Friday, 18 May 2018

'दिन-रात खटते हैं फिर लोग पूछते हैं काम क्या करती हो

क्या आप ऐसी नौकरी करना पसंद करेंगे जिसमें रोज 16-17 घंटे काम करना हो, हफ़्ते में किसी दिन छुट्टी न मिले, कोई सैलरी न मिले और इन सबके बाद कहा जाए कि तुम काम क्या करते हो? दिन भर सोते तो रहते हो!

असल में देश का एक बड़ा तबका ऐसी ही नौकरी कर रहा है. ये नौकरी करने वाली औरतें हैं. वो औरतें जिन्हें हम हाउसवाइफ़, होममेकर या गृहणी कहते हैं.

गृहणियों के काम को लेकर एक बार फिर चर्चा छिड़ी जब कुछ दिनों पहले कर्नाटक हाइकोर्ट ने एक मामले में अपना फ़ैसला सुनाया.

हुआ ये था कि एक दंपती के बीच तलाक़ का मामला चल रहा था और पत्नी को अदालत में पेश होने के लिए मुज़फ़्फ़रनगर से बेंगलुरु आना था.

वो फ़्लाइट से आना चाहती थी लेकिन पति चाहता था कि वो ट्रेन से आए क्योंकि वो हाउसवाइफ़ है और उसके पास 'बहुत खाली वक़्त' है.

'सातों दिन एक जैसे'

हालांकि जस्टिस राघवेंद्र एस चौहान पति की दलील से सहमत नहीं हुए और उन्होंने कहा कि एक हाउसवाइफ़ भी उतनी ही व्यस्त होती है जितना बाहर जाकर नौकरी करने वाला कोई शख़्स.

ये सारा मामला सुनकर दिल्ली में रहने वाली काजल पूछती हैं, "अगर कोई मर्द ऑफ़िस से आता है तो हम उसके लिए चाय-पानी लेकर तैयार रहते हैं लेकिन हम दिन भर काम करते हैं तो हमारे लिए कोई ऐसे नहीं करता. क्यों?"

तीन साल की बच्ची को गोद में लिए बैठी नेहा कहती हैं, "घर में सबसे पहले सोकर हम औरतें उठती हैं, सबसे देर में बिस्तर पर भी हम ही जाते हैं और फिर सुनने को मिलता है कि हमारे पास काम क्या है!"

चार बच्चों की मां सुनीता जब अपने काम गिनाना शुरू करती हैं तो ये लिस्ट जैसे ख़त्म होने का नाम नहीं लेती.

गुलाबी लिबास पहने श्वेता फीकी हंसी हंसते हुए कहती हैं, "ऑफ़िस में काम करने वालों को तो हफ़्ते में एक-दो दिन छुट्टी भी मिल जाती है. हमारा तो मंडे टू संडे, सातों दिन एक से होते हैं."

क्या कहते हैं पुरुष?

दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले सागर मानते हैं कि काम तो किसी के पास कम नहीं है. घर के काम की अपनी चुनौतियां हैं और बाहर के काम की अपनी.

वो कहते हैं ''ये कहना ग़लत होगा कि घर पर औरतों के पास काम नहीं होता. हमें तो छुट्टी मिल भी जाती है लेकिन उनको तो हमेशा मुस्तैद रहना पड़ता है. कभी बड़ों की ज़िम्मेदारी...कभी बच्चों की और पति तो है ही. आदमी तो अपनी ज़िम्मेदारी औरत पर डाल देता है लेकिन औरत किसी से नहीं कह पाती. बहुत मुश्किल है हाउसवाइफ़ होना.''

दिल्ली के ही चंदन का मानना है कि घर संभालना बहुत मुश्किल काम है. वो कहते हैं ''ऐसी औरतें काम पर भले न जाती हों लेकिन उनके बिना आप भी काम पर नहीं जा पाएंगे. नाश्ता तो वही देती हैं...फिर साफ-सुथरे, प्रेस किए कपड़े मिल जाते हैं. ये सब हाथों-हाथ नहीं मिले तो दुनिया के आधे मर्द नौकरी पर ही न जा पाएं. जाएं तो रोज़ लेट ही पहुंचे.''

