Tuesday, 10 October 2017

चढ़ गए हम भी सूली पर

"ये भी पसंद नहीं आया। ना जाने कितने नाटक हैं इस लड़की के। अरे बूढ़ी हो जाएगी तब करेगी क्या शादी? कोई पसंद हो तो वो बता दे पर नहीं इन्हें तो माँ-बाप को परेशान करके ही सुख मिलता है," हमारी बस एक ‘ना’ ने प्रवचनों की झड़ी लगा दी। ये तो अब हर रोज़ की बात हो गई थी।

दरअसल, हम हैं एक मिडिल-क्लास हिन्दुस्तानी लड़की, जिसकी अब उम्र हो गई है शादी की। आजकल के हर यंगस्टर की तरह हम भी चाहते हैं लाइफ़ को थोड़ा और एन्जॉय करना। अब हमारे पेरेंट्स को कौन समझाए ये बात, वो तो हर रोज़ बस एक नया रिश्ता ले आते हैं। आज जो लड़का दिखाया वो खाता-कमाता तो सही था लेकिन हमें उसकी सूरत पसंद नहीं आई।

असल बात बताएँ? हमारे सिर पर सवार है लव मैरिज का भूत। हालाँकि घरवालों की तरफ़ से कोई परेशानी नहीं है। वो तो आगे बढ़-बढ़कर पूछते हैं, "बता दे कोई हो तो, कर दें शादी; छुटकारा मिले।"

अब उन्हें कौन समझाए कि लव मैरिज के लिए कोई होना भी तो चाहिए। हम हैं कि हमें कोई मिलता ही नहीं। जीवन के इस मोड़ पर ‘अक्षय कुमार’ की कही एक बात अक्सर याद आ जाती है, "जो हमें चाहिए उसे कोई और चाहिए और जिसे हम चाहिए, वो किसे चाहिए?"

कभी-कभी ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी का सार छुपा है फिल्मों में।

हमने सोचा क्यों ना घरवालों के लिए जो खुन्नस थी उसे जिम में पसीने के साथ बहा दिया जाए। क्या पता इसी बहाने हम कुछ आकर्षक हो जाएँ और हमारे प्रिंस चार्मिंग की नज़र हम पर पड़ जाए। संयोग ही था कि जिम में वर्जिश करते हुए हमारा सपनों का राजकुमार हमारे सामने आ खड़ा हुआ। उसके कसरती बदन को हम निहार ही रहे थे कि यहाँ भी माँ का फ़ोन आ गया। घर जल्दी आने का ऑर्डर दे डाला। किसी लड़के से मिलने जाना था। माँ से तने बैठे हम आज तो इस ‘सलमान’ के फैन से बात किए बिना घर जाने वाले नहीं थे।

"एक्सक्यूज़ मी!" हमारे बोलने पर उसने जो लुक दिया, भगवान का शुक्र था कि हमारी दिल की धड़कनें क़ाबू हो गईं। वर्ना पहले ही दिन उन्हें हमें बाँहों में उठा कर अस्पताल ले जाना पड़ता। शुरुआती झटके से उभरते ही हमने पूछा, "क्या आप यहाँ इंस्ट्रक्टर हैं?"

उन्होंने शर्मा कर जवाब दिया, "नहीं-नहीं! मैंने तो अभी दो महीने पहले ही जॉइन किया है।"

उनके अंदाज़ से लग रहा था कि वो भी हम में दिलचस्पी ले रहे हैं और ये पहली दफ़ा नहीं जब वो हमें देख रहे हैं। छुप-छुपकर ताकने का सिलसिला यहाँ से भी चालू था।

ख़ैर, इंट्रोडक्शन के बाद जैसे ही हम बात आगे बढ़ाने वाले थे, कि माँ का फिर से फ़ोन आ गया। अपनी क़िस्मत को कोसते हुए फ़टाफ़ट जिम से बाहर आ गए।

जाने किससे मिलवाने वाले थे आज घरवाले। माँ के कहे मुताबिक़ तैयार तो हो गए पर किसी भी ऊल-जलूल इंसान से मिलने का हमारा बिल्कुल भी मूड नहीं था। जाना तो था ही, सो पहुँच गए रेस्ट्रॉन्ट में।

अब जाने कौन-सी मिल्कियत का मालिक था, आधे घण्टे से ऊपर हो गया, अभी तक जनाब ने दर्शन नहीं दिए थे। उसके इंतज़ार में हम चार कप चाय पी चुके थे। तभी सामने से सूट-बूट में चश्मा लगाए एक नौजवान हमारी टेबल की तरफ़ बढ़ने लगा। हम आँखें बंद करके भगवान से प्रार्थना करने लगे कि ये वो लड़का ना हो। यक़ीन मानिए इतनी शिद्दत से फ़रियाद हमने दसवीं बोर्ड के रिज़ल्ट के वक़्त भी नहीं की होगी। अब मामला ज़िन्दगी और मौत का था भाई!

