Friday, 1 September 2017

*गुलाबी पेंसिल पार्ट -2*


"इतनी मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी।
लोग तुझको मेरा मेहबूब समझते होंगें।"

मैं ऑफिस के कैफिटेरिया में अदरक की चाय चुस्कियों के साथ-साथ खिड़की से सामने पार्क के खूबसूरत मंज़र का लुत्फ उठाने की नाकाम कोशिश कर रहा था। पहली बारिश के बाद कुदरत ने हरी घास का कालीन सा बिछा दिया था जैसे ज़मीन पर, लेकिन अंदर का वीराना बाहर की बहार पर भारी पड़ रहा था।

घड़ी में 12:00 बज रहे थे। इस वक़्त कैंटीन अमूमन वीरान रहती थी, मुझे सुकून के पलों में बैठकर चाय पीना अच्छा लगता था इसी वजह से मैं रोज़ इसी वक्त यहां चला आता।

तभी सामने से "वो" आती नज़र आई।

लबों पर वही मनमोहक मुस्कान लिए उसने मेरी तरफ हाथ हिलाया और फिर एक अदा से अपना हाथ जानबूझकर ज़ुल्फों में फिराया ताकि जूड़े में बंधी "पेंसिल" नुमाया हो जाये।

चाय का order देकर मेरी टेबल पर बैठती हुए बोली, "बहुत शिकायत मिल रही है आजकल तुम्हारी।"

"मैंने ऐसा क्या कर दिया मोहतमा?" बड़ी हैरानी से मैंने सवाल किया।

"ये क्या लिखते रहते हो फेसबुक पर, गुलाबी पेंसिल, ये पेंसिल वो पेंसिल। वैसे तो कहते फिरते हो के मुझे कलर ब्लाइंडनेस है। पर जनाब को पेंसिल के रंग बड़े पता रहते हैं?"

"अरे वो तो ऐसे ही लिख दिया। एक ज़माने में writer बनना चाहता था पर वक़्त ने इंजीनियर बना दिया, सही मायने में कुछ भी ना बन पाया ठीक से," मैंने तंजिया मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया।

"ओह्ह! तो ऐसा क्या हो गया अचानक जो दबे गड़े अरमान फिर से फेसबुक पर अंगड़ाई लेने लगे हैं?" बड़ी हैरानी से ये सवाल पूछा उसने और फिर जवाब का इंतज़ार किया बिना ही, मेरे थोड़ा करीब आती हुए धीमी आवाज़ में मुस्कुराती हुई बोली, "कहीं मोहब्बत- वोहब्बत तो नहीं हो गयी खां?"

लड़कियों में एक खास अदा होती है... सबकुछ जान के भी अनजान बने रहना।

"अरे मोहब्बत-वोहब्बत तो सब किताबी बातें है,
यहां हर इंसान दूसरे को बस ज़रूरत में याद करता है," मैंने चाय का आखिरी घूंट भरकर खड़े होते हुए जवाब दिया।

"चलो मिलता हूं फिर," मैं जैसे ही जाने लगा वो मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने पास बिठाते हुए बोली, "इतनी जल्दी में क्यों हो तुम, थोड़ी देर काम नहीं करोगे तो ये कंपनी बन्द नहीं हो जाएगी। मूड खराब है क्या?"

"नहीं बस ऐसे ही, कभी-कभी सोचता हूं कि काश अपना पैशन ही फॉलो किया होता, कामयाब नही होता तो क्या, दिल को सुकून तो होता। यह प्रोडक्शन में 12-12 घंटे की शिफ्ट करो खड़े-खड़े, मज़दूरों की तरह। ना सैलरी इतनी अच्छी, ना जॉब की तसल्ली। ऊपर से घर की परेशानियां।"

"सब ठीक हो जाएगा, क्यों परेशान होते हो यार! अच्छा देखो! मैंने आज सिर्फ तुम्हारे लिए गुलाबी पेंसिल लगाई है जूड़े में।"