ज़मीनी सच्चाई

अभी कुछ वक़्त पहले मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भारत की मानुषी छिल्लर से पूछा गया था कि दुनिया के किस प्रोफ़ेशन को सबसे ज़्यादा सैलरी मिलनी चाहिए थी.

उन्होंने जवाब दिया था- मां को. कहने की ज़रूरत नहीं है भारत में मांओं की एक बड़ी संख्या गृहणी का काम करती है. यानी वो काम जिसे शायद काम की तरह देखा भी नहीं जाता.

मानुषी के इस जवाब की ख़ूब चर्चा हुई थी और इसके बाद उन्होंने प्रतियोगिता जीतकर विश्वसुंदरी का ताज अपने सिर पर पहना.

घर संभालने वाले महिलाओं की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि मानुषी का जवाब ज़मीनी हक़ीकत के काफी क़रीब था.

रिसर्च

ऑर्गनाइज़ेशन फ़ॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट की एक रिसर्च में भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका जैसे 26 देशों का अध्ययन किया गया.

रिसर्च में पाया गया कि इन देशों की महिलाएँ रोज औसतन साढ़े चार घंटे बिना किसी पैसे के काम करती हैं.

55 साल की सुशीला जब नई-नई दुल्हन बनकर ससुराल आई थीं तो घर में इतना काम होता था कि उन्हें खाने-पीने तक का होश नहीं रहता था.

वो कहती हैं, "सुबह उठकर गोबर थापना, गाय-भैंसों को चारा-पानी देना, घर के बच्चों को स्कूल भेजना, मर्दों को टिफ़िन देना, दोपहर में खाना बनाना और फिर शाम का चाय-नाश्ता बनाकर रात के खाने की तैयारी. पूरे दिन रोटी खाने का टाइम ही नहीं मिलता था. रोटी भी भागते-दौड़ते खाते थे."

'हाउसवाइफ़ क्यों कहते हो'

सुशीला आगे कहती हैं, "इतना खटने के बाद घर का ख़र्च चलाने के लिए पैसे मांगो तो पहले सैकड़ों सवाल पूछे जाते हैं और फिर एक-एक पैसे का हिसाब मांगा जाता है. हम भी नौकरी करते तो अपनी मर्जी से पैसे ख़र्च करते."

मंजू को 'हाउसवाइफ़' शब्द से ही दिक्कत है.

उन्होंने कहा, "ऑफ़िस में काम करने वाले या तो दिन में काम करते हैं या रात में. हम लोग तो सुबह से लेकर रात तक काम करते रहते हैं. फिर हमें हाउसवाइफ़ क्यों कहते हो? हम तो घर की महारानी हुए."

कुछ वक़्त पहले चेतन भगत ने भी इस बात की ओर ध्यान दिलाया था. उन्होंने औरतों से कहा था कि वो ख़ुद को हाउसवाइफ़ कहना बंद करें क्योंकि उनकी शादी घर से नहीं बल्कि एक शख़्स से हुई है.

घरवालों की सबसे बुरी बात क्या लगती है?

"हमें सोने नहीं देते. हम बिस्तर पर ठीक से लेट भी नहीं पाते कि कभी चाय की फ़रमाइश आ जाती है तो कभी किसी के एक पैर का मोजा नहीं मिलता." ये नेहा की शिकायत है.

क्या चाहती हैं ये औरतें

उमा को सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा तब आता है जब लोग उन्हें सीरियल देखने के लिए ताना मारते हैं.

वो कहती हैं, "दिन-रात काम करते हैं. थोड़ी देर सीरियल देख भी लिया तो क्या आफ़त आ गई? इसी बहाने हमारा दिल बहल जाता है तो इसमें क्या तकलीफ़ है?"

तो ये औरतें चाहती क्या हैं?

थोड़ी सी तारीफ़, थोड़ी सी इज़्जत और थोड़ा सा प्यार.