जब वो शख़्स हमारे बग़ल वाले टेबल पर बैठा तो इतनी राहत मिली जितनी कभी मेट्रो में सीट मिलने पर भी नहीं मिली होगी। तभी हमें कंधे पर एक थपथपाहट महसूस हुई।

"श्रुति?" किसी ने पीछे से कहा।

हमने पीछे मुड़कर देखा और हम हामी में सिर हिलाने से ज़्यादा और कुछ ना कर पाए। ऐसा लगा जैसे हमारे सपनों का जहां हमारे सामने खड़ा हो। जिम में देखा वो बांका नौजवान हमारे रूबरू था।

"अरे! आप यहाँ?" एक पल के लिए तो हमें लगा कि वो हमारा पीछा करते हुए यहाँ तक आए हैं पर फिर दिमाग़ ने हमें असलियत का एहसास कराया कि हम कोई हूर की परी नहीं जो कोई इस तरह हमारे पीछे आए।

"हाँ, मैं! आप ही से मिलने आया हूँ पर आपकी नज़रें तो कहीं और ही भाग रही हैं," उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा।

"हम तो यहाँ अपनी शादी के लिए लड़का देखने आए थे," हम अपनी सफाई देने ही लगे थे कि वो शरारत भरी आँखों से झाँकतेे हुए बोले, "जानता हूँ।"

अब आगे क्या हुआ आपको क्या बताएँ। तीन महीने बीत चुके हैं इस बात को। दो दिन बाद हमारी शादी है। उस दिन जिसने कंधा थपथपाया था वो अब हमारे होने वाले पतिदेव हैं। उन्हें देखते ही हमारी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। सूट-बूट में उनका कसरती बदन और भी कहर ढा रहा था। हम तो उन पर पहले से ही फ़िदा थे, उन्होंने बताया कि हम भी उन्हें तस्वीर और बायो-डेटा देखते ही पसन्द आ गए थे। और तो और उन्होंने जिम भी हमसे जान-पहचान करने के लिए ही जॉइन किया था, लेकिन हम तो अपनी ही दुनिया मे खोए रहते थे। ख़ैर, जो हुआ अच्छे के लिए ही हुआ। सबसे बड़ी बात ये थी उनका नेचर भी वैसा ही था जैसा हमें चाहिए था। खुले विचार, फ्रेंडली अंदाज़, उम्दा सोच, उनकी इन सब बातों ने हमें उनका और क़ायल कर दिया था।

हमारा लव मैरिज करने का सपना दो दिन बाद पूरा होने वाला था। बस एक बात हमें आज तक खलती है। क्या ये सच में लव मैरिज है? हमें तो अरेंज्ड ज़्यादा लग रही है। उन्हें हमारे पेरेंट्स ने ही तो अरेंज किया था उन्हें हमारी लाईफ़ में। ख़ैर, हमें क्या! लव तो हमें हो ही गया था उनसे, अब मैरिज करने में भी कोई हर्ज़ नहीं था।

तो बस, चढ़ गए हम भी सूली पर।

Sunday, 8 October 2017

*करवा चौथ वाला प्यार*

"देखो, बेवकूफी मत करो। रात भर से खांस रही हो, बदन बुखार में तप रहा है, और इस हालत के में भी निर्जल व्रत रखने का फितूर सवार है।"

"गौरव, ये मेरा पहला करवाचौथ है। प्लीज़ रखने दो मुझे, मैं कर लूंगी, तुम चिंता मत करो।"

"तुम्हें पता है कि करवा चौथ का व्रत क्यों रखा जाता है?"

"हाँ, पति की अच्छी सेहत और लंबी उम्र के लिए।"

"Exactly! और ऐसी बीमारी में, इतनी तकलीफ झेलकर, खुदकी सेहत खराब करके क्या तुम भगवान को मेरी लंबी उम्र के लिए कन्विंस कर पाओगी? मतलब, 'Charity begins at home' में भगवान भी तो विश्वास रखते होंगे ना।"

"क्या गौरव, कैसी बातें कर रहे हो। सब क्या सोचेंगे कि नई बहु से करवाचौथ का व्रत भी नहीं रखा गया।"

"सब क्या सोचेंगे, इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता, All I care about is your health. अब और बहस नहीं करोगी, ये लो ब्रेकफास्ट करो और चुपचाप दवाई खाके सो जाओ।"

"पर गौरव, करवाचौथ..."

"वो मैं रख रहा हूँ ना, तुम्हारी अच्छी सेहत के लिए। Get well soon."

"अरे! तुम क्यों रखोगे? नहीं, नहीं ऐसा कुछ नहीं हो रहा। लोग क्या कहेंगे.."

"क्या कहेंगे, यही कहेंगी तुम्हारे सहेलियाँ कि वो देखो, शोभिता का पति कितना केयरिंग है, काश! हमारे पति भी इतने केयरिंग होते।"

"बदमाश! हर बार मज़ाक करके argument जीत लेते हो।"

"सुनो..."

"हाँ, बोलो।"

"शाम को टाइम से छत पर आ जाना, मैं छलनी लेकर तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।"

"बदमाश! आ जाऊंगी। चलो अब जाओ..."

"सुनो..."

"अब क्या?"

"आय लव यू।"

"ओफ्फो! आय लव यू टू। सुनो.."