मैं मुस्कुराये बिना ना रह सका। एक पल में मेरा गुस्सा, मेरे नेगेटिव थॉट्स सभी को एक प्यारी से फीलिंग ने रिप्लेस कर दिया।

मेरी मुस्कुराहट देख कर वो बोली," पता है लड़कियाँ कितनी मेहनत करती है आँखों में आईलाइनर और मस्कारा लगाती है, चहेरे पर कनसीलर, नाक में नोज़ पिन, कानों में ईयररिंग्स, गले में नेकलेस, नाखूनों पर नेल पेंट और ना जाने क्या क्या...पर जनाब का दिल आया तो किस पर.. एक पेंसिल पर। पहले पता होता तो कितना खर्चा बच जाता बेचारियों का," वो लास्ट लाइन पर हँसती हुई बोली।

मैंने इस बार उसकी आँखों मे आँखें डाल कर कहा "तुम जानती हो मेरी निगाहों का मरकज़ सिर्फ एक ही लड़की है। दुनिया क्या करती है मुझे कोई मतलब नहीं।"

अक्सर इस तरह की बात वो घुमा दिया करती थी।

इस बार मेरी बात को वो घुमा ना पाई और शरमा कर नीची निगाह करके मुस्कुराकर धीमे से बोली, "आपको पता है ना कि आप पागल हैं।"

अक्सर वो ऐसे मौक़ो पर "तुम" से "आप" पर आ जाती थी। वैसे कहा जाता है कि "तू" शब्द में ज़्यादा अपनापन होता है पर मुझे उसका "आप" कहना ज़्यादा भाता था।

"अच्छा तुम्हारा बर्थडे है अगले हफ्ते। क्या गिफ्ट चाहिए?" उसने नज़रें उठा कर बात बदलते हुए सवाल किया
मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "गिफ्ट तो मिल चुका मुझे, अब किसी और गिफ्ट की तमन्ना बाक़ी नहीं, पर एक मासूम सी ख्वाहिश है मेरी, कि मैं तुम्हारे जूड़े से इस पेंसिल को खींच लूँ और तुम्हारी ये घनी स्याह जुल्फें..खुल कर तुम्हारे शानो पर बिखर जाएं। और जब एक अदा से तुम अपने चेहरे से इन्हें हटाओ तो ऐसा लगे जैसे पूनम का चांद बादलों से निकल आया हो।"

एक पल के लिए वो मेरे लफ़्ज़ों के सहर में डूब सी गयी, फिर अचानक मेरे इरादे समझ कर जल्दी से बोली।

"ऐसा कुछ सोचना भी मत, बड़ी मुश्किल से सेट किया है ये जूड़ा।"

उसकी बात पूरी होने से पहले ही मैं पेंसिल खींच चुका था, उसकी जुल्फ़ें जूड़े की कैद से आज़ाद होकर बिखर गई थीं और खिड़की से आती हवाओ में लहराने लगी थीं।

हालांकि ये पल ऐसा नहीं था जैसा मेरे तसव्वुर में था। पर जो हमारा साथ था वो मेरे तसव्वुर से ज़्यादा हसीन था।

"चलो मैं चलता हूँ, शाम में मुलाक़ात होगी," मैंने उठते हुए कहा। हालांकि मेरा दिल मुझे एक कदम भी बढ़ाने से रोक रहा था पर और भी ग़म थे ज़माने में मोहब्बत के सिवा।

मैंने वो गुलाबी पेंसिल अपने पास रख ली थी।

कैफिटेरिया के दरवाजे से मुड़कर मैंने देखा तो, हाथ मे चाय का कप लिए, वो मुझे ही देख रही थी।

मैंने पेंसिल दिखाते हुए होंठों के इशारे से कहा, "थैंक्स फॉर दि एडवांस बर्थडे गिफ्ट।"

