख से एक आँसू गिर पड़ा, ना जाने क्यों?

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