"हाँ, बोलो।"

"तुम्हें, सच में, मेरे लिए व्रत रखने की कोई ज़रूरत नहीं है।"

" ओ मैडम! तुम्हारे लिए कौन व्रत रख रहा है। मैं तो अपनी लंबी उम्र के लिए व्रत रख रहा हूँ। तुम ठीक रहोगी तभी तो मैं भी जिंदा रह पाऊंगा ना।"

"ओफ्फो! तुम भी ना, कितने प्यारे हो।"

Saturday, 7 October 2017

लोग क्या कहेंगे

वो 29 साल की है, कामयाब है, अपने पैरों पर खड़ी है, ज़िन्दगी अपने तरीके से जीती है, खुश है।

फिर भी हर रोज़ माँ-बाप और रिश्तेदार उसे, "शादी की उम्र निकल रही है, अब तुझे कौन मिलेगा!"
के ताने सुनाएंगे।

क्योंकि बेटी की शादी नहीं हुई, तो लोग क्या कहेंगे?

वो दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं, शायद शादी भी हुई है, या नहीं भी हुई।

लोग सड़कों पर, खुलेआम शौच करेंगे, चोरी, मर्डर और बलात्कार तक करेंगे, पर वो दोनों पब्लिक में एक-दूसरे को किस करने से पहले सौ बार सोचेंगे।

क्योंकि अगर किसी ने देख लिया, तो लोग क्या कहेंगे?

वो 27 साल का है, अपने माँ-बाप का लाडला, उनकी सेवा में कोई कमी नहीं करता, अपनी कामयाबी से हर वक्त उनका सिर गर्व से ऊँचा रखता है।

वो गे है, उसे लड़कियाँ नहीं, लड़के पसंद हैं। वो शादी को टालने के लिए हर रोज़ नए बहाने बनाएगा लेकिन अपना सच, माँ-बाप को कभी नहीं बता पाएगा।

शायद वो समाज के डर से ज़बरदस्ती शादी भी कर ले।

इस शादी से कई ज़िंदगियाँ हमेशा के लिए तबाह कर देंगे, लेकिन अगर 'गे' शब्द मुँह से भी निकल गया, तो लोग क्या कहेंगे?

वो लड़का है, उसे नाचना पसंद है, वो हिप-हॉप नहीं कत्थक करता है, इसी में अपना करियर बनाना चाहता है।

उसकी ट्रॉफीज़ से अलमारियां भरी पड़ी हैं, फिर भी माँ उसकी 5th क्लास में 'दूसरी पोजिशन' लाने पर मिली ट्रॉफी ही सब को दिखाऐंगी।

कोई उसके कत्थक के बारे में पूछ ले, तो "ऐसे ही, बस उसका शौक है" कहकर बात टाल जाऐंगी।

सब उसका मज़ाक बनाएँगे, नौकरी के लिए उस पर दबाव डालेंगे।
क्योंकि "वो लड़का होकर कत्थक करता है!"

अगर किसी को पता चल गया, तो
लोग क्या कहेंगे?

ऐसे ही ना जाने कितने हैं, जो समाज के बंधनों को तोड़कर कुछ अलग करना चाहते हैं।

इंजीनियरों और डॉक्टरों की रेस में कुछ लेखक, नर्तक या एक्टर बनना चाहते हैं।

कुछ समाज के उसूलों से समझौता कर अपने सपनों और इच्छाओं का क़त्ल कर देते हैं।

कुछ नहीं सह पाते समाज और मन के बीच के द्वन्द को और खुद अपनी ही जान ले लेते हैं।

कुछ माँ-बाप की इज्ज़त की खातिर ज़िन्दगी भर चुप रह जाते हैं, ज़िन्दगी घुटन में जी लेते हैं पर इन बेतुके नियमों पर सवाल नहीं उठा पाते।

क्योंकि अगर हर कोई अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से जीने लग गया, तो ये समाज के ठेकेदार 'जॉबलेस' हो जाएंगे।

और उन 'चार' लोगों को सोचने लिए कुछ ना मिला, तो लोग क्या कहेंगे?

Thursday, 5 October 2017

जश्न *भाग- 3

जश्न

*भाग- 3*

बारात अपने पूरे शबाब पर थी।  मेरे आजू-बाजू सभी लोग बेतहाशा नाच रहे थे। मैं सबके बीच में बेसुध खड़ी थी। तभी मेरी नज़र घोड़ी पर सजधज कर बैठे स्वर पर पड़ी। एक पल को हमारी आँखों ने एक-दूसरे का सामना किया। उस एक पल में ना जाने क्या हुआ कि मैं अपने आप को भूलकर नाचने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे अंदर कुछ बाकी ना रहा हो, जैसे ये मेरी ज़िंदगी का अंतिम नृत्य हो।

तभी अचानक बारात में भगदड़ मचने लगी। शायद घोड़ी बेकाबू हो गई थी। मैंने घबराकर स्वर की तरफ देखा, घोड़ी उसके पूरे नियंत्रण में थी। वो सबको किनारे करता हुआ घोड़ी लेकर मेरी ही तरफ आ रहा था। मेरी कमर में हाथ डालकर उसने मुझे घोड़ी पर बिठा लिया। अब हम साथ में इस दुनिया से दूर जा रहे थे, तारों भरी रात में हम बहुत दूर निकल आए थे। अब यहाँ हम दोनों के सिवा कोई नहीं था। हम आज़ाद थे, एक दूसरे का साथ जीवनभर निभाने के लिए।

'पल भर ठहर जाओ..दिल ये संभल जाए...'
फ़ोन की घंटी सुनकर मैं अपनी मरीचिका से बाहर निकल आई। माँ का फ़ोन था।