उमा, काजल, पूनम, सुनीता और नेहा एक-एक करके जवाब देती हैं.

काजल कहती हैं, "हम जो काम करते हैं वो सैलरी से कहीं ऊपर का है. आप बस इस सच को कबूल लें, इतना ही हमारे लिए काफ़ी होगा.

वैसे अगर मोटा-मोटा अनुमान लगाया जाए तो भी होममेकर्स को कम कम से कम 45-50 हज़ार रुपए महीने मिलने चाहिए.

ब्रिटन में ऑफ़िस फ़ॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स (ONS) की रिपोर्ट (2014) के मुताबिक़ अगर सिर्फ़ घरों में लॉन्ड्री (कपड़े धोने और उनके रखखाव) को गिना जाए तो इसकी क़ीमत 97 अरब से ज़्यादा होगी यानी ब्रिटेन की जीडीपी का 5.9%.

कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि गृहणियों को उनके काम के पैसे भले न मिलते हों लेकिन इन्हें आर्थिक गतिविधियों का हिस्सा माना जाना चाहिए.

वर्षा

तुरंत ही बारिश बंद हुई है। खिड़की से बाहर की ओर झांका तो हर चीज बारिश के पानी से धुली, नहाई, साफ-सुथरी नजर आने लगी। मेघ की बाल्टियां उड़ेल कर आसमान भी जैसे कुछ धुली हुई-सी नीली फितरत में आ गया हो। आम के पेड़ के गहरे हरे रंग में पानी की बौछारों ने कुछ ताजगी-सी भर दी। अमरूद के पेड़ों की हल्के हरे रंग की पत्तियां जैसे अभी-अभी खिली हों। लीची के नन्हे-से हरे फल धुल कर चमकने लगे। इधर-उधर बेसबब उगी जंगली घास भी खिलखिलाने लगी। तपती गरमी से राहत पाकर चिड़िया का संसार भी ज्यादा चहकने लगा। जाने कौन-सा पंछी है जो कांपते हुए सुरों में लंबी तान देता है। रह-रह कर गूंजती आवाज जैसे उसकी आत्मा की पुकार हो। अभी वह सहमा-सा अपने घोंसले में छिपा बैठा रहा होगा, जब बादल गरज कर धरतीवासियों को डरा रहे थे। बिजली चमक कर उन्हें उनके तुच्छ होने का अहसास करा रही थी। बादल वर्षा कर तृप्त हो गए तो धरती के प्राणी गुंजायमान हो उठे। जैसे मेरा थका मन भी कुछ हरा-हरा-सा हो गया। कुदरत के बीच रहते हुए जीवन कितना जुदा होता है! खिड़की से झांकें तो पेड़-पौधे मुस्कराते हुए मिलते हैं। घर से बाहर निकलें तो वे हमें कुदरत की अनूठी छटा का अहसास कराते हैं। तितलियां देखने के लिए हमें किसी थ्री-डी फिल्म की जरूरत नहीं। बस हम अपने किसी काम में मगन हों और तितलियों का जोड़ा ठीक हमारी नाक के सामने से अपने नन्हें परों को हिलाता हुआ निकल जाए। छोटे बच्चों के पास चिड़ियों से भरा हुआ घर-आंगन हो और चिड़िया देख वे खुश होकर बोलें- ‘आ चिया, आ चिया।’ मेरे साथ दरअसल ऐसा होता है। शाम का समय किसी ऊंघती हुई बालकनी पर नहीं बीतता। न ही मोबाइल में इयरफोन लगाकर बोरियत तोड़ने की जरूरत महसूस होती है। कुछ न कर बस देखें भी, तो इधर एक डाल पर चिड़िया उड़ी, उधर दूसरी डाल पर दूसरी चिड़िया आ बैठी। सबसे अच्छा तो तोतों के झुंड को देख कर लगता है। आम के पेड़ की शाखें अमियों से झुकी हुई हैं। तोतों के झुंड को उनकी पसंद की सारी चीजें मिली हुई हैं।

