Friday, 13 April 2018

अज़नबी

रमाकान्त पटेल 

मैं तो एक अज़नबी हूँ

आता रहता हूँ ख़्वावों में

करती हो मेरा इंतजार क्यों

क्यों देखती हो राहों में

मांगती हो हरदम ख़ुदा से

आता हूं तुम्हारी दुआओं में

कहती नहीं हो किसी से तुम

रहती हो अपनी कदराओं में

मैं जानता हूँ कि तुम मुझको

ढूँढती रहती हो चौबारों में

तुमने कहा है ये ख़ुद से

वो होगा एक हजारों में

अज़नबी की कोई पहचान नहीं

वो मिल जाएगा इन्हीं नज़ारो में

          -रमाकान्त पटेल

वक्त से हालात से नज़रें मिलाना सीख लो

सतीश बंसल 

वक्त से हालात से नज़रें मिलाना सीख लो
मुश्किलों को साज करके गीत गाना सीख लो

हार जायेगी यकींनन हार इक दिन देखना
हौसला अपना अगर तुम ख़ुद बढा़ना सीख लो

दौर में खुदगर्जियों के ये ज़रूरी है बहुत
तुम भरोसे को सभी के आजमाना सीख लो

इश्क पर पाबंदियाँ हैं बोलना भी है मना
बात दिल की अब निगाहों से बताना सीख लो

चाहते हो फैन लाखों हों तुम्हारे भी अगर
आँख भौहें तुम अदाओं से चलाना सीख लो

चाहिये कद में उँचाई तो करो ये काम तुम
नेकियाँ करते रहो सर को झुकाना सीख लो

कौन होता है किसी के आँसुओं से ग़मज़दा
फायदा बस है इसी में मुस्कुराना सीख लो

सतीश बंसल

तुम्ही तुम

‌‌‍तुम्ही तुम क्यो नजर आते हो
हर पल हर क्षण क्यो सताते हो
ख्वाबो मे तुम दिखते हो
हकिकत में भी सामने आ जाते हो
हर मुश्किल काम आसान बनाते हो
और आसान को भी मुश्किल कर देते हो
कभी बच्चो की तरह रोते हो तो
कभी बड़े बन समझाते हो
खुद रूठते हो खुद मान जाते हो
मुझे मनाने का अवसर ही कहां देते हो
कभी शिकायतें हजार करते हो
कभी तारीफो की पुल बॉध देते हो
शुरूआत तुम्ही करते हो
अंत भी जल्द कर देते हो
मुझे तो बीच मे ही अकेला छोड़ देते हो
कभी चॉद देखने की बात करते हो
कभी मुझमे ही चॉद देखते हो
क्या कहूँ तुझे मैं
तुम्हारी हर अदा निराली है
बस ज्यादा नखरे ना दिखाना
क्योकि अब हमारी बारी हैं।

निवेदिता चतुर्वेदी’निव्या’

गजल - तमन्ना उसकी की है जो कभी हांसिल नहीँ होगा


तमन्ना उसकी की है जो कभी हांसिल नहीँ होगा
कभी कश्ती की बाहों में कोई साहिल नहीं होगा।

जला दूं तुम कहो तो दिल की हर ख्वाहिशें अपनी
मगर फिर भी हमारा दिल तेरे क़ाबिल नहीं होगा।

बहुत समझा लिया है हमने अपने दिलको हमदम
तेरी दुनिया में दोबारा ये दिल शामिल नहीं होगा।

भरोसा कर लिया मैंने लगाया इल्ज़ाम जो तुमने
सफ़ाई दें भी क्या अपनी गवाह हाज़िर नहीँ होगा।

अब चलो हम हार जाते हैं जब हमको हारना ही है
दिल्लगी के खेल में तुमसे बड़ा माहिर नहीं होगा।

हां बड़े अहसान हैं हमपर खुदाया शुक्रिया है तेरा
दर्द ए उल्फत में भी जानिब दिल काफिर नहीँ होगा।

— पावनी

Wednesday, 4 April 2018

इंसानी फ़ितरत देख गिरगिट ने की ख़ुदकुशी….