“हैलो!” मैंने उनींदी आवाज़ में कहा।

“हैलो, बेटा! सो रही थी क्या?” माँ ने पूछा।

“हाँ, माँ! आप कैसे हो?” मैं अब तक उठकर बिस्तर पर बैठ चुकी थी।

“मैं तो ठीक हूँ। तू कैसी है बेटा? आज स्वर की शादी है ना!” माँ की आवाज़ में चिंता झलक रही थी।

“मैं बिल्कुल ठीक हूँ, माँ! आप तो जानती हैं, मैं बिल्कुल आप पर गई हूँ।” मैंने चहकते हुए कहा।

“जानती हूँ, बेटा। तू बहुत मज़बूत है। अगर ज़रा सी भी परेशानी हो तो अभी वापस आ जा।” उन्होंने कहा।

“आप ऐसी बात करोगे तो कैसे चलेगा, माँ? मैं जो करने आई हूँ, करके ही वापस आऊँगी।” मैंने दृढ़ स्वर में कहा।

“बस तुम्हारी चिंता हो रही थी। आखिर माँ हूँ तुम्हारी।”

मैं समझ सकती थी कि माँ इस वक़्त कैसा महसूस कर रही होंगी। आख़िर एक माँ ही तो अपने बच्चे के दिल का पूरा हाल जान सकती है। माँ को अपनी  तरफ़ से आशवस्त कर मैंने फ़ोन रख दिया।

बारात अब किसी भी वक़्त रवाना हो सकती थी। तैयार होने के  लिए कपड़े निकालने को अलमारी खोली तो स्वर के बॉक्स पर नज़र पड़ी। उसे अपने संदूक में रखकर, मैं इत्मिनान से तैयार होने लगी। आज तो जश्न की रात थी।

"स्वर आज मुझे मेरे सबसे ख़ूबसूरत रूप में देखेगा।"

********
स्वर अपनी दुल्हन के साथ मंडप में बैठा था। भावी जोड़ा एक-दूसरे के गले में स्वीकृति के हार पहना चुका था। पंडित रटे-रटाए मंत्र पढ़ रहा था। बारात में स्वर की नज़र एक बार मुझ पर पड़ी, एक पल के लिये समय जैसे ठहर ही गया था। फिर बैंड-बाजे की आवाज़ से दोनों वास्तविकता में लौट आए।

अब स्वर में इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह अपनी नज़रों का रुख मेरी तरफ़ कर ले। इस वक़्त वह केवल हवन-कुंड की अग्नि को एकटक देख रहा था। दुल्हन का हाथ उसके हाथों में था।

थोड़ी देर में फेरों की शुरुआत हो गई। हर एक फेरे के साथ, मैं अपने आपको एक वचन दे रही थी।

"मैं जीवन के हर सफ़र में ख़ुद का साथ कभी नहीं छोड़ूंगी। अपने आप को हर हाल में अपनाऊँगी।"

"मैं हमेशा अपने परिवार को सबसे ज़्यादा अहमियत दूँगी। कभी अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करूँगी।"

"ज़िंदगी की किसी भी उलझन में हार जाने के डर से पीछे नहीं हटूँगी।"

"जीवन में कभी भी, किसी पर भी बोझ नहीं बनूँगी। अपनी हर मुश्किल से अपने बल पर लड़ूँगी।"

"मैं अपने जीवन का हर फ़ैसला किसी से भी प्रभावित हुए बिना, अपनी पूरी सोच-समझ से लूँगी।"

" मैं किसी को भी, किसी भी तरह से अपने सम्मान को ठेस नहीं पहुँचाने दूँगी।"

और ये आख़िरी फेरा... इसके बाद सब कुछ ख़त्म हो जाएगा। या शायद जीवन के किसी नए सफ़र की शुरुआत। आख़िरी क़सम का वक़्त था।

"आज के बाद फिर कभी मैं किसी को अपने वर्तमान या भविष्य के साथ खेलने नहीं दूँगी।"

जश्न पूरा हो चुका था। अब विदाई की बारी थी। सभी लोग नए जोड़े को बधाई देने के लिए उनकी ओर जा रहे थे लेकिन मेरे कदम विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। बाहर खड़ी गाड़ी और उसमें रखा सामान मेरा इंतज़ार कर रहे थे। एक बार को जी किया कि मुड़कर आख़िरी बार स्वर को निहार लूँ लेकिन अब बाकी ही क्या रह गया था। मेरे प्यार का गुरूर मेरी आँखों के सामने चकनाचूर हो चुका था।

कार में बैठते ही, ना जाने ख़ुद पर या फिर अपनी किस्मत पर ठहाके मारकर हँस पड़ी। शायद इस हँसी में कोई दर्द भी था। तभी आँख से एक आँसू गिर पड़ा, ना जाने क्यों?