उसने आँखों के इशारे से कहा, "वेलकम।"

मेरे दिल का मौसम बिल्कुल बदल चुका था। अब अंदर भी बाहर की तरह चारों तरफ फूल खिले हुए थे। अक्सर हालात हमारे काबू में नहीं होते, लेकिन किसी खास शख़्स का साथ होना आपको हालात से लड़ने की हिम्मत दे देता है।

*गुलाबी पेंसिल*

खुली ज़ुल्फ जिसे उर्दू में "बरहमी" कहते है, हमेशा से शायरों और कवियों का पसंदीदा मौज़ू रहा है।

किसी ने खुली ज़ुल्फों को घटा कहा तो किसी ने बलखाती ज़ुल्फों को नागिन।

कभी ज़ुल्फ को काला जादू कहा गया तो कभी होंठों और रुख़्सारों को चूमते गेसुओं को बदतमीज़।

पर तेरी खुली नही..बंधी हुई ज़ुल्फें मुझे पसंद हैं। जब तू मेरे सामने से चलती हुई मेरे क़रीब से गुज़रती है.. अपने ही ख्यालों में खोई, ना जाने किस सोच में डूबी और चलते चलते एक ही झटके से अपने बालों को पकड़ कर उन्हें जूड़े में बांध उसमें पेंसिल फसा लेने का ये हुनर तुझे बहुत खास बनाता है।

तुझसे बात करते वक़्त तेरी उसी पेंसिल में मेरा दिल अटका सा रहता है। कभी संजीदा सी गुफ़्तगू करते हुए मुझसे, तू पेंसिल दांतों में दबाये बालो को बांधकर उसमें जब पेंसिल लगाती है तो इस अदा में डूबकर सब कुछ भूल सा जाता हूँ मैं।

कई मर्तबा मैंने महसूस किया है कि तेरी पेंसिल का रंग तेरा मूड ज़ाहिर करता है। जिस दिन तेरे बालो में लाल पेंसिल हो उस दिन तू ज़िंदादिल लगती है.. दिनभर दिल खोल के हँसती तो कभी बच्चों सी शरारती मुस्कान लिए घूमती। उस दिन तेरी आंखों में, मैं खुद के लिए प्यार देखता हूँ।

पीली पेंसिल का मतलब है आज तू बहुत खुश है। काली पेंसिल गर तूने जूड़े में लगा रखी है तो ज़रूर तू आज लड़ के आयी है या किसी से लड़ने की तैयारी में है। उस दिन तेरे क़रीब जाने से भी डर लगता है मुझे।

जिस दिन उस पेंसिल का रंग सफेद हो तो तेरे चेहरे पर एक सुकून सा हावी होता है, और मिज़ाज़ सूफियाना लगता है।

पेंसिल का रंग गहरा नीला हो तो मतलब तू बहुत उदास है।

मेरी पसंदीदा पेंसिल का रंग गुलाबी है.. क्योंकि उस दिन रोमानी एहसासात तुझ पर हावी रहता है। मेरी हर बात पर शर्मा कर नीची निगाह करके तेरा मुस्कुराना मेरे दिल की धड़कनें बढ़ा देता है। गुलाबी पेंसिल वाले दिन का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता है क्योंकि वो दिन मेरे इज़हार-ए-मोहब्बत का दिन होता है।

ये एक राज़ की बात है जो मैं कभी तुझसे कह ना पाऊँगा, कि तुझको समझने में तेरी पेंसिल, मददगार रही है मेरी।

**रात**

सबको सुलाकर आती है जगाने मुझे,
मुझसे बस अकेले में ही मिलती है रात

रोज़ मेरे काँधे पर सर रखकर रोती है,
मेरी ही तरह बिल्कुल तन्हा है रात।

याद दिन में भी आते हैं बिछड़ने वाले हमें,
रिवायतों में लेकिन बदनाम सिर्फ़ होती है रात।

