हम मुसाफ़िर यूं ही मसरूफ़े सफ़र जाएंगे
बेनिशां हो गए जब शहर तो घर जाएंगे
किस क़दर होगा यहां मेहर-ओ-वफ़ा का मातम
हम तेरी याद से जिस रोज़ उतर जाएंगे
जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ारे-सुख़न
हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएंगे
नेमते-ज़ीस्त का ये करज़ चुकेगा कैसे
लाख घबरा के ये कहते रहें मर जाएंगे
शायद अपना ही कोई बैत हुदी-ख़्वां बनकर
साथ जाएगा मेरे यार जिधर जाएंगे
‘फ़ैज़’ आते हैं रहे, इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम
आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएंगे
©®फैज अहमद फैज
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