ज़हीर अंसारी
बरगद के पेड़ की सबसे ऊँचीं डगाल पर एक गिरगिट उलटा लटका हुआ था। उसकी मुंडी धरती की तरफ़ थी और पूँछ आकाश की तरफ़। देखने से यही लग रहा था कि अब नीचे आया कि तब। लगा कि कहीं यह सिर के बल गिर न जाए। सिर के बल गिरा तो समझो टाटा, बाय-बाय। ज़िंदा रहने का कोई चांस नहीं।
गिरगिट की यह स्थिति देख नीचे से सियार ने आवाज़ लगाई, ऐ भाई क्या ख़ुदकुशी करना है जो इस तरह जान जोखिम में डालकर लटके हो, ज़रा से चूके तो धड़ाम नीचे गिरोगे और गिरते ही जीवन फ़ायनली डिस्पोज़ ऑफ़ हो जाएगा।
लटके-लटके गिरगिट टर्राया। बोला.. मैं ख़ुदकुशी करने जा रहा हूँ। अब मुझे ज़िंदा रहने पर शर्म आ रही है।
सियार ने पूछा, अरे अचानक तुम्हें क्या हो गया। क्यों मारना चाहते हो ? तुम तो बहुत चतुर हो, वक़्त और मौक़ा देखकर रंग बदल लेते है। तुम तो हरे के साथ हरा और लाल के साथ लाल रंग के हो जाते हो। तुम तो क़ुदरती ऐक्टर हो, रंग बदलने में तुम्हारा कोई सानी नहीं है। जहाँ जैसा रंग देखा वैसा रंग बना लेते हो। तुम्हारी इसी कला से जीव जगत घबराता है। तुम कब, कहाँ किस रंग में उपस्थित हो जाओ, कोई अनुमान नहीं लगा सकता। कहावत है गिरगिट से तेज़ कोई रंग नहीं बदल सकता।
इतना सुनना था कि गिरगिट बिफर गया। लटके-लटके अपनी पूरी शक्ति लगाकर भर्राई आवाज़ में चीख़ा। अबे ओ सियार, ज़्यादा होशियारचंद की औलाद मत बन। तू तो सिर्फ़ आवाज़ बदल-बदल कर सबको उल्लू बनाता रहे। तू यह नाटक अपना शिकार दबोचने के लिए करता है जबकि मैं अपनी जान बचाने के लिए रंग बदलता हूँ।
ओके..ओके.. फिर क्यों ख़ुदकुशी करने पर तुला है। क्यों बेवक्त मारना चाह रहा है। क्या क़र्ज़ में डूबा है या बेरोज़गार हो गया। या फिर तेरे बीवी- बच्चे कुपोषण का शिकार हो गए ?
नहीं भाई….मैं रंग बदलने में इंसानों का मुक़ाबला नहीं कर पा रहा हूँ। इंसान ने रंग बदलने में महारत हासिल कर ली है। वो तो मुझसे भी तेज़ रंग बदलने लगे हैं। अपने स्वार्थ के लिए पहले सीमा के नाम पर, फिर धर्म के नाम पर, फिर अमीर-ग़रीब के नाम पर और अब अगड़े-पिछड़े के नाम पर फटाफट रंग बदल रहे हैं। इंसानों की सियासत तो देखिए कोई अपनी ढपली अपना राग बजा रहा है, तो कोई ढपली-राग के विरोध में ददुंभी बजा रहा है। कोई किसी से दूर भाग रहा तो कोई आपस में जुड़ रहा है। सब मानवता की छाती पर सियासत की रोटी सेंक रहे हैं। इंसान मर रहा है और सियासी लोग मौतों पर सियासत कर रहे हैं।
मैं तो अपनी जान बचाने के लिए रंग बदलता हूँ वो इंसानों की जान लेने के लिए। मुझे न सत्ता बचाने की चाहत है और न ही सत्ता में आने की चाहत। मैं तो अपने प्राकृतिक गुणों के साथ जीवन-यापन करता आया हूँ। आज के इंसान तुझे और मुझे दोनों को मात दे रहे हैं। कुर्सी के फेर में पर्दे के पीछे और सामने से वो सब कृत्य कर रहे हैं जिसे देखकर मेरी आत्मा मुझे जुतियाने लगी है। कहती है कि रंग बदलने में तुझ से आगे इंसान निकल गए। जा कहीं डूब मर।
अब तू बता, मुझे किसी सत्ता, धन-दौलत और मान-सम्मान की दरकार हैं क्या, नहीं न। न ही मैं कुछ हथियाने के लिए अपनी बिरादरी की जान लेता हूँ। इंसानों को देखो सत्ता के लिए ताबड़तोड़ जानें ले रहे हैं। वर्तमान हालात देखकर मेरी अंतरात्मा कचोटने लगी है। इंसानों की रंग बदलती फ़ितरत से मैं शर्मसार हूँ और उनसे पिछड़ गया हूँ इसलिए आत्महत्या कर रहा हूँ। यह कहते हुए गिरगिट ने गहरी साँस भरी और दूसरे ही पल वह धड़ाम से धरती पर गिरा और….
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Wednesday, 4 April 2018
इंसानी फ़ितरत देख गिरगिट ने की ख़ुदकुशी….
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