सुबह तक साथ चलता हूँ इसके मगर,
ना जाने किस मोड़ पर जुदा हो जाती है रात।

तुम्हारे जितनी ही है ये मेरे दिल को अज़ीज़,
तुम्हारी ही तरह रोज़ मुझे छोड़कर जाती है रात।

Thursday, 31 August 2017

*दि एलुमनाई मीट*

*दि एलुमनाई मीट*
“बात सन ‘64, उस वक्त की है जब ये स्वतंत्रता भवन नहीं था। सिरेमिक डिपार्टमेंट, डिपार्टमेंट ऑफ़ सिलिकेट टेक्नोलॉजी हुआ करता था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश श्री एन एच भगवती विश्विद्यालय के वीसी थे। मेरा दाखिला उस वक्त के बनारस कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (BENCO) में हुआ। उस वक्त आई.एम.एस (IMS) और बेंको (BENCO) की रैगिंग बड़ी मशहूर थी। लंका से मोरवी तक बिना कपड़ों के ही परेड हो जाती थी। कई बार तो हम डर के मारे स्टेशन भाग जाते थे; कोई कहीं रात गुज़रता था तो कोई कहीं।”

उन्होंने पानी का कुल्हड़ कांपते हाथों से पकड़कर अपने होंठों से लगाया। एक अजीब सी सुकून भरी मुस्कान थी उनके चेहरे पर, एक मुस्कुराहट जिसे शायद जीवन का अंतिम लक्ष्य कहा जाता हो। हमारे संस्थान में पुराछात्र सम्मलेन था, अर्थात् एलुमनाई मीट। 1967 की बैच के हमारे एक एलुमनाई थे। हमारा नुक्कड़ नाटक देखने के बाद मेरे पास आये और बोले, “बहुत अच्छा किया बेटा। खूब मेहनत करो। आगे बढ़ो और खुश रहो।”

मैंने आवाज में कंपकंपाहट महसूस की थी लेकिन आशीर्वाद अटल था।

ज़्यादा सिगरेट पीने से उनके होंठ काले पड़ गये थे, उन्होंने पानी पीकर कुल्हड़ फेंका, क्रीम कलर के रूमाल से अपने होंठो को पोंछा और फिर वही रूहानी हँसी हँसते हुए बोले, “हमारे जाते-जाते ये सब कॉलेज मिलकर आईटी-बीएचयू बन गये। अब ना बेंको रहा न मिन्मेट और ना टेक्नो। हमारे ज़माने में सब अलग था। तुम लोगों के वक्त तो लिम्बडी कार्नर हो गया। हम रात के 2 बजे लंका पर सिर्फ चाय पीने जाया करते थे। एक लड़का था साकेत भवस्कर, मेरा सबसे अच्छा दोस्त था, हम उसे साकेत बाबू बुलाते थे। पिछले साल ही एक्सपायर हो गये साकेत बाबू। बड़ा ज़िंदादिल इंसान था। अभी कितने ही दोस्त आ नहीं पाए, सबकी उम्र हो गयी, कुछ फॅमिली में बिजी हो गये।”

वे कहना चाहते थे कि अब उनका कोई दोस्त नहीं है। उनकी हँसी रो रोकर उनका अकेलापन दिखा रही थी।

“... हम दस लोगों का ग्रुप था। अभी मैं अकेला आया। ये वक्त भी ना कितना जल्दी बदलता है। पचास साल हो गये। आप हमारी मिसेज हैं,” उन्होंने अपने बगल में बैठी अपनी पत्नी की और इशारा किया।

मैंने बढ़ कर चरण स्पर्श किये तो बोलीं, “बेटा इनका तो हर रोज का है। जबसे रिटायर हुए हैं तबसे हर रोज बीएचयू की बातें।”

