Saturday, 26 August 2017

**बेसहारा बाप की व्यथा**

मेरी बिटिया की ज़िन्दगी, बन गयी एक कथा,
आओ सुनाऊँ तुम्हें, एक बेसहारा बाप की व्यथा।

बड़े प्यार और नाज़ से, पाला था मैंने उसको,
रखा था यह ख़्याल, कि छू ना पाये कोई कष्ट उसको।

मेरी लक्ष्मी थी, घर की रौनक थी वो,
फिर भी दुनिया की रीत यही, कि पराया धन थी वो।

हैसियत से ऊपर उठकर, चुना था राजकुमार उसके लिए,
रानी की तरह बिटिया राज करेगी, यही सोचा था उसके लिए।

मगर वक़्त को तो कुछ और ही मंज़ूर था,
बिटिया के जीवन में दुःख आना भरपूर था।

घर में कदम रखते ही, सास के ताने शुरू हुए,
दहेज़ में कितना कम दिया तेरा बाप, यही तराने शुरू हुए।

सीख कर गयी थी, अपनी माँ से मेरी बिटिया,
कि रखना इज़्ज़त ससुराल की, चाहे कुर्बान करनी पड़े चैन और निंदिया।

बिटिया सब कुछ भूल, सब कुछ सहती गयी,
लाख बेइज़्ज़त होने पर भी, इज़्ज़त करती गयी।

एक आश की किरण अब भी, जल रही थी उसकी आँखों में,
कि सजना मेरा साथ है मेरे, इन कंटीले राहों में।

मगर यह उम्मीद भी टूटी, कांच के मूरत की तरह,
जब सजना उसका उसपर हाथ उठाया, क्रूर राक्षस की तरह।

राजकुमार के भेष में, दामाद दानव निकला था,
राजमहल उसका, बिटिया के लिए कालकोठरी निकला था।

खिलखिलाती हँसी अब, सिसकियों में बदल चुकी थी,
फूल सी बच्ची मेरी, जालिमों के हाथ मसल चुकी थी।

वक़्त बीतता गया, नीरस पड़े शाम के साथ,
बिटिया को प्यारी बिटिया हुई, निखरे हुए सुबह के साथ।

किलकारी वाले घर में, सिसकियों की आवाज़ बढ़ गयी थी,
बेटी के रूप में बोझ जो, मेरी बिटिया पैदा कर गयी थी।

इन सभी बातों से मैं अनजान, चला नवासी को देखने बिटिया के घर,
घर में था एक अज़ीब सा सन्नाटा, लटका हुआ था पंखे से मेरी बिटिया का धड़।

उधर भूख से बिलख रही थी नवासी मेरी,
इधर दुनिया को छोड़ चुकी थी बिटिया मेरी।

क्या करूँ, क्या पूछूँ, कुछ नहीं था सूझ रहा,
क्या वज़ह थी इसके पीछे, कुछ नहीं था दिख रहा।

इस तरह बन गया, मेरी बिटिया का जीवन एक कथा,
इस हादसे से मैं टूट कर बिखर गया, यही थी एक बेसहारा बाप की व्यथा।

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