Wednesday, 4 October 2017

जश्न *भाग-2*

जश्न
    
*भाग-2*

वो दोनों अग्नि के सात फेरे ले रहे थे। आसपास खड़े लोग उन पर फूल बरसा रहे थे। मैं एक कोने में खड़ी जलती हुई नज़रों से उन्हें देख रही थी। अचानक स्वर आग की लपटों से घिर गया। उसकी भावी पत्नी उठकर दूर जाने लगी। मैं स्वर को बचाने के लिए दौड़ी, पर ये क्या, अब मेरे चारों ओर आग का घेरा बना था। स्वर को जलाने वाली आग अब मुझे जला रही थी। मैंने उसकी तरफ़ देखा, वो बिल्कुल ठीक था, पर मैं जले जा रही थी। अंत नज़दीक था।

पसीने से तरबतर मैं बिस्तर पर पड़ी थी। आँख खुलते ही मैं अपने दिमाग की करामात पर हैरान थी। मुझे अक्सर डरावने सपने नहीं आते, लेकिन आज ये सपना, जनवरी की ठंड में मुझे जेठ के महीने का एहसास सा हो रहा था। पलंग के सिरहाने रखे पानी के जग को मैंने अपने मुँह पर उड़ेल लिया। कुछ देर बाद धड़कनें थमने लगीं तो मन के घोड़े फिर से दौड़ने लगे।

क्या मैं सही कर रही हूँ? ख़ुद के साथ, स्वर के साथ, क्या मैं ऐसा करके उसे और मुझे दोनों को ही दु:ख नहीं पहुँचा रही? पर मेरे लिए ये करना ज़रूरी था। जीवन की सच्चाई को अपनी आँखों से देखे बिना स्वीकार करना शायद इतना आसान ना हो। ख़ुद को ही तसल्लियाँ देते-देते ना जाने कब नींद के आगोश में समा गई। आँख खुली तो एक नई सुबह दस्तक दे चुकी थी। कौन जाने ये दिन मेरे लिए क्या लाने वाला था।

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घर में हर कोई व्यस्त नज़र आ रहा था, कल शादी जो थी। सबसे अलग-थलग मैं एक कोने में बैठी सब देख रही थी। सुबह से शाम कब हुई, पता ही नहीं चला। पूरे दिन स्वर भी कहीं दिखाई नहीं दिया था। रात के सन्नाटे में एक बार फिर मैं अपने विचारों में खोई थी। मोबाइल की आवाज़ सुनकर एहसास हुआ कि मैं कहाँ हूँ।

स्वर का मैसेज था, "छत पर आ जाओ, इंतज़ार कर रहा हूँ।"

रात के ढ़ाई बज रहे थे। इस वक़्त स्वर से मिलना खतरे से खाली नहीं था। अगर कोई हमें देख ले तो बहुत बड़ा हंगामा हो सकता था। मैं इसी कशमकश में पड़ी थी कि जाऊँ या नहीं, तभी फ़ोन बजने लगा। इस बार उसने कॉल किया था।

"मुझे पता है कि तुम जाग रही हो, जल्दी से ऊपर आ जाओ।"

मेरे जवाब देने से पहले ही उसने फ़ोन रख दिया। शॉल ओढ़कर मैं बर्फ़ीली रात में बाहर निकल आई। छत तक का रास्ता बहुत जोख़िम भरा महसूस हुआ। स्वर एक कोने में सिमटा हुआ खड़ा इंतज़ार कर रहा था। मुझे देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गई।

"तुमने मैसेज नहीं पढ़ा था क्या?" उसने उत्तर जानते हुए भी पूछा।

"पढ़ लिया था, आने में डर रही थी," मैंने झुकी नज़रों से कहा।

"अच्छा! मेरे घर आने में डर नहीं लगा? छत तक आने में डर रही थी।" उसकी आवाज़ में व्यंग्य था।

"आज तो तुम्हारे लिए डर रही थी। किसी ने हमें ऐसे देख लिया तो तुम्हारे लिए परेशानी खड़ी हो जाएगी," उसकी आँखों में एक अजीब-सी बेचैनी थी।

"और तुम्हारे यहाँ आने से कुछ परेशानी नहीं होगी?" ऐसे वक़्त में भी उसके झगड़ने की क्षमता की मैं क़ायल हो गई।

"मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती जिससे तुम्हें परेशानी हो।" मैंने उससे हज़ारों बार कही हुई बात फिर से दोहराई।

"वो तो तुम बहुत पहले ही कर चुकी हो, जो मुझे ज़िन्दगी के हर लम्हें सताता रहेगा," उसने डूबती आवाज़ में कहा।

"क्या?" मुझे याद नहीं था कि मैंने ऐसा कुछ किया हो।

"मुझसे प्यार," उसका जवाब सपाट था।

मैं बिना कुछ कहे एकटक उसे देखती रही। कुछ देर के लिए वो भी मंत्रमुग्ध सा मेरी आँखों में देखता रहा।

कुछ सेकण्ड्स बाद उसने ही इस असहज चुप्पी को तोडा, "और इसीलिए मैं तुम्हें वो सारी चीज़ें वापस करना चाहता हूँ जो मुझे तुम्हारी याद दिला पाएँ।"

उसके क़दमों के नीचे एक बॉक्स रखा था। अब भी मेरे मुँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे।

"तुम भी मुझे कुछ वापस देना चाहोगी?" उसने पूछा।

मैंने इनकार में सिर हिला दिया।

"कोई गिला-शिक़वा हो, कुछ कहना हो तो अभी कह सकती हो," उसने फ़िर से कहा।

मेरी ज़ुबान हिलने को तैयार नहीं थी। मैं बस उसे देखे जा रही थी।

"तुम मुझसे लड़ना नहीं चाहती? मैं तुम्हारे साथ इतना सब कुछ कर रहा हूँ," इस बार मेरी आँखों ने उसे 'ना' कहा।