अब यह बात मुहावरे वाली नहीं लगती कि कौवा कांव-कांव करेगा तो कोई मेहमान आता है। ऊंची-ऊंची कई मंजिला इमारतों वाले शहर में कौवों की कांव-कांव भी नहीं सुनाई देती। केवल कबूतरों की गुटरगूं रहती है। तो अब जब कौवा कांव-कांव करता है तो लगता है कि कोई मेहमान तो नहीं आने वाला। फिर गिलहरियों को देखने का भी अपना लुत्फ होता है। एक पेड़ से उतरती है, दूसरे पेड़ पर सर्र से चढ़ जाती है। आगे के दो छोटे पांवों में पकड़ कर जब कुछ खा रही होती है तो लगता है कि इससे मासूम दुनिया में कोई और नहीं। इसकी मासूमियत पर उधर पड़ोस वाली बिल्ली की नजर हमेशा लगी रहती है। वह अक्सर ढलती शाम में शिकार पर निकलती है, ताकि लोग उसे न भगाएं। शायद उसका शिकार भी अंधेरे में बिल्ली को ठीक से न देख पाए। बिल्ली मौके का फायदा उठा कर हवा में छलांग लगाती है और एक ‘विकेट’ गिर जाता है! एक बदमाश चिड़ियों का झुंड भी है। जब अपने आसपास की दुनिया को ध्यान से देखने में मगन हों तो वे हल्ला मचाती किसी पेड़ की डाल पर उतरती हैं। अपने पंखों से जैसे आसमान की चादर खींच कर पेड़ के ऊपर चांदनी की तरह डाल देती हों। या फिर छत पर छापा मार देती हैं या फिर गाड़ी की छत पर ही। इनकी चहचहाहट इतनी तेज होती है और ये इतनी तेजी से अपने पंख झाड़ती रहती हैं कि इन्हें बदमाश चिड़ियों का झुंड कहना गलत नहीं लगता। इधर-उधर खाने-पीने की चीजें चुगने के बाद वे फुर्र हो जाती हैं।

छोटे बच्चों को मिट्टी से खेलना बहुत अच्छा लगता है। वे नन्हे हाथों से मिट्टी उठाते हैं और वापस डाल देते हैं। बस जब वे दौड़ लगाते हैं तो छोटी-छोटी क्यारियों में सूख चुके लहसुन-प्याज के कुचले जाने का डर सताता है। बच्चे भी कोशिश करते हैं कि उनके पांव क्यारियों में न पड़ कर छोटी-छोटी पगडंडियों पर पड़ें। टमाटर अभी लाल और बड़े होने का इंतजार कर रहे हैं। बच्चे इनकी तरफ आकर्षित होते हैं। हम तो नंगे पांव फर्श पर पैर रखने को तैयार नहीं होते और ये बच्चे नंगे पांव ही घरों में बनी छोटी क्यारियों, जंगली घासों के ऊपर दौड़ लगाते हैं। फर्श पर नंगे पांव चलना ज्यादा मुश्किल है, घास-मिट्टी में नहीं। बारिश के बाद दूर से झिलमिलाती पहाड़ियां भी ज्यादा हरी-भरी सी लगने लगी हैं। बारिश जैसे धूल भरी तस्वीरों की मिट्टी झाड़ देती हो। पेड़ों का मन खुश कर देती हो। पंछियों को तर कर देती हो। यही बारिश ज्यादा होती है तो डर भी लगता है। डर भी अपनी जगह सही है। फिर जब धूप आएगी तो सारी नमी को सुखा देगी। जैसे कम्प्यूटर पर ‘रिफ्रेश’ का बटन दबाते हैं, कुदरत भी बारिश के जरिए सब कुछ ‘रिफ्रेश’ कर देती है। हमें जिंदगी की ओर लौटना है तो कुदरत की ओर लौटना होगा। कुदरत के साथ कुछ समय बिताना होगा।