ज़हीर अंसारी
बरगद के पेड़ की सबसे ऊँचीं डगाल पर एक गिरगिट उलटा लटका हुआ था। उसकी मुंडी धरती की तरफ़ थी और पूँछ आकाश की तरफ़। देखने से यही लग रहा था कि अब नीचे आया कि तब। लगा कि कहीं यह सिर के बल गिर न जाए। सिर के बल गिरा तो समझो टाटा, बाय-बाय। ज़िंदा रहने का कोई चांस नहीं।
गिरगिट की यह स्थिति देख नीचे से सियार ने आवाज़ लगाई, ऐ भाई क्या ख़ुदकुशी करना है जो इस तरह जान जोखिम में डालकर लटके हो, ज़रा से चूके तो धड़ाम नीचे गिरोगे और गिरते ही जीवन फ़ायनली डिस्पोज़ ऑफ़ हो जाएगा।
लटके-लटके गिरगिट टर्राया। बोला.. मैं ख़ुदकुशी करने जा रहा हूँ। अब मुझे ज़िंदा रहने पर शर्म आ रही है।
सियार ने पूछा, अरे अचानक तुम्हें क्या हो गया। क्यों मारना चाहते हो ? तुम तो बहुत चतुर हो, वक़्त और मौक़ा देखकर रंग बदल लेते है। तुम तो हरे के साथ हरा और लाल के साथ लाल रंग के हो जाते हो। तुम तो क़ुदरती ऐक्टर हो, रंग बदलने में तुम्हारा कोई सानी नहीं है। जहाँ जैसा रंग देखा वैसा रंग बना लेते हो। तुम्हारी इसी कला से जीव जगत घबराता है। तुम कब, कहाँ किस रंग में उपस्थित हो जाओ, कोई अनुमान नहीं लगा सकता। कहावत है गिरगिट से तेज़ कोई रंग नहीं बदल सकता।
इतना सुनना था कि गिरगिट बिफर गया। लटके-लटके अपनी पूरी शक्ति लगाकर भर्राई आवाज़ में चीख़ा। अबे ओ सियार, ज़्यादा होशियारचंद की औलाद मत बन। तू तो सिर्फ़ आवाज़ बदल-बदल कर सबको उल्लू बनाता रहे। तू यह नाटक अपना शिकार दबोचने के लिए करता है जबकि मैं अपनी जान बचाने के लिए रंग बदलता हूँ।
ओके..ओके.. फिर क्यों ख़ुदकुशी करने पर तुला है। क्यों बेवक्त मारना चाह रहा है। क्या क़र्ज़ में डूबा है या बेरोज़गार हो गया। या फिर तेरे बीवी- बच्चे कुपोषण का शिकार हो गए ?
नहीं भाई….मैं रंग बदलने में इंसानों का मुक़ाबला नहीं कर पा रहा हूँ। इंसान ने रंग बदलने में महारत हासिल कर ली है। वो तो मुझसे भी तेज़ रंग बदलने लगे हैं। अपने स्वार्थ के लिए पहले सीमा के नाम पर, फिर धर्म के नाम पर, फिर अमीर-ग़रीब के नाम पर और अब अगड़े-पिछड़े के नाम पर फटाफट रंग बदल रहे हैं। इंसानों की सियासत तो देखिए कोई अपनी ढपली अपना राग बजा रहा है, तो कोई ढपली-राग के विरोध में ददुंभी बजा रहा है। कोई किसी से दूर भाग रहा तो कोई आपस में जुड़ रहा है। सब मानवता की छाती पर सियासत की रोटी सेंक रहे हैं। इंसान मर रहा है और सियासी लोग मौतों पर सियासत कर रहे हैं।
मैं तो अपनी जान बचाने के लिए रंग बदलता हूँ वो इंसानों की जान लेने के लिए। मुझे न सत्ता बचाने की चाहत है और न ही सत्ता में आने की चाहत। मैं तो अपने प्राकृतिक गुणों के साथ जीवन-यापन करता आया हूँ। आज के इंसान तुझे और मुझे दोनों को मात दे रहे हैं। कुर्सी के फेर में पर्दे के पीछे और सामने से वो सब कृत्य कर रहे हैं जिसे देखकर मेरी आत्मा मुझे जुतियाने लगी है। कहती है कि रंग बदलने में तुझ से आगे इंसान निकल गए। जा कहीं डूब मर।
अब तू बता, मुझे किसी सत्ता, धन-दौलत और मान-सम्मान की दरकार हैं क्या, नहीं न। न ही मैं कुछ हथियाने के लिए अपनी बिरादरी की जान लेता हूँ। इंसानों को देखो सत्ता के लिए ताबड़तोड़ जानें ले रहे हैं। वर्तमान हालात देखकर मेरी अंतरात्मा कचोटने लगी है। इंसानों की रंग बदलती फ़ितरत से मैं शर्मसार हूँ और उनसे पिछड़ गया हूँ इसलिए आत्महत्या कर रहा हूँ। यह कहते हुए गिरगिट ने गहरी साँस भरी और दूसरे ही पल वह धड़ाम से धरती पर गिरा और….

Tuesday, 3 April 2018

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो - बशीर बद्र

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो

वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से

ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा

तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ

जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में

जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है

ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो

नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं

उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

   - बशीर बद्र

ग़ज़ल - रंगमंच की डोर


रंममंच की डोर खिंची तो, नाम सभी बदनाम मिले,
कुछ झंडों में छिपे हुए कुछ सिक्कों में नीलाम मिले।

थाम के उँगली हमने जिनकी, ईश्वर को पाना चाहा
उनके चर्चे, गली-गली में, कौड़ी-कौड़ी दाम मिले।

वतनफरोशों की आँखों में, झाँक रूह भी काँप उठी
एक तिरंगे के टुकड़े में, लिपटे रहमत-राम मिले।

प्यार-मोहब्बत,भाई-चारे की महँगी दुकानों पर
बड़े ही सस्ते खूनी खंजर नफरत के पैगाम मिले।

भक्त समझकर जब जा पहुँचे ,बहुरुपियों की बस्ती में
कंठीमाला हाथ में थामे , सौ-सौ आसाराम मिले।

नमकहलाली क्या होती है, उन्हें सिखाना बड़ा कठिन
जहाँ विभीषण की सूरत में, व्यक्ति नमकहराम मिले।

घर, मरघट को समझ के हमने, भूल बड़ी नादानी की
यहाँ ‘शरद’ से जानेवाले कहते ‘सत्य हैं राम’ मिले।

— शरद सुनेरी