स्वर मेरी बाँहें पकड़ के मुझे झिंझोड़ने लगा। अब तो उसकी बातें भी कानों में नहीं पड़ रही थीं। मुझे बस उसकी आँखें दिखाई दे रही थीं। उसने मुझे अपने सीने से लगा लिया। शायद वो रो रहा था। मैं उसकी बाँहों में बुत बनकर खड़ी थी।

कुछ देर और उसने मुझसे प्रतिक्रिया पाने की कोशिश की पर नाकाम रहा। लेकिन मैं कहाँ थी वहाँ, मैं तो कहीं दूर ख़्यालों में गोते लगा रही थी। मैं तो उन पलों में खोई थी जहाँ वो मेरा हुआ करता था।

थक-हार कर वो मुझे वहीं छोड़कर चला गया। मैं सर्द ज़मीन पर बैठी थी। मेरे सामने वो बॉक्स खुला पड़ा था। हर एक चीज़ और उससे जुड़ी बातें मेरे दिलो-दिमाग पर छाने लगी। वो की-चेन, वो मग, वो पोस्टर, वो बर्थडे कार्ड्स, वो अनगिनत सूखे फूल जो कभी मेरे प्यार की निशानी थे।

एक चिट्ठी पर अचानक एक बूँद गिरी, मुझे एहसास हुआ कि मेरा पूरा चेहरा आँसुओं से भीगा था। मेरी बरबादी मुँह बहाए खड़ी थी और मैं तारों की छाँव में उसका जश्न मना रही थी।

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सूरज की पहली किरण ने मेरी पलकों को छुआ तो अहसास हुआ कि मैं रातभर स्वर की यादों को सिरहाने से लगाकर छत पर ही सोती रही। नीचे से हलचल की धीमी आवाज़ें आ रही थी। गाँव में वैसे भी दिन जल्दी शुरु हो जाता है और आज तो शादी का दिन था। इतना सोचते ही मेरा दिल डूब गया। बिखरी हुई यादें समेट बॉक्स में भर कर नीचे उतरने लगी।

मन में अस्थिरता होने के कारण हड़बड़ी में सीढ़ियों से मेरा पैर फिसल गया। बॉक्स मेरे हाथ से छूटकर धड़धड़ाता हुआ नीचे जा गिरा। भगवान का शुक्र है कि मुझे खरोंच तक नहीं आई, लेकिन जब तक मैं नीचे पहुँची तो बॉक्स किसी के हाथों में था।

वहाँ पहुँचकर प्रिया को पाया तो मेरी साँस में साँस आई।

“रुशिता तुम! तुम इस वक़्त ऊपर क्या कर रही थी? और ये क्या है?” उसके चेहरे पर हैरानी साफ झलक रही थी।

“कुछ नहीं, बस उगता सूरज देखना चाहती थी इस निर्मल वातावरण में,” मैंने होंठों पर नकली मुस्कान लाते हुए कहा।

“और ये मेरे हाथ से छूट गया था। लाओ, मुझे दो।” बॉक्स लेने के लिए मैंने हाथ आगे बढ़ाया।

“तुम कुछ छुपा रही हो, रुशिता। तुम ठीक तो हो? रात को ढंगसे सोई नहीं क्या, आँखें भी सूज रही हैं। आख़िर बात क्या है?” बॉक्स अब मेरे हाथ में था और हम दोनों मेरे कमरे की तरफ़ जा रहे थे।

स्वर के तोहफ़ों को संभालकर अलमारी में रखने के बाद मैं प्रिया की तरफ़ मुड़ी जो अब पलंग के एक किनारे पर बैठी थी। मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने में उसे कुछ तकलीफ हो रही थी। मैं जाकर उसके बगल में बैठ गई।

“देखो रुशिता, मैं जानती हूँ कि ये सब तुम्हारे लिए आसान नहीं है, लेकिन तुमने खुद ये फैसला लिया है। अगर अब तुम खुद को कहीं क़मज़ोर पा रही हो तो यहाँ से चली क्यों नहीं जाती? अपने आप को इस तरह दर्द पहुँचाने का क्या मतलब?” प्रिया ने अपनी समझदारी के हिसाब से मुझे हिदायत देने की कोशिश की।

“प्यार का तो दूसरा नाम ही दर्द है, प्रिया। इससे मुझे कमज़ोरी नहीं बल्कि ताकत मिल रही है।” मैंने साहसी मुस्कान के साथ कहा।

“पता नहीं रुशिता तुम किस मिट्टी की बनी हो! तुम्हारी जगह अगर मैं होती तो या तो उसे मार देती या फिर खुद को ख़त्म कर लेती,” वो अब मुझे अजीब नज़रों से देख रही थी।

“ये तो सब करते हैं और तुम जानती हो कि मैं सबकी तरह नहीं हूँ,” उसकी आँखों में मेरी इस बात पर एक मौन सहमति थी।

"मेरी चिंता मत करो, प्रिया। अब जाओ नहा-धो लो। मैं अभी थोड़ी देर सोऊँगी।”

प्रिया के जाने के बाद मैं एक बार फिर अकेली थी। शाम को शादी थी, मुझे आराम करना था ताकि अपनी बरबादी के जश्न के हर इक पल का लुत्फ़ उठा सकूँ। रात भर छत पर सोते रहने के कारण मेरा शरीर अब भी ठिठुर रहा था। रज़ाई में घुसकर आँखें मूँदकर लेट गई। दिमाग में शाम को होने वाली घटनाओं को लेकर डर अपना सिर उठा रहा था।