“आपने भी यहीं से इकोनॉमिक्स से एमए किया है। आप रिटायर्ड आईईएस अधिकारी हैं।” उन्होंने बड़ी ही शालीनता और औपचारिक तरीके से अपनी पत्नी जी का परिचय करवाया, और अपनी बात जारी रखते हुए बोले, “... इन्हें तो कभी नहीं भाते बीएचयू के किस्से। पता नहीं कैसी चिढ़ है।”

वो उन्हें कुछ छेड़ना चाहते थे।

“होगी नहीं? किस्मत तो यहीं से फूटना शुरू हुई थी,” वो मुँह फेरते हुए बोलीं।

“हमसे जो पहली बार यहीं मिलीं थीं ना, तभी...” उनके झुर्रीदार चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी।

मैं एक औपचारिक हँसी हँसा। उन्होंने अपनी बात जारी रखी, “अब तो बेटे-बेटी सेटल हो गये। हम और हमारी मिसेज अकेले रहते हैं मुंबई में। अब हमारे पास सुनाने को है ही क्या? बस कुछ किस्से हमारे लड़कपन के। आज पूरे पचास साल बाद भी ये सब अपना सा लगता है। वो रात में बिजली जाने पर पूरे हॉस्टल में चिल्लाना। एम एम वी के चक्कर लगाना...”

यूँ तो चश्मे के पीछे आँसू दिखते नहीं मगर उनकी आवाज में एक भीगापन महसूस कर लिया था मैंने।

“उस दौर में आप हर लम्हे, हर चेहरे को सेल्फियों में कैद नहीं कर सकते थे। बमुश्किल हमारे ग्रुप की एक ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीर है मेरे पास। इसलिए दिल के कैमरे में कैद कर लिया है कितनी ही बातों को। कितनी जवां कहानियाँ, बिरला से ब्रोचा, लंका से गदौलिया, एम एम वी से मधुबन के बीच गुम हो गयीं। आज भी जब मैं आ रहा था तो दोपहर की तेज़ धूप में गाड़ियों के शोर के बीच कहीं बूढ़े कानों को एक नयी आवाज सुनाई दी ‘एक लड़की भीगी भागी सी...’ रात करीब 3 बजे यही गाना गाते-गाते हम सब आ रहे थे लंका से मोरवी...”

मैंने उन्हें बीच में रोका, “माफ़ कीजियेगा सर! ढाई बजे से क्लास है। आपसे मिलकर अच्छा लगा।”

उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया आगे, मैंने कुछ सकुचाते हुए उनसे हाथ मिलाया। अपने गर्म हाथों में उनके उम्र की ठंडक और यादों की नमी महसूस कर सकता था मैं।

मैं स्वतंत्रता भवन से वर्कशॉप की तरफ जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा रहा था। मैं क्लास भी गया था, रूम पर भी आया और शाम के 6 भी बज चुके थे मगर मुझे कुछ पता ही नहीं चला। कुछ चल रहा था मेरे अंदर। एक मन कह रहा था कि ये फालतू की बातें हैं और दूसरा कह रहा था कि यही तो सच है।

“8 महीने हो गये हैं। आते ही कितनी गालियाँ दी थीं इस कॉलेज को, इस हवा में आते ही एक गुस्से से भर गया था। कितना पागलपन किया था। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो याद आता है कि स्कूल में भी तो यही था। किसे अच्छा लगता था हर रोज़ होमवर्क करके कॉपी चेक कराना। जब देखो तब डिसिप्लिन-डिसिप्लिन का लेक्चर सुनना। कितनी नफरत थी उस सेंट ज़ेवियर्स से। मगर आज जब इस कॉलेज आया तो ऐसा लगा कि नहीं स्कूल सबसे अच्छा था, कितने दोस्त थे, सब अपने जैसे थे। इस कॉलेज में हज़ारों की भीड़ में अपने जैसे दोस्तों को ढूँढना मुश्किल है। और अपूर्वा, मेरा सीक्रेट क्रश, यहाँ तो कोई था ही नहीं। आज जब उन दिनों को याद करता हूँ तो लगता है कि जब हमारे पास जो चीज़ होती है तब हमें उसकी कद्र नहीं होती।

