Saturday, 26 August 2017

*औरत, औरत की दुश्मन*

हर शाम की तरह आज भी ऑफिस से आने के बाद घर का वही माहौल था। सब बैठ कर, एक टीम बना कर इधर उधर की बातें कम और चुगलियां ज्यादा कर रहे थे, और मम्मी हमेशा की तरह टीम की कप्तान थीं। शायद वो सही कहता है, कि तुम्हारी माँ सब को अपने उंगली पर नचाना चाहती है, अपना वर्चस्व बना कर रखना चाहती है।

मुझे शुरू से घर में सब पागल ही समझते है, क्योंकि इनकी तरह मैं दुनिया को नहीं समझना चाहती। इनकी तरह अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, में दुनिया को बांट कर नहीं देखना चाहती।

बात चल रही थी दादी माँ के बारे में। दादा जी कह रहे थे कि दादी के पिताजी के पास बहुत ज़मीनें थीं। मैं ऑफिस से आई ही थी, थकी हुई थी, और मेरा इन लोगों के बीच बैठने का कोई इरादा नहीं था, क्योंकि इनकी नज़रों में मेरी बातें इन्हें तीर की तरह चुभती हैं, क्योंकि मैं इनकी तरह हमारे समाज में शुरू से जो दकियानूसी बातें चली आ रही है, वो नहीं चाहती। मैं परिवर्तन चाहती हूँ, और परिवर्तन इन्हें पसंद नहीं।

फिर भी बात ऐसी थी कि मुझसे रहा नहींगया। मैं बैठ कर दादा जी की बात सुनने लगी। मैंने मौका देखते ही कहा कि जब दादी के पापा के पास इतनी ज़मीनें थी, तो शादी के बाद तो वो ज़मीनें अभी होंगी ही ना आपके पास? दादा जी हँसने लगे और बोले कि अरे नहीं बेटा। मैंने दहेज नहीं लिया था। मैंने कहा कि दादा जी मैं दहेज की बात नहीं कर रही हूँ, मैं दादी के हक़ की बात कर रही हूँ कि उनके पापा के प्रॉपर्टी में उनका भी तो हिस्सा था।

मेरा बस इतना ही कहना था कि सब एक स्वर में हँस कर मेरा मज़ाक उड़ाने लग गए। मैंने कहा क्यों भाई, मैंने ऐसा कौन सा जोक क्रैक कर दिया कि आप लोग हँसे जा रहे हो। तो मम्मी हँसते हुए कहती हैं कि तू बात ही ऐसी कर रही है। लड़कियों का शादी के बाद उसके पति का सबकुछ उसका ही होता है, तो फिर माँ-बाप से क्यों मांगना? सब हँसे जा रहे थे, और मुझे रोना आ रहा था। मैंने कहा कि क्यों नहीं? जब पैदा करते हो तो संतान में सबकुछ बराबर ही बंटना चाहिए। ये भेदभाव क्यों? धीरे धीरे सब के चेहरे से हँसी ऐसे गायब हो रही थी, जैसे चन्द्र ग्रहण पर चाँद की चांदनी गायब हो जाती है। हमेशा की तरह पापा चुप ही थे, शायद वो सही पूछता है कि तुम्हारे पापा गुलामों की तरह मम्मी की हर बात पर हाँ में हाँ क्यों मिलाते हैं; फिर से मम्मी ने कहा कि ऐसा नहीं होता। बस फिर क्या था, मैं अपनी आदत के अनुसार लग गयी अपनी बात को सही करने में, और मैं सही थी भी। मैंने कहा कि क्यों ऐसा नहीं होता; अब तो कानून भी इस बात की इज़ाज़त देता है कि पिता की प्रॉपर्टी में बेटियों का उतना ही हक़ है, जितना बेटों का।

मेरे इतने कहने की देरी थी, कि तभी एक जोरदार थप्पड़ मेरे गालों पर पड़ता है, और मुझे अपनी सही औकात बताने की कोशिश करता है। वो थप्पड़ किसी और का नही, बल्कि मेरी माँ का था, वही माँ जो ऐसे तो सब के सामने बड़े बड़े बोल बोलती है कि हम लड़की लड़के में फ़र्क नही करते, हम तो भइया एक बराबर मानते हैं। माँ-बाप नहीं सोचेंगे अपने बच्चों का तो कौन सोचेगा?

यही सोच रहे हो आप मेरे लिए, कि हक़ की सिर्फ बात करने पर मुझे गले लगाने की बजाय थप्पड़ जड़ दिया।

मम्मी का कुतर्क शुरू हो चुका था। पहला कुतर्क वही घिसा पिटा कि लड़कियों को अपने पति से मांगना चाहिए, हम अच्छे घर में शादी कर दें तेरी बस। मम्मी ने कहा कि ऐसे में तो तेरी बुआ लोग को भी हमारे पुराने घर पर धावा बोल देना चाहिए.. मैंने चिल्ला कर कहा, हाँ क्यों नहीं, पुराने घर पर सिर्फ पापा चाचा को हक़ किसने दे दिया। घर दादा जी का है, और दादा जी का ही खून बुआ लोग में भी दौड़ रहा है, उनका पूरा हक़ बनता है अपना हक़ मांगने का।

ये बात सुनते ही मम्मी का चेहरा देखने वाला था। ऐसे भाव जैसे उनसे उनकी कोई विरासत छीनने की बात कर रहा हो, मगर मम्मी शायद भूल गयी थी, कि वो भी एक औरत ही हैं, और औरत से पहले किसी की बेटी।

मम्मी ने अपना कुतर्क जारी रखा। कहने लगी कि क्यों भाई, तेरी बुआ के पति लोग भीख मांग रहे हैं क्या? अच्छा कमा खा रहे हैं, रख सकते हैं अपने परिवार को अच्छे से। शादी के बाद तेरी बुआ ही तो राज कर रही है।

राज? कैसा राज? किसी के अधीन होकर कैसा राज?