तुम को ढूंढ़ा करती हैं - रवि प्रभात

 पुरे आठ पहर नज़रे
तुम को ढूंढ़ा करती हैं

किसी के आहट पे
तुम को ढूंढ़ा करती हैं

एहसास तो पास का होता है
पर नज़रे उदास होती है

तेरे बेरुखी आदतों ने
मुझे उदास कर रखा है

तुम दिख जाओ एक बार
इस चाह में
बार बार पलटा करता हूँ

फिर वही खालीपन
और वही ख़ामोशी
मुझे चिढ़ा जाती है

पुरे आठ पहर नज़रे
तुम को ढूंढ़ा करती है

Tuesday, 1 May 2018

गज़ल - जिसे हालात ने मारा हो मुहब्बत कैसे वो कर ले

जिसे हालात ने मारा हो मुहब्बत कैसे वो कर ले,
जो खुद टूटा सितारा हो मुहब्बत कैसे वो कर ले,
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सहारा देना पड़ता है इक दूजे को मुश्किल में,
जो खुद ही बेसहारा हो मुहब्बत कैसे वो कर ले,
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जीने के लिए छत भी ज़रूरी होती है सर पर,
जो खुद बेघर बेचारा हो मुहब्बत कैसे वो कर ले,
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जीत है लाज़िमी शतरंज की बाज़ी हो या दिल की,
जो खुद दुनिया से हारा हो मुहब्बत कैसे वो कर ले,
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ना कोई राह ना मंज़िल ना जीने का कोई मकसद,
जो खुद बादल आवारा हो मुहब्बत कैसे वो कर ले,
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।

Monday, 30 April 2018

ठुकराओ अब कि प्यार करो मैं नशे में हूँ - शाहिद कबीर

ठुकराओ अब कि प्यार करो मैं नशे में हूँ

जो चाहो मेरे यार करो मैं नशे में हूँ

अब भी दिला रहा हूँ यक़ीन-ए-वफ़ा मगर

मेरा न ए'तिबार करो मैं नशे में हूँ

अब तुम को इख़्तियार है ऐ अहल-ए-कारवाँ

जो राह इख़्तियार करो मैं नशे में हूँ

गिरने दो तुम मुझे मिरा साग़र संभाल लो

इतना तो मेरे यार करो मैं नशे में हूँ

अपनी जिसे नहीं उसे 'शाहिद' की क्या ख़बर

तुम उस का इंतिज़ार करो मैं नशे में हूँ

Saturday, 28 April 2018

वही फिर मुझे याद आने लगे हैं - ख़ुमार बाराबंकवी

वही फिर मुझे याद आने लगे हैं

जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं

वो हैं पास और याद आने लगे हैं

मोहब्बत के होश अब ठिकाने लगे हैं

सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं

तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं

हटाए थे जो राह से दोस्तों की

वो पत्थर मिरे घर में आने लगे हैं

ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को

ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं

हवाएँ चलीं और न मौजें ही उट्ठीं

अब ऐसे भी तूफ़ान आने लगे हैं

क़यामत यक़ीनन क़रीब आ गई है

'ख़ुमार' अब तो मस्जिद में जाने लगे हैं

पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं - गुलज़ार

पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं

शाम से तेज़ हवा चलने के आसार से हैं

नाख़ुदा देख रहा है कि मैं गिर्दाब में हूँ

और जो पुल पे खड़े लोग हैं अख़बार से हैं

चढ़ते सैलाब में साहिल ने तो मुँह ढाँप लिया

लोग पानी का कफ़न लेने को तय्यार से हैं

कल तवारीख़ में दफ़नाए गए थे जो लोग

उन के साए अभी दरवाज़ों पे बेदार से हैं

वक़्त के तीर तो सीने पे सँभाले हम ने

और जो नील पड़े हैं तिरी गुफ़्तार से हैं

रूह से छीले हुए जिस्म जहाँ बिकते हैं

हम को भी बेच दे हम भी उसी बाज़ार से हैं

जब से वो अहल-ए-सियासत में हुए हैं शामिल

कुछ अदू के हैं तो कुछ मेरे तरफ़-दार से हैं