लेकिन अब मैं थोड़ा सा समझदार हो रहा हूँ। वक्त के साथ खुद को ढालना सीख लिया है। अब एल टी 3 वाली सड़क पर गोबर परेशान नहीं करता। डिपार्टमेंट के बूढ़े हो चुके पंखों में गर्मी नहीं लगती। गलत साइड में आ रहे ऑटो वाले के लिये मुँह से कुछ गलत नहीं निकलता। ई डी की क्लासेज भी झेल लीं। पान खाते हुए प्रोफेसर्स की अंग्रेजी में गलतियाँ निकालना बंद कर दिया। कॉलेज की अंदरूनी राजनीति को भारत देश की राजनीति समझ कर माफ़ कर दिया। लैन की कमी को जिओ से भर लिया। पनीर आलू की सब्जी खा लेता हूँ। एल सी पर हर रोज चाय पीना आदत बन गया है, या यूँ कहूँ कि नफरत अब प्यार में बदल गयी है।

प्यार हो गया है इस जगह से इस कॉलेज से। अब किसी शायर की तरह इसे महबूब मानकर इसकी झूठी सही पर तारीफ मैं दिल से करता हूँ। और दिल को थोड़ा समझा बुझाकर बोला यार एडजस्ट कर ना। तो अब दिल ने भी जो है उसके साथ एडजस्ट करना सीख लिया है, इसलिए एक क्रश भी है। और आखिर में अब मुझे एक नया शब्द खोजना होगा ये रात के 2 बजे होने वाले नाश्ते को अंग्रेजी में क्या बोलेंगे भाई? ये भी यहीं आकर करने लगा हूँ ना।”

“अब मैं यादें सहेज रहा हूँ कि शायद कभी किसी एलुमनाई मीट में आज से पचास-पचपन साल बाद मेंरे पास भी कहानियाँ हों सुनाने के लिये। कोई किस्सा सुना सकूँ इसलिए कितने किस्से शुरू किये हैं मैंने, बेवजह ही...”

मेरी आँखों की कमी


मेरी आँखों की कमी, दिल की रूमानी जमी,
कंहाँ हो..
मेरी गीली पलकों, होठों की छुप्पी दबी हंसी,

आज भी ज़िंदा मुझमे, तेरे साथ का अहसास,
तेरी कमी..
पूरी नहीं होती, कितनी नापु ख्वाबों की जमी,

दिन ख़फ़ा हुए, खफ़ा नहीं हुई, यादों की जमी,
आती रही..
भूली बिसरी यादें, छूकर जाती रही. तेरी कमी,

मेरी मौसम में नमी, ऐ मेरी बारिश, मेरी कमी,
कंहाँ हो..
मेरे चेहरे की अदा, क़दमों की आहट, मेरी जमी,

तन्हाई

बिस्तर की सिलवटों पर नींद बेचैन पड़ी है,
कभी तो हाथों से हटाता हूँ सिलवटें,
कभी पल्कें मूंद खुदको जगाता हूँ,
सुबह देखा जो सलवटे, निंदो से चेहरे पे पड़ी है,
उढ़कर ठन्डे पानी से चेहरा धो डाला,
था जो बनावटी चेहरा मेरा अब तक,
सजाया सवारा मुस्कुराकर लकीरों को खो डाला।
बाहर निकला देखा तेज बरसात है आज, 
थोड़ा सा भीगा थोड़ा सा सूखा रह गया,
गीले सूखे मौसम में अपनी तन्हाई को खो डाला।