शादी शादी शादी।

हमारे माध्यम वर्गीय परिवार की यही हालत है। बेटियों के पैदा होते ही उनके सुनहरे भविष्य की चिंता कम, और शादी, दहेज़, दिखावे की चिंता ज़्यादा होने लगती है। हमें कलम से पहले कड़छी पकड़ना सिखाया जाता है, हमें गाड़ी की स्टीयरिंग संभालने से पहले, घर के सभी घरेलू जिम्मेदारियों को संभालना सिखाया जाता है। निरंतर यही चलता जाता है। हम अपनी माँ से सीखते है, फिर हम माँ बन कर अपनी बेटियों को सिखाते है, फिर उनकी बेटी, फिर उनकी बेटी करते करते, ये गुलामी मानसिकता कब हमारे परिवार का अहम हिस्सा बन जाती है, पता ही नहीं  चलता।

शुरू से मर्दों ने अपनी सत्ता बरक़रार रखने के लिए, समाज में कई ऐसे कुतर्कों को गढ़ा है, जो आज हमारे पिछड़े, गुलामी समाज का एक अभिन्न अंग हो चुका है। उन्हीं में से एक कुतर्क है कि बेटी तो पराया धन होती है। क्यों? किसने बनाया ये नियम और क्यों माने हम? हम अपनी मर्ज़ी से तो इस दुनिया में आये नहीं।

एक बात और कही जाती है कि औरत त्याग की मूर्ति होती है। दरअसल ये बात कह कर पितृसत्ता के पक्षधर, हम औरतों से बेहिसाब त्याग चाहते हैं। शादी से पहले भाई के लिए त्याग, और शादी के बाद पति के आराम के लिए अपने सुख चैन का त्याग। और ज़रूरी नहीं कि पितृसत्ता के पक्षधर मर्द ही हो। मेरी माँ इस बात की उत्तम उदाहरण है। पक्षधर ना होतीं तो दो प्यारी बेटियों के बाद, बेटे की चाह में मंदिर मस्जिद के धक्के ना खातीं। ज़्यादातर घरों में बेटों की चाह महज सिर्फ़ इसलिए होती है कि घर को उसका वारिस मिल जाये, घर का पैसा घर में ही रह जाए। हमारे कपटी समाज ने बहुत सोच समझ कर इन वारिस, उत्तराधिकारी, जैसे भारी भारी शब्दों को समाज में फैलाया है। क्यों? लड़कियाँ वारिस क्यों नहीं हो सकती? आज ऐसा क्या है जो लड़कियाँ नहीं कर पा रही हैं? करोड़ों का व्यापार हो, या फिर पुलिस की वर्दी में समाज के दुश्मनों को सबक सिखाने की बात हो, लड़कियाँ हर जगह बेहतर कर रही हैं, और तो और इतिहास भी इस बात की साक्षी है कि लड़कियों में वो सब बातें कूट कूट कर भरी हुई हैं, जिससे वो उत्तराधिकारी बनने के योग्य हैं। रजिया सुल्तान और रानी लक्ष्मी के बारे में बात तो सब करेंगे मगर जब बात बेटियों को उनका हक़ देने की हो, तो फिर कपटी समाज का कुतर्क चालू हो जाता है।

लड़की चुप चाप सब की बातें सुन ले, उसके शादी का फैसला वो ना ले, कलम किताब से पहले चूल्हा चौका को तरजीह दे, अपना हक़ ना मांगे, घर में भले ही लड़का चाँद की चांदनी के साथ पूरी रात बिता कर क्यों ना आये, लड़कियाँ शाम होते ही घर में आ जाये, तो हमारे कपटी समाज की नज़रों में ऐसी लड़कियाँ परफेक्ट मैरिज मटेरियल होती हैं। जी हाँ, सही सुना आपने हम मटेरियल ही होते हैं, एक बेहद ही अलग प्रकार के मटेरियल, जिसमें इन्वेस्टमेंट बचपन से होता है, और शादी के वक़्त कीमत लेकर नहीं, कीमत देकर हमें बेच दिया जाता है, एक पितृसत्ता से दूसरे पितृसत्ता के राज में। और फिर ये कुतर्क दिया जाता है कि हम शादी के बाद राज करेंगे। भला कैसे करेंगे? और राज नहीं, एक बराबर अधिकार चाहिए बस। हमें मैरिज मटेरियल नहीं, सोशल वारियर बनना है बस। क्योंकि हमारा समाज ही तो किताबों में यह बात कहता है कि जिस घर की महिलाएं सशक्त हो, पूरा घर अपने आप सशक्त हो जाता है।

अब वक्त आ गया है कि हम निर्बल नहीं, प्रबल बनें और छीन लें अपना हक़।

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