Tuesday, 3 October 2017

जश्न

जश्न

*भाग-1*

"आख़िर तुम्हारी नज़र मुझ पर पड़ ही गई। वैसे मुझे पहचानने में तो कभी तुम गलती कर ही नहीं सकते लेकिन इतने सारे लोगों की भीड़ में शायद दिखाई नहीं पड़ी होऊंगी। मुझे देखकर एक पल को सकपका गए थे तुम, लाज़मी भी है। मेरे यहाँ आने का तो ख़्याल भी नहीं आया होगा तुम्हें।
मैं भी ना जाने इतना साहस कैसे कर बैठी। अपनी ही बर्बादी के जश्न में शामिल होने आ पँहुची। बस देखना है मुझे कि उस पल जब तुम मुझे ख़ुद से हमेशा के लिए दूर कर दोगे, तुम्हारे चेहरे पर क्या भाव होंगे? उस पल क्या तुम भी टूट जाओगे? क्या मुझे सामने देखकर ज़रा भी नहीं हिचकिचाओगे? जो भी होगा, मुझे देखना है। इस सच्चाई को कुबूलने के लिए चश्मदीद बनना बेहद ज़रूरी है मेरे लिए। क्या पता उस पल मेरा चेहरा देखकर तुम कुछ कमज़ोर पड़ जाओ और मुझे मेरी बर्बादी से दूर खींच लाओ।"

मैंने अपनी डायरी बंद की ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक सुनाई दी।

"इतनी रात को कौन हो सकता है?"मैंने सोचा कि यहाँ तो कोई मुझे जानता भी नहीं उसके सिवा। दरवाज़ा खोला तो वही था।

"दरवाज़ा बंद कर लो," उसने जल्दी से अंदर घुसते हुए कहा।

मैंने यंत्रवत उसकी आज्ञा का पालन किया। मुझे देखकर हमेशा की तरह उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं थी। गुस्से से तमतमा रहा था उसका चेहरा। जैसे अक्सर मेरी किसी गलती के प्रतिक्रिया में हो जाया करता था। मेरा चेहरा भावहीन था।

"तुम यहाँ क्या कर रही हो? जानती हो ना कि यहाँ सबको तुम्हारे बारे में पता है?" उसने तीखे स्वर में पूछा।

"वही करने आई हूँ जिसके लिए बाकी सब मेहमान यहाँ हैं।" मैंने शांत स्वर में कहा।

"मेरे सामने ज़्यादा होशियारी दिखाने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूर तुम्हारे दिमाग़ में कुछ पक रहा है।" उसने सख्ती से कहा।

"कुछ नहीं पक रहा मेरे दिमाग़ में। मैं यहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी खुशी में शरीक़ होने आई हूँ।" मेरे स्वर में अब भी कोई लड़खड़ाहट नहीं थी।

"अच्छा! एक बात का ध्यान रखना कि अगर आख़िरी वक़्त में तुमने कोई गड़बड़ की तो मैं तुम्हारा कोई साथ नहीं दूँगा," उसकी आवाज़ में धमकी का पुट था।

"जानती हूँ," मैंने उतने ही शांत स्वर में उत्तर दिया।

उसने आगे कुछ कहने के लिए अपना मुँह खोला लेकिन तभी बाहर से कोई आवाज़ आई जिसने उसका ध्यान भटका दिया। उसके चेहरे पर कुछ नरमाहट आ गई। प्यार तो वो मुझसे करता ही था।

"मैं नहीं चाहता कि तुम्हें किसी तरह का कोई नुक़सान पहुँचे," मेरा चेहरा उसने अपने हाथों में लेकर कहा।

"चिंता मत करो, कुछ नहीं होगा मुझे," मैंने हल्का सा मुस्कुरा कर कहा।

"ये शहर नहीं है, बच्चा! अगर कुछ भी पंगा हुआ तो ये लोग ना तो तुम्हें और ना ही मुझे छोड़ेंगे," उसके स्वर में बेबसी थी।

"मैं कोई पंगा नहीं करूँगी। तुम आराम से जाकर सो जाओ,"
मैंने आगे बढ़कर उसके माथे पर हल्के से फूँक मारी और उसकी आँखों को चूम लिया।

वो कुछ हल्के मन और सधे कदमों के साथ मेरे कमरे से चला गया। उसके सामने जितना शांत रहने का दिखावा मैं कर रही थी, मेरा चित्त उससे कहीं ज़्यादा अशांत था।

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सुबह दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनकर मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी। शायद कोई उठाने के लिए आया होगा। मोबाइल में समय देखा तो सात ही बजे थे। बाहर से हलचल की आवाज़ें आ रही थीं। मैं सुबह जल्दी उठने वालों में से नहीं हूँ लेकिन इतने शोर में सोना भी मुमकिन नहीं था। तैयार होकर नीचे पहुँची तो कोई रस्म चल रही थी। आगे जाकर देखा तो स्वर हल्दी से लिपा-पुता बैठा था। ये नज़ारा देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

"गुडमॉर्निंग! आज बड़ी जल्दी उठ गई," रक्षित ने मुस्कुराते हुए कहा।

उसके हाथ में वीडियो कैमरा था। रक्षित, मेरा और स्वर दोनों का दोस्त था। कल उसके साथ ही मैं यहाँ आई थी। वो मेरे दिल का हाल जानता था इसलिए माहौल को हल्का करने की कोशिश कर रहा था।