Wednesday, 30 August 2017

*उर्मिला की अग्निपरीक्षा*

वो थी तो शांत लेकिन चंचलता का समूचा सागर उसके अन्दर किसी बांध में फंसा पड़ा था। हिलोरे आतीं, पानी अपना खारापन निकाल कर बाहर फेंक देना चाहता था। हाथ जोड़ कर सूरज से विनती होती कि इस खारे जल को पी जाये ताकि मन की शांति का कुछ रास्ता मिले, लेकिन नहीं, शायद उसकी स्थिति पर किसी तरह कि दया कोई भी नहीं करना चाहता था।

अरे कर भी कौन सकता था! वो वस्तु जो खुद उसके अधीन है दूसरा कोई कैसे उसे दे सकता था। उसे भी पता था कि एक विधवा के लिए जीवन का एकमेव लक्ष्य होता है, मृत्यु की प्रतीक्षा करना, बिना किसी इच्छा-आकांक्षा के।

सब पता था उसे लेकिन उसके मन को नहीं, ना उसके शरीर को। मन था कि मानो हवा में उड़ना चाहता था, उन जीवों के पास जाना चाहता था जो समुद्र की गहराइयों में घूम रहे हैं। उसका मन दुःख और नीरसता के उस जाल को गिलहरी की तरह कुतर देना चाहता था और इससे भी कहीं ज्यादा तीव्र थीं उसकी 'शारीरिक आवश्यकताएं।'

इस बार के सावन महीने ने तो उसके शरीर को पूरी तरह अपने वश में कर लिया था। तीसों दिन उसकी हालत किसी जल-बिना-मछली की तरह रही। एक तड़प के साथ सुबह उठती, अगर रात में सो पाती तो, और उससे हज़ार गुना तड़प के साथ रात को फिर बिस्तर पर लेट जाती। बिस्तर भी उसे डराता था, वो सुकून नहीं बल्कि पीड़ा देता। कितनी ही बार तो वो जमीन पर लेटने के लिए मजबूर हो गयी तब जाकर उसे नींद का एक हिस्सा नसीब हुआ।

काश कोई जीवित निशानी रमेश ने उसके पास छोड़ दी होती तो उसी की मुस्कान के साथ वो पूरा जीवन बिता लेती, लेकिन शादी के 3 महीने शायद इसके लिए पर्याप्त नहीं हुए थे। सास घर में थी नहीं, देवर और ससुर के लिए खाना बनाना, घर की सफाई करना, मोहल्ले की आने जाने वाली औरतों के संग बैठ कर बेमन से उनकी बातें सुनना, और गैर मर्दों की नज़रों से खुद को बचाना, बस यही कुछ काम उसकी रोजाना की ज़िन्दगी का हिस्सा थे।

भाभी और देवर का नाता भी अजीब ही होता है, भरी दुनिया के सामने उंनका आपस में छेड़ छाड़ करना समाज को मंज़ूर है, सब उसे हँसते हँसते क़ुबूल कर लेते हैं, लेकिन इसी रिश्ते को बदनामी का कीचड़ सबसे आसानी से छूता है। और ये कहानी भी कोई उस युग की नहीं जब लोग 14 वर्ष तक लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को उनसे दूर रहने पर भी उन्हें पवित्र ही मानें, क्योंकि वो घर में थीं। आज तो दौर वो है जब अग्निपरीक्षा की चिता उर्मिला के लिए भी तैयार की जाती है।

आज औरत को नोंच डालने के लिए खोजती प्यासी आँखें उसके घर तक पहुच चुकी हैं।

खोखले रिश्ते बस इस काम आने लगे हैं कि उनका सहारा लेकर किसी भी तरह औरत के जिस्म तक पहुंचा जा सके। रामू पढ़ने लिखने में होशियार भले ही नहीं था लेकिन उसके नैतिक मूल्यों में भी कोई कमी नहीं थी। उम्र 20 साल लेकिन भोलापन 5 साल के बच्चे वाला। उसे पता भी नहीं था कि भाभी के साथ छत पर हँसते हुए बातें करते देखकर पड़ोस वाली विमला ताई क्या मतलब निकालेंगी। उसे क्या पता कि भाभी की साड़ी का आँचल पकड़े हुए देखते ही सरपंच चाचा क्यों मुंह बनाकर घर के सामने से जल्दी में निकल गए। भाभी को अपने हाथ से खाना खिलाना उसके लिए बदनामी पैदा कर देगा। और बाज़ार से आते हुए चूड़ियों का एक डिब्बा ले लेना भाभी की सफ़ेद साड़ी पर एक काला धब्बा लगा देगा।

अफवाहें उड़ने की प्रक्रिया से कौन वाकिफ नहीं। लगभग हर तरह की खुसुर-फुसुर कुछ इस तरह बनती है कि - छोटी सी बात ली, थोड़ा सा अपना दिमाग लगाया, कुछ घिन वाले भाव चेहरे पर लाते हुए मोहल्ले के नारद को ये कहते हुए किस्सा बता दिया कि, ‘छोड़ो, हमसे क्या, देखो कहना ना किसी से, बदनामी हो जाएगी।’

उसने भी बोला कि ‘अरे हमें क्या पड़ी है किसी को बोलने की, जानते ही हो आप तो हमको।’

और बस, अवफाह फ़ैल गयी समझो। यूं ही दो चार किस्से उस विधवा के भी तैयार किये गए। गाँव के खाली बैठे बुज़ुर्गों को समय काटने का एक साधन मिल गया, महिलाओं को गेंहू-चावल साफ़ करते हुए बातें करने की सामग्री और मनचलों को उस घर के चक्कर काटने का कारण।

कुछ दिनों बाद घर की बेटी यानी रामू और रमेश की बहन फुल्लो ससुराल से घर आई। एक तो वो स्त्री और उपर से मायके में आई थी, तो गाँव की किसी भी खबर का उससे बच कर निकल जाना असंभव था।

भाभी और देवर के बारे में उड़ती बातें भी उसने सुनी तो पिता को साथ बिठा कर सारा किस्सा समझाया। रास्ता ये निकाला गया कि उन दोनों की शादी कर दी जाए, जो कि जल्द ही कर भी दी गयी।

पति का सहारा मिलना उस विधवा के लिए ख़ुशी की बात थी लेकिन किस मुंह के साथ वो अपनी बाकी इच्छाएं रामू को बता पाती। कैसे कहती कि कल तक जो हाथ मेरे पैर छूते थे आज उन्ही हाथों से मेरे शरीर को भी छुओ.

बहुत दिनों तक ये संघर्ष, ये अग्निपरीक्षा चलती रही।

करवटें, ठण्डे पानी के घूंट, सख्त बिस्तर, पूरे ढंके कपड़े, यही सब थे जिनके हवाले वो अपनी सारी रात कर देती थी लेकिन रातों के संघर्ष दिन की लड़ाइयों से कहीं ज़्यादा कठिन होते हैं। और उसकी ज़िन्दगी में इन रातों का कोई अंत नहीं था। वो किसी आदर्श कहानी का पात्र होती तो ये कहा जा सकता था कि उसने सारी उम्र बिना किसी शिकायत के यूं ही देह की आग में जलते हुए काट दी लेकिन उसनें बिना किसी अपराध के चल रही इस अग्निपरीक्षा को ख़त्म कर देना ही उचित समझा।

एक रात उसने खुद रामू का हाथ पकड़ कर उससे अपने मन की सारी इच्छाएं साफ साफ कह दीं और खुद को उसके हवाले कर दिया।

अब फर्क नहीं पड़ता कि उसकी कहानी पढ़ने वाले उसे किस रूप में देखें लेकिन निरपराध होते हुए अगर उस ‘सीता’ ने अपनी मर्ज़ी से जलती हुई चिता से उठ कर ज़िन्दगी को गले लगाने का निर्णय लिया तो ऊपर बैठे भगवान राम उसके इस कदम को किसी भी तरह से पाप नहीं मानेंगे।