"हाँ, आज से मेरी ज़िंदगी के खुशनुमा पलों की शुरुआत जो हो रही है। आज के दिन कैसे सो सकती हूँ?" मैंने व्यंग्य कसते हुए कहा।

कुछ देर की ख़ामोशी के बाद मैंने सभी दोस्तों से कहा, "चलो, हम भी चलकर स्वर को हल्दी लगाते हैं।"

रक्षित को छोड़कर बाकी सब मुझे हैरानी से देखने लगे।

"आर यू श्योर?" प्रिया ने पूछा

"अरे! मेरा भी पूरा हक है स्वर की शादी की रस्मों का लुत्फ उठाने का, इतना सोचने वाली बात क्या है इसमें?" इतना कहकर मैं आगे बढ़ने लगी।

मेरा ऐसा रुख देखकर बाकी लोग भी पीछे आ गए। मुझे देखकर स्वर के चेहरे के भाव थोड़े डगमगाए। वो शायद मेरी आँखों में आँसू ढूंढ़ रहा था लेकिन उसकी उम्मीदों के विपरीत मेरे चेहरे पर मुस्कान थी। मेरी ये मुस्कान उसे और दर्द दे गई, शायद इसीलिए, जब मेरे द्वारा हल्दी लगाते वक़्त रक्षित फ़ोटो खींच रहा था तो स्वर के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

रस्म खत्म होते ही मैं फिर से अपने कमरे में आ गई। दिन में हम सभी दोस्तों का आसपास के इलाके में घूमने का इरादा था। कपड़े बदलकर मैं बाहर आई तो देखा कि स्वर भी हमारे साथ जाने को तैयार खड़ा था।

"अरे! परसों तेरी शादी है। तू कहाँ चल पड़ा हमारे साथ?" रक्षित ने उसे छेड़ते हुए कहा।

स्वर ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चुपचाप जीप में जाकर बैठ गया।
रास्ते में बार-बार उसकी नज़रें मेरे चेहरे की तरफ ही आ रहीं थीं। मैं बस उसकी ओर देखकर हल्के से मुस्कुरा देती।

उसका गांव बहुत ही खूबसूरत था। शांत लेकिन गर्मजोशी से भरपूर। गांव पार करके हम लोग शहर आ पहुँचे। बाज़ार में सभी खरीददारी करने में मशग़ूल हो गए। मैं भी एक दुकान पर कपड़े खरीदने लगी। तभी मेरा मोबाइल बज उठा, 'सामने वाली गली में पहली बांई गली लेकर, आ जाओ।' स्वर का मैसेज था।

गली बिल्कुल सुनसान थी। हम दोनों के सिवा वहाँ कोई नहीं था।

"क्या हुआ? मुझे यहाँ क्यों बुलाया?" मैंने सरलता से पूछा।

"तुमसे अकेले में कुछ बात करनी थी जो कि घर पर या उस बाज़ार में मुमकिन नहीं था।" उसने जवाब दिया।

"आज रात मेरे साथ भाग चलोगी?" उसने मेरे क़रीब आते हुए कहा।

"दो महीने पहले मैं भी यही कहती थी, स्वर। उस वक़्त तुम्हारा फैसला कुछ और था," मैंने उसकी आँखों में आँखें डालकर जवाब दिया।

"तो फिर तुम यहाँ क्या करने आई हो?" उसने परेशान स्वर में पूछा।

"तुम्हारी शादी में शामिल होने," मैंने सपाट तरीके से जवाब दिया।

"तुम्हें क्या लगता है कि तुम्हें यहाँ इस तरह से देखकर मैं ये शादी कर पाऊँगा?" वो मचल उठा।

"तो मत करो ना ये शादी," मेरे इतना कहते ही कुछ देर के लिए चुप्पी छा गई।

"तुम जानती हो मैं ऐसा नहीं कर सकता," आख़िरकार उसने हारी हुई आवाज़ में कहा।

"तो फिर बेवजह परेशान होना छोड़ दो,” मैं मुड़कर वापस जाने लगी तो उसने मेरा हाथ थाम लिया।

"तुम मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही हो?'' उसकी आवाज़ में पीड़ा साफ़ झलक रही थी।

''तुम्हारे साथ?" पल भर को मैं मुस्कुरा उठी।

"तुम्हारे साथ कुछ नहीं करना मुझे। मैं तो बस उस पल तुम्हें देखना चाहती हूँ। जब प्यार करने की हिम्मत की है तो अब अपने प्यार की बर्बादी का जश्न भी मनाना चाहती हूँ। बस इतना ही चाहती हूँ," इतना कहकर मैं मुँह फेरकर चलने लगी।

"रुशिता!" उसने पीछे से आवाज़ लगाई, पर मैंने मुड़कर नहीं देखा।

तभी मुझे अहसास हुआ कि एक आँसू मेरी पलक से फिसलकर गाल तक आ चुका था। उस नामुराद को फटाफट पोंछकर मैंने फिर से अपने चेहरे पर मुस्कान जमा ली।

वापसी में रास्ते भर मैं स्वर की ओर देखकर नहीं मुस्कुराई। हालांकि उसकी नज़रें अब भी मुझ पर ही जमी थी।